भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व

प्रतिकवाद

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 मनुष्यों के सब समय पूरी बात कहना या लिखना सम्भव नहीं होता ।। हमारे जीवन में बहुत से भाव इस प्रकार सूचित करने आवश्यक होते हैं, जिन्हें दूर से देखकर समझा जा सके ।। बहुत समय और स्थल ऐसे होते हैं जहाँ अपने और दूसरों के लिए पहिचानने का चिह्न निश्चित करना पड़ता है ।। यही चिह्न उस भाव या वस्तु के प्रतीक कहलाते हैं, जिसके लिए वे निश्चित किये गये हों ।। जैसे किसी व्यक्ति का नाम उसका प्रतीक है, नाम के द्वारा उसका सम्मान और अपमान होता है, वही बात अन्य प्रतीकों के सम्बन्ध है ।।

प्राचीन काल के प्रसिद्ध योद्धा अपने- अपने पृथक ध्वज रखते थे ।। महाभारत में श्रीकृष्ण, भीष्म, द्रोण, कर्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन, भीम आदि के विभिन्न आकृतियों वाले रथ- ध्वजों को वर्णन मिलता है ।। ये ध्वज दूर से ही योद्धा को सूचित कर देते थे ।। बड़े आदमियों के भवनों पर भी अपने पारिवारिक ध्वज लगाये जाते थे ।। मन्दिरों पर और पण्डों के स्थानों पर अब भी ध्वज लगाने का नियम है, जिनसे उनकी पहचान हो सकती है ।। संस्थाओं के ध्वज तथा राष्ट्रध्वज का जो सम्मान है वह सभी जानते हैं ।। इनके अपमान के कारण कभी- कभी बड़े संग्राम तक हो जाते हैं ।।

नित्य प्रतीकों का श्रेणी विभाजन करते समय हमको कई प्रकार के प्रतीक मिलते हैं ।।
१. चिह्न प्रतीक, जैसे अक्षराकृतियाँ, स्वास्तिक, त्रिभुज, चतुर्भुज आदि ।।
२. रंगों का प्रतीक, जैसे श्वेत, लाल आदि रंग भाव सूचक हैं ।। ‍
३. पदार्थ- प्रतीक, जैसे शंख, स्वर्ण पाषाणादि ।।
४. प्राणी प्रतीक -गाय, वृषभ, मयूर, हंस आदि ।।
५. पुष्प- प्रतीक- कमल आदि ।।
६. शस्त्र- प्रतीक- चक्र, त्रिशूल, गदा आदि ।।
७. वाद्य प्रतीक- शंख उमरू, भेरी, वंशी आदि ।।
८. वृक्ष प्रतीक- आँवला, पीपल, तुलसी आदि ।।
९. वेश- प्रतीक- शिखा, यज्ञोपवीत, कण्ठी, माला, गेरुआ वस्त्र, दण्ड, तिलक आदि ।।
१०. संकेत- प्रतीक- मुद्राएँ ।।

१. चिह्न- प्रतीकों में हिन्दू- समाज में स्वास्तिक सर्वप्रधान है ।। जैसे समस्त अक्षर 'अकार' से उत्पन्न हुए हैं वैसे ही समस्त रेखाकृतियाँ 'स्वास्तिक' के ही अन्तर्गत आ जाती हैं ।। प्रणव की आकृति नाद रहित होने पर स्वास्तिक ही मानी जाती है ।। केन्द्र के चारों आरे प्रगति, चारों ओर रक्षा, चारों तरफ उन्मुक्त द्वार यह स्वास्तिक में स्पष्ट दिखालाई पड़ता है ।। स्वास्ति (कल्याण) के लिए यही आवश्यक है ।। स्वास्तिक प्रथम पूज्य श्री गणेश जी का चिह्न है ।। इसका अर्थ है कि स्वास्तिक द्वारा हम गणेशजी की शक्ति का लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।। इस प्रधान मंगल चिह्न को पारसी धर्म न उलटा कर लिया और नाम 'अपास्तिक' रखा ।। इसी प्रकार ईसाइयों का क्रास भी इसी का संक्षिप्त रूप है प्रणव का यह रूप न लेकर जिन्होंने नाद को प्रतीक माना उनकी परम्परा में वह काल व क्रम से चांद और तारे के रूप मे आ गया, जैसे कि मुसलमानों में ।। पर खोज करने से इन सबका उद्गम स्वास्तिक ही सिद्ध होता है ।।

३. पुष्प- प्रतीकों में कमल भारतवर्ष का सबसे अधिक सुन्दर पुष्प है जिसकी उपमा आदर्श सौन्दर्य वाले नर- नारियों के लिए दी जाती है ।।

४. शस्त्र- प्रतीक में चक्र और त्रिशूल सबसे महत्त्वपूर्ण हैं जो विष्णु और शिव के मुख्य शास्त्र हैं ।।

५. प्राणी- प्रतीकों में गौ, पृथ्वी क्षमा का प्रतीक है ।। वृषभ धर्म का प्रतीक है ।। हंस, ज्ञान और निर्णय का प्रतीक है तथा सर्प बल और प्राण का प्रतीक है ।। इनमें से कुछ तो ऐसे हैं कि जिनका अर्थ स्पष्ट है जैसे हंस के शुभ्रता, तीव्रगति नीर क्षीर विवेक आदि गुण ज्ञान और विवेक को प्रकट करते हैं ।। इसी प्रकार गाय भी पृथ्वी के समान मनुष्य मात्र की पालक, धारक और क्षमा की मूर्ति है ।।
इसी प्रकार वाद्य- प्रतीक, वृक्ष- प्रतीक, वेश- प्रतीक के द्वारा भी अनेक प्रकार के भावों और उद्देश्यों को प्रकट किया जाता है ।। इनसे प्रकट होता है कि प्राचीन हिन्दू संस्कृति में प्रतीकों का पर्याप्त प्रचार था और उनके द्वारा पठित- अपठित सभी थोड़े से संकेत से ही धार्मिक सिद्धांतों के मर्म और आदेशों को समझने में समर्थ हो सकते थे ।।

(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ. सं. ३.१३)

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