विश्व ब्रह्माण्ड की आश्चर्यजनक गतिविधियों और प्राणी जगत में विलक्षण क्रिया- कलापों को देखकर यह विचार उठना स्वाभाविक है कि इस अद्भुत विलक्षण संसार की निर्मात्री, नियत्ता और पोषक कोई न कोई सर्व- समर्थ विचारवान सत्ता अवश्य है ।। अपने आसपास के विलक्षण जगत को देखकर ही मनीषियों के मन में उसके कर्त्ता, स्वामी, के सम्बन्ध में जिज्ञासा उत्पन्न हुई ।। चिन्तन- मनन, शोध और साधना द्वारा उन्हें ईश्वर के अस्तित्व की अनुभूति हुई ।। न केवल अनुभूति हुई वरन उस सर्वशक्तिमान सत्ता के संघर्ष सान्निध्य से लाभ उठाने की सम्भावना भी साकार हुई ।।
जिन महर्षि- मनीषियों ने ईश्वर सान्निध्य का लाभ और आनन्द उठाया, उनके अलावा ऐसे व्यक्ति भी थे जिन्हें प्रत्यक्ष जगत के अतिरिक्त अन्य किसी सत्ता का अस्तित्व ही कल्पना प्रसूत लगता था ।। यहीं से आस्तिकवाद और नास्तिकवाद के दो परस्पर विरोधी दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ ।। नास्तिकों को कथन है, ईश्वर में विश्वास रखना मात्र है । जब विज्ञान द्वारा ईश्वरीय सत्ता सिद्ध ही नहीं होती तो उसे माना ही क्यों जाए? परन्तु एक विचारणीय प्रश्न है कि क्या हम केवल उन्हीं बातों पर विश्वास करते हैं कि जो विज्ञान की कसौटी पर प्रामाणिकता पा चुकी हैं? उत्तर मिलता है नहीं ।। जीवन के कितने ही आदर्श ऐसे हैं जिनकी पुष्टि विज्ञान से नहीं अपितु अन्तरात्मा से होती है ।। नीतिशास्त्र भी ऐसा ही है विषय है जो विज्ञान की दृष्टि से निरर्थक ठहरता है ।। वस्तुतः जिसे विज्ञान कहा जाता है वह पदार्थ- विज्ञान है ।। इस पदार्थ- विज्ञान द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म ईश्वरीय तत्वों तक कैसे पहुँचा जा सकता है?
अनेकों बातें ऐसी हैं जो वैज्ञानिक दृष्टि से अर्थहीन हैं परन्तु सामाजिक अभ्युन्नति के लिए वे मेरुदण्ड के समान हैं ।। उदाहरणार्थ, विज्ञान की दृष्टि में नर और मादा का यौन सम्पर्क अत्यन्त स्वाभाविक है ।। पशु- पक्षी भी ऐसा करते हैं ।। उनमें माता, बहिन या पुत्री के सम्बन्धों का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता ।। लेकिन मानव- समाज में माता, बहिन या पुत्री के साथ यौनाचार नितान्त यौन- सदाचार व्यर्थ सिद्ध होता है तो क्या हम इसकी व्यर्थता को मानकर माता, बहिन या पुत्री की मर्यादा को छोड़ देंगे?
विज्ञान के अनुसार जीव, जीव का भोजन है ।। प्रत्येक प्राणी के लिए अपने स्वार्थ की पूर्ति, पेट और प्रजनन परक जीवन ही प्रधान है ।। स्वार्थपरता तथा चार्वाकों जैसे स्वच्छ भोगवाद का विरोध विज्ञान के आधार पर नहीं किया जा सकता ।। हाँ, समर्थन अवश्य हो सकता है ।। परन्तु यदि परोपकार करुण, सहानुभूति, त्याग, सेवा, सहिष्णुता जैसी सत्प्रवृत्तियों को मानव जीवन से बहिष्कृत कर दिया जाये तो सामाजिक सुख- शांति स्वप्नमात्र ही रह जायेगी ।।
विज्ञान के अनुसार मृत्यु से डरना प्रत्येक प्राणी का स्वाभाविक धर्म है ।। यदि मनुष्य को भी इस स्वाभाविक धर्म से आबद्ध मान लिया जाय तो मातृभूमि की बलिवेदी पर हँसते- हँसते अपने प्राणों का बलिदान देने वाले सैनिक प्रकृति विरोधी एवं महामूर्ख ही कहे जायेंगे ।। वे जान- बूझकर मृत्युपाश को गले क्यों लगाते हैं, इनका उत्तर विज्ञान के पास नहीं है ।। इस प्रकार यह सुस्पष्ट है कि अनेक प्रश्नों के उत्तर विज्ञान के पास नहीं है और इसी प्रकार ईश्वर की सिद्धि- असिद्धि में भी वह नितान्त असमर्थ है ।।
