भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व

ईश्वर विश्वास क्यों? किसलिए?

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ईश्वर पर विश्वास अनिवार्य किसलिए
ईश्वर विश्वास की इसलिए आवश्यकता है कि उसके सहारे हम जीवन का स्वरूप, लक्ष्य एवं उपयोग समझने में समर्थ होते हैं ।। यदि ईश्वरीय विधान को अमान्य ठहरा दिया जाय तो फिर मत्स्यन्याय का ही बोलबाला रहेगा ।। आन्तरिक नियंत्रण के अभाव में बाह्य नियंत्रण मनुष्य जैसे चतुर प्राणी के लिए कुछ बहुत अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो सकता ।। नियंत्रण के अभाव में सब कुछ अनिश्चित और अविश्वस्त बन जायेगा ।। ऐसी दशा में हमें आदिमकाल की वन्य स्थिति में वापिस लौटना पड़ेगा और शरीर निर्वाह करते रहने के लिए पेट प्रजनन एवं सुरक्षा जैसे पशु प्रयत्नों तक सीमित रहना पड़ेगा ।। ईश्वर विश्वास ने आत्म- नियंत्रण का पथ प्रशस्त किया और उसी आधार पर मानवी सभ्यता का, आचार संहिता का, स्नेह- सहयोग एवं विकास परिष्कार का पथ प्रशस्त किया है ।। यदि मान्यता क्षेत्र से ईश्वरीय सत्ता को हटा दिया जाय तो फिर संयम और उदारता जैसी मानवी विशेषताओं को बनाए रखने का कोई दार्शनिक आधार शेष न हर जायेगा ।। तब चिंतन क्षेत्र में जो कुछ उच्छ्रंखलना प्रवेश करेगी उसके दुष्परिणाम वैसे ही होंगे जैसे कि कथा- गाथाओं में असुरों के नृशंस क्रिया- कलाप का वर्णन पढ़ने- सुनने को मिलता है ।।

ईश्वर अन्धविश्वास नहीं एक तथ्य है ।। विश्व की व्यवस्था सुनियान्त्रिक है, सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र आदि सभी का उदय- अस्त क्रम अपने ढर्रे पर ठीक तरह चल रहा है, प्रत्येक प्राणी अपने ही जैसी संतान उत्पन्न करता है और हर बीज अपनी ही जाति के पौधे उत्पन्न करता है ।। अणु- परमाणुओं से लेकर समुद्र- पर्वतों तक की उत्पादन वृद्धि एवं मरण का क्रिया- कलाप अपने ढंग से ठीक प्रकार चल रहा है ।। शरीर और मस्तिष्क की संरचना और कार्यशैली देखकर आश्चर्यचकित हर जाना पड़ता है ।। इतनी सुव्यवस्थित कार्य- पद्धति बिना किसी चेतना का अनायास ही नहीं चल सकती ।। उस नियंता का अस्तित्व जड़ और चेतन के दोनों क्षेत्रों में प्रत्यक्ष और परोक्ष की दोनों कसौटियों पर पूर्णतया खरा सिद्धि होता है ।। वह समय चला गया जब अधकचरे विज्ञान के नाम पर संसार क्रम को स्वसंचालित और प्राणी को चलता- फिरता पौधा मात्र ठहराया गया था ।। अब पदार्थ विज्ञान और चेतन विज्ञान में इतनी प्रौढ़ता आ गई है कि वे नियामक चेतना शक्ति के अस्तित्व को बिना किसी आना- कानी के स्वीकार कर सकें ।।

