ईश्वर हमारे साथ पक्षपात करेगा ।। सत्कर्म न करते हुए भी विविध- विधि सफलताएँ देगा या दुष्कर्मों के करते रहने पर भी दण्ड से बचे रहने की व्यवस्था कर देगा ।। ऐसा सोचना नितान्त भूल है ।। उपासना का उद्देश्य इस प्रकार ईश्वर से अनुचित पक्षपात कराना नहीं होना चाहिए, वरन् यह होना चाहिए कि वह हमें अपनी प्रसन्नता के प्रमाणस्वरूप सद्भावनाओं से ओत- प्रोत रहने सत्प्रवृत्तियों में संलग्न रहने की प्रेरणा, क्षमता एवं हिम्मत प्रदान करे ।। भय एवं प्रलोभन के अवसर आने पर भी सत्पथ से विचलित न होने की दृढ़ता, यही ईश्वर की कृपा का सर्वश्रेष्ठ चिन्ह है ।। जिनकी उपासना ईश्वर से इतना बड़ा वरदान उपलब्ध कर सकने में समर्थ हो गई समझना चाहिए कि उसने सब कुछ प्राप्त कर लिया ।। इससे बढ़कर सुख- सौभाग्य एवं गर्व- गौरव की बात और कुछ भी नहीं हो सकती कि यह कर्तव्य पथ पर पूरी तत्परता, ईमानदारी और प्रसन्नता क साथ संलग्न रहे सके ।। मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को तुच्छ समझकर उनकी दर- गुजर करता रह सके ।। सच्ची उपासना, साधक का इसी गौरवपूर्ण स्थिति तक पहुँचाती है ।।
पापों से डर और पुण्य से प्रेम यही तो भगवद्- भक्त प्रधान चिन्ह है ।। कोई व्यक्ति आस्तिक है या नास्तिक, इसकी पहचान किसी के तिलक, जनेऊ, कण्ठी, माला, पूजा- पाठ, स्नान, दर्शन आदि के आधार पर नहीं वरन भावनात्मक एवं क्रियात्मक गतिविधियों को देखकर ही की जा सकती है ।।
आस्तिकता एक प्रकार का दिव्य नशा है, उसे जो पी रहा होगा, उसकी गतिविधियों में उत्कृष्टता का समावेश होना चाहिए ।। वह शराबी क्या जिसके पैर न लड़खड़ायें, आँखों में डोर न पड़ें और आवाज भर्राई न हो ।। मुँह से बदबू आती है कि नहीं यह देखकर किसी के शराब पिये हुए की जानकारी हो जाती है ।। ईश्वर भक्त या उपासना प्रेमी की प्रत्येक लोगों से भिन्न होती है ।। वह उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता की लोभ- मोह के फँसे हुए लोग उसका उपहास उड़ावें या मूर्ख बतावें ।। हर महापुरुष को संसारियों ने उनके समय में सताया और बेवकूफ बनाया है ।। ईसा, सुकरात, गाँधी, बुद्ध, कबीर, दयानन्द, मीरा, तुलसी, ज्ञानेश्वर, हरिशचन्द्र दधीचि आदि को क्या नहीं सहना पड़ा? उनकी महत्ता तो अडिग निष्ठा की परीक्षा हो जाने के बाद ही निखरी ।।