कुछ लोग कहते हैं कि प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर जिस वस्तु की सत्ता सिद्ध हो, उसे ही माना जाय ।। क्योंकि प्रत्यक्ष के आधार पर ईश्वरीय सत्ता सिद्ध नहीं होती अतएव उसे मानव रूढ़ि या परम्परा मात्र है ।। परन्तु यह तर्क भी उचित नहीं ।। प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर प्रत्येक वस्तु को सिद्ध नहीं किया जा सकता ।। उसके द्वारा तो यह भी सिद्ध नहीं किया जा सकता की हमारा पिता कौन है, परन्तु माता की साक्षी को ही इसके लिए पर्याप्त मान लिया जाता है ।।
ईश्वर दिखलाई नहीं देता इसलिए उसे माना न जाय यह तर्क नितान्त सारहीन है ।। अनेकों वस्तुएँ ऐसी हैं जो दिखलाई नहीं पड़ती परन्तु फिर भी उन्हें अनुभव किया तथा माना जाता है ।। उदाहरणतः अपने नेत्र में अंजन अपने को ही कहाँ दिखाई पड़ता है? सरोवर में बादलों के क्रोड़ से गिरे जल- बिन्दुओं को कोई देख पाता है? यद्यपि तारकगणों की सत्ता दिन में भी होती है परन्तु सूर्य के प्रकाश से अभिभूत होने के कारण वे कहाँ दृष्टिगत आते हैं? बहुत सूक्ष्म वस्तु भी कहाँ दिखाई देती है? आकाश में छाये जलकण दिखलाई देते हैं ।।
जो वस्तु दिखाई न दे वह है ही नहीं यह मान्यता किसी प्रकार भी उचित नहीं ठहराई जा सकती ।। केवल आँखें ही किसी वस्तु के अस्तित्व को प्रामाणिक करने का एकमात्र साधन नहीं है ।।
ईश्वर के अस्तित्व से केवल इस कारण इंकार करना कि वह इस आज के अविकसित विज्ञान या बुद्धिवाद की कसौटी पर खरा नहीं उतरता, कोई ठोस कारण नहीं है ।। प्रत्यक्ष के आधार पर तो यह भी प्रामाणिक नहीं किया जा सकता कि हमारा पिता वस्तुतः कौन है ।। माता की साक्षी को ही इसके लिए पर्याप्त प्रमाण मान लिया जाता है ।। मानव- जीवन की अनेकों महत्त्वपूर्ण अवस्थायें उस विज्ञान के आधार पर निर्भय हैं जिसे अध्यात्म विज्ञान कहते हैं ।। पदार्थ विज्ञान से नहीं, अध्यात्म- विज्ञान से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है ।।
ईश्वर का अवलम्बन करके ही मानव- जाति की अब तक की प्रगति सम्भव हुई है ।। प्रेम, करुण, उदारता, दान, संयम, सदाचार, पुण्य, परमार्थ जैसे सद्गुणों का विकास आस्तिकता के आधार पर ही सम्भव हो सका है और इन्हीं गुणों के द्वारा सामाजिक की प्रवृत्ति बढ़ी है ।। यदि इस महान् आदर्श का परित्याग कर दिया जाय तो व्यक्ति का आन्तरिक स्तर इस प्रकार का ही बनेगा जिससे द्वेष, घृणा, संघर्ष और आतंक का मार्ग अपनाने के लिए मन चलने लगे ।। हमारे पड़ोसी देश चीन का उदाहरण सामने है ।। वहाँ की जनता का कैसा नृशंस उत्पीड़न साम्यवादी सरकार ने किया है, पड़ोसी देशों के साथ कैसी आक्रमणात्मक नीति अपनाई है, आदर्शवाद से नितान्त पतित छल- छिद्र भरी कूट- नीति का सहारा लिया है ।। प्रचार में कितना सफेद झूँठ अपनाया है, यह किसी से छिपा नहीं है ।। आदर्शवादिता का ही दूसरा नाम आस्तिकता है ।। जो आस्तिकता छोड़ चुका उसके लिए छल, असत्य, आक्रमण, उत्पीड़न आदि नाम की भी कोई वस्तु नहीं रह जाती ।। पार्टी की नीति ही उसके लिए सब कुछ है भले ही वह कितनी गलत क्यों न हो ।। नैतिक प्रवृत्तियों से रहित विचारधारा कितनी भयावह होती है, इसका अनुभव पग- पग पर होता रहता है ।। नैतिकता का बाँध आस्तिकता की चट्टानों से ही बनता है ।। यदि वह बाँध तोड़ दिया गया तो फिर व्यक्ति यह सरकार अपनी- अपनी सनकें पूरी करने के लिए कुछ कर गुजरेंगे और शान्तिप्रिय लोगों के लिए जीवन धारण कर सकना भी एक समस्या बन जायेगा ।।
आस्तिकता मानव जीवन की आधारशिला है, उसका परित्याग करना एक प्रकार से नैतिकता की व्यवस्था को ही चौपट कर डालने जैसी विपत्ति खड़ी करना होगा ।। मानव- जाति के भविष्य को खतरे में डालने वाली इस विभीषिका से हम जितनी जल्दी सावधान हो जावें, उतना ही उत्तम है ।।