कर्मफल की व्यवस्था भी उसी नियंत्रण के अंतर्गत आती है ।। समाज और शासन द्वारा दण्ड, पुरस्कार की व्यवस्था है ।। ईश्वरीय न्याय में भी सत्कर्मों के लिए समुचित दण्ड और पुरस्कार का विधान है ।। देत तो मुकदमा का फैसला होने में भी लगती है और बीज बोने के बाद फसल काटने में भी ।। इस व्यवस्था को स्थूल बुद्धि समझ नहीं पाती ।। सत्कर्मों को फल तत्काल न मिलने पर लोग अधीर होने लगते हैं और दुष्कर्मों का तात्कालिक लाभ देखकर उनके लिए आतुरता प्रकट करते हैं ।। इन भूलभुलैयों में भटका व्यक्ति अपना और समाज का भविष्य अन्धकारमय बनाता है और वर्तमान को अवांछनीयताओं से भर देता है ।। इस गड़बड़ी की रोकथाम में ईश्वर विश्वास से भारी सहायता मिलती है और व्यक्तिगत चरित्र- निष्ठा एवं समाज गत सुव्यवस्था का आधार सुदृढ़ बना रहता है ।। इन्हीं सब दूरगामी परिणामों को देखते हुए तत्वज्ञानियों ने ईश्वर विश्वास को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहने के लिए जन- साधारण को विशेष प्रेरणा दी है ।। वह आधार दुर्बल न होने पाये, रह रोज स्मृतिपटल पर जमा रहे, इसलिए साधना, उपासना के धर्म- कृत्यों को सुविस्तृत विधि -विधान विनिर्मित किया है ।। इन्हें अपनाकर मनुष्य दिव्यसत्ता को अपने भीतर- बाहर विद्यमान देखता है और कुमार्ग पर चलने का अधिक उत्साह के साथ प्रयत्न करता है ।। ईश्वर विश्वास के फलस्वरूप पशु- प्रवृत्तियों के नियंत्रण में भारी सहायता मिलती है और व्यक्ति तथा समाज का स्तर संतुलित बनाए रहने का प्रयोजन बहुत अंशों तक पूरा होता है ।। आस्तिकता अपनाकर विश्व- शांति का- मानवी उत्कृष्टता का आधार ही डगमगाने लगेगा, इसलिए तत्त्वदर्शियों ने आध्यात्मिक अनास्था की- आस्तिकता की कठोर शब्दों में भर्त्सना की है ।।

जीवन- दर्शन को ईश्वर विश्वास से उच्चस्तरीय प्रेरणा मिलती है ।। संसार के सभी प्राणी ईश्वर के पुत्र हैं ।। कोई न्यायप्रिय, निष्पक्ष पिता अपनी सभी संतानों को लगभग समान अनुदान देने का प्रयत्न करता है ।। ईश्वर ने अन्य प्राणियों को मात्र शरीर निर्वाह जितनी बुद्धि और सुविधा दी तथा मनुष्य को बोलने, सोचने, पढ़ने, कमाने, बनाने आदि की अनेकों विभूतियाँ दी हैं ।। अन्य प्राणियों की और मनुष्यों की स्थिति की तुलना करने पर जमीन- आसमान पैसा अन्तर दिखाई पड़ता है ।। इसमें पक्षपात और अनीति का आक्षेप ईश्वर पर लगता है ।। जब सामान्य प्राणी अपनी संतान को समान स्नेह, सहयोग देते हैं तो फिर ईश्वर ने इतना अन्तर किसलिए रखा? एक को इतना नीचा कैसे रखा? विभेद को समझने में प्रत्येक विवेक सम्पन्न व्यक्ति को भारी उलझन का सामना करना पड़ता है ।।

तत्त्वदर्शी विवेक बुद्धि इस विभेद के अन्तर का कारण भली प्रकार स्पष्ट कर देती है ।। मनुष्य को अपने वरिष्ठ सहकारी ज्येष्ठ पुत्र के रूप में सृजा गया है ।। उसके कन्धों पर सृष्टि का अधिक सुन्दर, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने को उत्तरदायित्व सौंपा गया है ।। इसके लिए उसे विशिष्ट साधन उसी प्रयोजन के लिए अमानत के रूप में दिए गए हैं ।। मिनिस्टिरों को सामान्य कर्मचारियों की तुलना में सरकार अधिक सुविधा साधन इसलिए देती है कि उसकी सहायता से वे अपने विशिष्ट उत्तरदायित्वों का निर्वाह सुविधापूर्वक कर सकें ।। यह सुविधाएँ उनके व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं वरन् जन सेवा के लिए दी जाती है बैंक के खजान्ची के हाथ में बहुत- सा पैसा रहता है यह उसके निजी उपभोग के लिए नहीं बैंक प्रयोजन के लिए अमानत रूप में रहता है ।। निजी प्रयोजन के लिए तो क्या मिनिस्टर, क्या खजान्ची सभी को सीमित सुविधा मिलती है ।। अत्यधिक साधन जो उनके हाथ में रहते हैं उन्हें वे निर्दिष्ट कार्यों में ही खर्च कर सकते हैं ।। मानवी कार्यों में उपभोग करने लगें तो यह दण्डनीय अपराध होगा ।।

