भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व

वर्ण व्यवस्था का स्वरूप

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समय और श्रम का सदुपयोग करके ही मनुष्य प्रगति की ओर बढ़ता है ।। यदि इन दोनों का क्रम अस्त- व्यस्त रहे तो फिर जीवन का कोई महत्त्वपूर्ण लाभ न उठाया जा सकेगा ।। जो अपना समय बर्बाद करते रहते हैं, जिन्हें अपनी आयुष्य का क्रम विभाजन करना नहीं आता, जिन्हें उपलब्ध क्षणों का सदव्यय का मार्ग नहीं सूझता वे यहाँ से खाली हाथों चले जाते हैं ।। मृत्यु के समय उन्हें प्रतीत होता है कि कितनी बड़ी मूर्खता उन्होंने इस सुअवसर की उपेक्षा करते हुए की है ।। श्रम करने की शरीर और मन में जो अद्भुत क्षमता है, उसी का सदुपयोग करने से विभिन्न दिशाओं में सिद्धियाँ तथा सफलताएँ प्राप्त होती है ।। श्री से जी चुराने वाले आलसी और समय का दुरुपयोग करने वाले प्रमादी एक प्रकार के आत्महत्यारे ही कहे जा सकते हैं ।।

समय और श्रम यह दो प्रत्यक्ष देवता है ।। हनुमान- अंगद की तरह नल- नील की तरह, राम- लक्ष्मण की तरह, सूर्य- चन्द्र की तरह, धरती- आकाश की तरह इनका जोड़ा है । इनका दोनों पहियों का ठीक तरह ताल- मेल बिठाकर ही मानव जीवन का प्रगति रथ आगे बढ़ता है रात और दिन की तरह इन्हीं के आधार पर सुख- शान्ति का सन्तुलन बना हुआ है ।। जिसने समय का मूल्य नहीं समझा, उसे ज्यों- त्यों गुजार दिया, जिसने श्रम में उत्साह नहीं दिखाया, काम चोर की तरह बेगार भुगतान की तरह मजबूरी में जितना अनिवार्य था उतने ही हाथ पैर हिलाये तो यही समझना चाहिए कि वह जीवित रहते हुए भी मृतक जैसा आचरण कर रहा है ।। समय का अपव्यय और श्रम में अनुत्साह की बुराई जिसमें मौजूद है उसे सौ शत्रुओं और हजार विघ्नों से बढ़कर प्रगति पथ के अवरोध का सामना करना पड़ेगा ।।

ऋषियों ने इस तथ्य को समझा था और उन्होंने एक सुव्यवस्थित योजना बनाकर मानव जाति को क्रमबद्ध अनुशासन में कसते हुए यह प्रयत्नात् किया था कि हर मनुष्य अपने समय और श्रम का पूरा- पूरा ध्यान रखें समुचित सावधानी तभी रह सकती है, जब उसका क्रम- विभाजन ठीक तरह हो सके ।। पूरे दिन यदि कोई मनुष्य एक ही काम करता रहे, न कार्य में भिन्नता हो न अवधि नियत हो, हर समय एक ही काम करते रहा जाये, कब तक कितना करना है, उसकी कोई सीमा निर्धारित न हो तो काम मनुष्य के लिए भार बन जायेगा, उसमें न आनंद रहेगा न उत्साह ।। अच्छा और रुचि का कार्य भी बोझिल हो जायेगा और करने वाला उससे घबराने लगेगा ।।

चार वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के नाम से विख्यात हैं और ब्रह्मचर्य गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास यह चार आश्रम कह जाते हैं ।। वर्णों की रचना किसी विशेष लक्ष्य को चुन कर उसी के माध्यम से आत्मिक प्रगति में एकनिष्ठ भाव होकर लग जाने के उद्देश्य से की गई है ।। यो जीवन का लक्ष्य तो आत्म कल्याण एवं पूर्णता की प्राप्ति ही है, पर उसका अभ्यास करने के लिए कोई लौकिक माध्यम भी तो अपनाना पड़ेगा ।। विद्या पढ़ने के लिए पुस्तकों की, बल प्राप्ति के लिए व्यायाम उपकरणों की, धन प्राप्त करने के लिए उद्योग की व्यवस्था करनी पड़ती है ।। बुद्धि, आरोग्य, समृद्धियों अदृश्य एवं सूक्ष्म शक्तियाँ हैं, पर उनका वैभव तो किसी स्थूल माध्यम से ही प्रकट होता है ।। इसी प्रकार आत्म- कल्याण का सूक्ष्म उद्देश्य प्राप्त करने के लिए भी कोई भौतिक कार्यक्रम तो चाहिए ही इच्छा और कामना करते रहने से तो कोई लाभ मिल नहीं जाता ।। आत्म- कल्याण का उद्देश्य पूरा करने के लिए भी बाह्य जीवन में कोई रुचिकर उपयोगी एवं सूउद्देश्यपूर्ण कार्यक्रम निर्धारित करना ही पड़ता है ।। एक दिशा निर्धारित करके उस पर चलते रहने से ही पथिक को अपनी यात्रा का परिणाम प्राप्त करने का अवसर मिलता है ।। जो कभी इधर, कभी उधर भटकता रहेगा, कोई दिशा निर्धारित न करेगा उसे न तो किसी लक्ष्य की प्राप्ति होगी और न वह किसी कार्य में विशेषज्ञता प्राप्त कर अपनी प्रतिज्ञा ही चमका सकेगा ।।

संसार में चार ही प्रमुख शक्तियाँ हैं १.ज्ञान, २.बल, ३.धन, ४.श्रम, इन्हीं चारों खम्भों पर प्रगति का मंच खड़ा किया गया है ।। मनुष्य ने अब तक जो उन्नति की है, उसका सारा श्रेय इन चार विभूतियों को ही है ।। यदि यह न हों तो जन्मजात रूप से जैसा भी कुछ मानव प्राणी उत्पन्न होता है उसे सबसे पिछड़ा ही माना जा सकता है ।। एक- एक वर्ण इनमें से एक- एक शक्ति की विशेष आराधना करने उसमें विशेषता प्राप्त करने का लक्ष्य बनाता है और उस मार्ग पर निरन्तर चलते हुए अपने तथा दूसरों के लिए सुख- शांति का लक्ष्य प्रशस्त करता है ।।

(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं. ४.१५)

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