भारतीय संस्कृति में स्वर्ग और नर्क का विधान है ।। शुभ कार्यों से स्वर्ग और निंद्य कार्यों, दुराचरण, पाप आदि से नर्क की कठोर यातनाएँ भुगतनी पड़ती हैं- हम यह मानते आये हैं ।। स्वर्ग को नाना नामों से पुकारा गया है ।।
इसका एक नाम ब्रह्मलोक भी है कहा गया हैः-
''तेषां में वैष ब्रह्मलोको येषां, तपो ब्रह्मचर्य येषु सत्यं प्रतिष्ठितम् ।''
जिनमें तप ब्रह्मचर्य है, सत्य प्रतिष्ठित है, उन्हें ब्रह्मलोक मिलता है ।। जिनमें न तो कुटिलता है और न मिथ्या आचरण है और न कपट है, उन्हीं को विशुद्ध ब्रह्मलोक मिलता है ।।
जिस मानव में आशंका, दुःख, चिन्ता, भय, कष्ट, क्षोभ और निरुत्साह है, भोग- विलास और तृष्णा है वही नर्क है जो धर्म- पालन, ईश्वर की सत्ता से विमुख है नास्तिक है, वह नरक में जाते हैं ।। नष्ट हो जाते हैं ।। काम, क्रोध, लोभ, मोह ये चारों नर्क के द्वार हैं ।। इनमें से किसी के भी वश में पड़ जाने पर नर्क में पड़ा हुआ समझना चाहिए ।। अशुभ वासनाओं के भ्रम- जाल में पड़कर मनुष्य दारुण नर्क की यंत्रणा में फँस सकता है ।। अन्य प्राणी तो क्षुधा और वासनाओं के जंजाल में बँधे हुए वासना- तृप्ति में ही जीवन नष्ट कर रहे हैं ।। वे नवीन कर्मों के द्वारा अपने को समुन्नत करने का प्रयत्न नहीं करते, पर मनुष्य कर्मयोनि में रहकर नये संस्कारों का उपार्जन करने वाला प्राणी है ।। उसके सामने दो मार्ग हैं, एक तो बन्धन या नरक का और दूसरा मोक्ष या स्वर्ग का ।। संसार के भोगों में फँस हुआ मानव नर्क में ही पड़ा हुआ है ।। इसके विपरीत, सत्संग, परोपकार, शुभ कार्य, समाज- सेवा, आत्म- सुधार द्वारा मनुष्य मोक्ष की ओर अग्रसर होता है ।।
जो व्यक्ति शास्त्र- निषिद्ध कर्मों में पाप- प्रवृत्तियों में लगे रहते हैं, वे बार- बार आसुरी योनि को तथा अधम गति को प्राप्त होते हैं ।। (गीता १२- २०) विषयासक्ति में पड़े हुए भोगों को लगातार भोगने वाले नर्क में जाते हैं ।। सांसारिक भोग सुखों की प्राप्ति के साधन रूप सकाम- रूप से भिन्न यथार्थ कल्याण को न जानने वाले व्यक्ति पापों के परिणामस्वरूप हीन योनियों (कीट, पत, शूकर या वृक्ष, पत्थर इत्यादि) में जाते हैं ।।
पौराणिक मान्यता यह है कि स्वर्ग और नर्क दो भिन्न- भिन्न लोक है ।। दण्ड या पुरस्कार प्राप्ति के लिये मनुष्य वहाँ जाता है ।। वहाँ अपने पुण्य- पाप का पुरस्कार प्राप्त कर जीवन पुनः इस लोक में आता है ।।
दूसरी मान्यता यह है कि स्वर्ग और नर्क स्वयं मनुष्य में ही विद्यमान हैं ये उसके मन के दो स्तर हैं मनुष्य के मन में स्वर्ग की स्थिति वह है जिसमें देवत्व के सद्गुणों का पावन प्रकाश होता है ।। दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, उदारता की धाराएँ बहती हैं ।। इस स्थिति में मन स्वतः प्रसन्न रहता है ।। यही मानसिक मार्ग कल्याणकारी है ।। अतः इसे स्वर्ग की स्थिति भी कहा जा सकता है ।। दूसरी मनःस्थिति वह है जिसमें मनुष्य उद्वेग, चिंता, भय, तृष्णा, प्रतिशोध, दम्भ आदि राक्षसी वृत्तियाँ मनुष्य को अन्धकूप में डाल देती हैं ।। अनुताप और क्लेश की काली और मनहूस मानसिक तस्वीरें चारों ओर दिखाई देती हैं ।। अन्तर्जगत् यंत्रणा से व्याकुल रहता है ।। कुछ भी अच्छा नहीं लगता ।। शोक, संताप और विलाप की प्रेतों जैसी आकृतियाँ अशान्त रखती हैं ।। यही नर्क की मनःस्थिति है ।। इस प्रकार इस जगत् में रहते हुए मानव- जीवन में ही हमें स्वर्ग और नर्क के सुख- दुःख प्राप्त हो जाते हैं ।। भारतीय संस्कृति के अनुसार सम्भव है कि अपने पवित्र कर्मों द्वारा आपको इसी जगत् में मनःशान्ति, सुख, स्वास्थ्य, संतुलन, इत्यादि प्राप्त हो जाए, या अपने कुकृत्यों द्वारा अशांति, द्वेष, वैर, तृष्णा, लोभ आदि का नर्क मिले ।।
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ. सं. २.२०)