ठीक इसी प्रकार मनुष्य के पास सामान्य प्राणियों के उपलब्ध शरीर निर्वाह भर के साधनों से अतिरिक्त जो कुछ भी श्रम, समय, बुद्धि, वैभव, धन, प्रतिभा आदि की विभूतियाँ मिली हैं, वह सभी लोकोपयोगी प्रयोजनों के लिए मिली हुई सार्वजनिक सम्पत्ति है ।। शरीर रक्षा एवं पारिवारिक उत्तरदायित्वों के लिए औसत नागरिक स्तर का निर्वाह करे लेने के अतिरिक्त मनुष्य के पास जो कुछ बचता है, उसकी एक- एक बूँद उसे लोक कल्याण के लिए नियोजित करनी चाहिए ।। इसी में ईश्वरीय अनुदान और मानवी गरिमा की सार्थकता जीवन की गरिमा और जिम्मेदारी समझनी चाहिए तथा उसी के अनुरूप अपने चिंतन तथा र्कत्तव्य का निर्धारण करना चाहिए ।। अपनी विशेषताओं को उपयोग इसी महान प्रयोजन के लिए करना चाहिए ।।

जीवन- दर्शन की यह उत्कृष्ट प्रेरणा ईश्वर विश्वास के आधार पर ही मिलती है ।। जीवन क्या है, क्यों है उसका लक्ष्य एवं उपयोग क्या है? इन प्रश्नों का समाधान मात्र आस्तिकता के साथ जुड़ी हुई दिव्य दूरदर्शिता के आधार पर ही मिलता है ।। इसी प्रेरणा से प्रेरित मनुष्य संकीर्ण स्वार्थपरता से- वासना, तृष्णा के भव- बन्धनों से छुटकारा पाकर आत्म- निर्माण विकास की ओर अग्रसर होता है और ऐतिहासिक महामानवों जैसी देव भूमिका अपनाने के लिए अग्रसर होता है ।। व्यक्ति और समाज के कल्याण के महान आधार खड़े करने वाली यह एक बहुत बड़ी दार्शनिक उपलब्धि है ।। यदि आस्तिकता का सही स्वरूप समझा जा सके और जीवन- दर्शन के साथ ठीक प्रकार जोड़ा जा सके तो निश्चय ही मनुष्य में देवत्व का उदय और इसी धरती पर स्वर्ग का अवतरण सम्भव हो सकता है ।। यही तो ईश्वर द्वारा मनुष्य सृजन का एकमात्र उद्देश्य है ।।

सृष्टि के सभी प्राणी एक पिता के पुत्र होने के नाते सहोदर भाई हैं और वे परस्पर एक- दूसरे को स्नेह, सहयोग पाने के अधिकारी हैं ।। आस्तिकता की यही मान्यता अपनाने के लिए प्रत्येक विचारशील को प्रेरणा देती है इसका अनुकरण करके प्राणिमात्र के बीच आत्मीयता की भावना विकसित होती है और उसके आधार पर एक- दूसरे के दुःख- दर्द को अपना समझने एवं उदार व्यवहार करने की आकांक्षा प्रबल हो सकती है ।। विश्व- कल्याण की दृष्टि में इस प्रकार की भावनात्मक स्थापनाएँ अतीव श्रेयस्कर परिणाम प्रस्तुत कर सकती हैं ।। कहना न होगा कि यह दृष्टिकोण हर दृष्टि से- हर क्षेत्रों से उज्ज्वल भविष्य की भूमिका प्रस्तुत कर सकने वाला सिद्ध हो सकता है ।।

ईश्वर विश्वास के कल्पवृक्ष पर तीन फल लगते बताये गए हैं- (१) सिद्धि, (२) स्वर्ग, (३) मुक्ति ।। सिद्धि का अर्थ है प्रतिभावान, परिष्कृत व्यक्तित्व एवं उसके आधार पर बन पड़ने वाले प्रबल पुरुषार्थ की प्रतिक्रिया अनेकानेक भौतिक सफलताओं के रूप में प्राप्त होना ।। स्पष्ट है कि चिरस्थाई और प्रशंसनीय सफलतायें गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता के फलस्वरूप ही उपलब्ध होती हैं ।। मनुष्य को दुष्प्रवृत्तियों से विरत करने और सत्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए उत्कृष्ट चिंतन और आदर्श कर्त्तव्य अपनाना पड़ता है ।। यही सभी आधार आस्तिकवादी दर्शन में कूट- कूटकर भरे हैं ।। आज का विकृत आध्यात्म- दर्शन तो मनुष्य को उलटे भ्रम- जंजालों में फँसाकर सामान्य व्यक्तियों से भी गई- गुजरी स्थिति में धकेलता है, पर यदि उसका अर्थ स्वरूप विदित हो तो उसे अपनाने का साहस बन पड़े तथा निश्चित रूप से परिष्कृत व्यक्तित्व का लाभ मिलेगा ।। यहाँ यह सफलता मिली तो अन्य सफलताएँ हाथ बाँधकर सामने खड़ी दिखाई पड़ेंगी ।। महामानवों द्वारा प्रस्तुत किये गए चमत्कारी क्रिया- कलाप इसी तथ्य की साक्षी देते हैं ।। इसी को सिद्धि कहते हैं ।। अध्यात्मवादी आस्तिक व्यक्ति चमत्कारी सिद्धियों से भरे- पूरे हैं ।। इस मान्यता को उपरोक्त आधार पर अक्षरशः सही ठहराया जा सकता है ।। किन्तु यदि सिद्धि का मतलब- बाजीगरी जैसी अचम्भे में डालने वाली करामातें समझा जाय तो यही कहा जायेगा कि वैसा दिखाने वाले धूर्त और देखने के लिए लालायित व्यक्ति मूर्ख के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।।

आस्तिकता के कल्पवृक्ष पर लगने वाला दूसरा फल है- स्वर्ग ।। स्वर्ग का अर्थ है- परिष्कृत गुणग्राही विधायक दृष्टिकोण ।। परिष्कृत होने पर अभावग्रस्त और दरिद्र नहीं रह सकता क्योंकि मनुष्य जीवन अपने आप में इतना पूर्ण है कि उसे संसार की किसी भी सम्पदा की तुलना में अधिक भारी माना जा सकता है ।। शरीर यात्रा के अनिवार्य साधन प्रायः हर किसी को मिले होते हैं, अभाव तृष्णाओं की तुलना में उपलब्धियों को कम आँकने के कारण ही प्रतीत होता है ।। अभावों की, कठिनाइयों की, विरोधियों की लिस्ट फाड़ फेंकी जाय और उपलब्धियों, सहयोगियों की सूची नये सिरे से बनाई जाय तो प्रतीत होगा कि कायाकल्प जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई ।। दरिद्रता चली गई, उसके स्थान पर वैभव आ विराजा छिद्रान्वेषण की आदत हटाकर गुण ग्राहकता अपनाई जाय तो प्रतीत होगा कि इस संसार में ईश्वर उद्यान की- नन्दन वन की सारी विशेषताएँ विद्यमान है ।। स्वर्ग इसी विधायक दृष्टिकोण का नाम है, जिसे अपनाकर अपनी सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों की देव सम्पदा को हर घड़ी प्रसन्न रहने के लिए पर्याप्त माना जा सकता है ।।

आस्तिकता का तीसरा प्रतिफल है- मुक्ति ।। मुक्ति का अर्थ है- अवांछनीय भव- बन्धनों से छूटना ।। अपनी दुष्प्रवृत्ति, मूढ़ मान्यताएँ एवं विकृत आकांक्षाएँ ही वस्तुतः सर्वनाश करने वाली पिशाचिनी है ।। काम, क्रोध लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईष्र्या, द्वेष, छल चिन्ता, भय, दैन्य जैसे मनोविकार ही व्यक्तित्व को गिराते- गलाते, जलाते रहते हैं ।। आधि और व्याधि इन्हीं के आमन्त्रण पर आक्रमण करती हैं ।। आस्तिकता इन्हीं दुर्बलताओं से जूझने की प्रेरणा भरती है ।। सारा साधना शास्त्र इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों को उखाड़ने, खदेड़ने की पृष्ठभूमि विनिर्मित करने के लिए खड़ा किया गया है ।। इनसे छुटकारा पाने पर देवत्व दुर्गति से उभरता है और अपनी स्वतंत्रता का उल्लास भरा अनुभव होता है ।।

मनुष्य कितने ही दुराग्रहों, पूर्वाग्रहों, पक्षपातों, प्रचलनों, अनुकरणों से घिरा बँधा कंटकाकीर्ण राह पर घिसटता रहता है ।। स्वतंत्र चिंतन की विवेक दृष्टि उसे कदाचित ही मिल पाती है ।। यदि वह मिली होती तो निश्चय ही औचित्य को प्रश्रय दिया गया और तथाकथित मित्र- परिचित क्या कहते हैं? इसकी पूर्ण उपेक्षा करके विवेक की तलाश में कदम बढ़ाने का साहस सँजोया होता ।। महामानव इसी सत्साहस के बल पर स्वयं धन्य बने हैं और अपने युग को- क्षेत्र को धन्य बनाया है ।। जीवन- मुक्त पुरुष अवांछनीय चिंतन से मुक्त होते हैं और आत्मिक स्वतंत्रता का आनन्द लेते हैं ।। स्पष्ट है कि ईश्वर भक्तों को संयमी, स्वार्थपरत से रहित, लोकोपयोगी ब्राह्मण और साधु स्तर का जीवन जीना पड़ा है ।। इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है ।। ईश्वर विश्वास अपनाकर हम जीवन लक्ष्य प्राप्त करने की ओर अग्रसर होते हैं और उसे पाकर रहते हैं ।।

आस्तिकता के सिद्धि, स्वर्ग, मुक्तिरूपी तीन फलितार्थों के शास्त्रीय स्वरूप पर किसी को आपत्ति हो तो इसी जीवन में चरितार्थ होने वाली उन परिणतियों के सम्बन्ध में कभी भी दो मत नहीं हो सकते, जिनकी कि चर्चा ऊपर की गई है ।। नास्तिक के प्रतिपादन इसी सम्बन्ध में ऊहापोह करते हैं व शास्त्रार्थ करते देखे गये हैं ।। वस्तुतः ईश्वर विश्वास एक ऐसा दर्शन है, जो किसी भी धर्म सम्प्रदाय के अनुयायी द्वारा अपनाये जाने पर आत्मबल- विवेक दृष्टि के रूप में विकसित होता व उनके जीवन को सफल बनाता है ।। सफल बनाता है ।। सफल महामानवों के प्रसंग इस सम्बन्ध में देखे जा सकते हैं ।। उन्होंने आत्म- विश्वास अनुशासन के रूप में चहुँ ओर फैले व्यवसायी अनुशासन के रूप में, सिद्धान्तवादिता नीतिमत्ता के चमत्कारों के रूप में ईश्वर को देखा और आस्तिकता को अपनाया ।। यही वह दर्शन है, जिसे जीवन में उतारकर कोई भी अपना मनुष्य जन्म धन्य करता है ।।

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