आयुष्य का समय विभाजन करने की दृष्टि से आश्रम धर्म की परम्परा का निर्माण किया गया है ।। जिन्दगी को चार हिस्सों में बाँटा जा सकता है- बालकपन, जवानी, ढलती आयु और वृद्धावस्था ।। इन चारों की अपनी- अपनी अलग स्थिति है, उनकी विशेषताओं तथा परिस्थितियों का ध्यान रखकर उपयुक्त कार्यक्रम बने तभी से जीवन का सुसंतुलित विकास हो सकेगा ।। प्रतिदिन हमें इसी प्रकार का क्रम विभाजन करना पड़ता है ।। सबेरा होते ही शौच, स्नान, व्यायाम, जलपान, का क्रम रहता है ।। धूप फैलते ही काम पर जुट जाना पड़ता है ।। मध्याह्न को भोजन, विश्राम, सायंकाल काम को समेटना, दिन छिपने पर नित्यकर्म, रात को सोना यह एक स्वाभाविक क्रम है ।। उसे बिगाड़ कर उल्टा- सीधा सोना, सायंकाल शौच, स्नान, रात को काम करना इस प्रकार का उल्टा ढर्रा बन जाये तो विशेष परिस्थितियों की बात छोड़िये- साधारणतया इस अस्वाभाविक क्रम को अनुपयुक्त ही माना जायेगा और उसका स्वास्थ्य तथा कार्य की सफलता पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा ।।
बालकपन, यौवन, ढलती आयु और वृद्धावस्था को भी एक जीवन दिन मानकर उसका यथोचित क्रम विभाजन ही श्रेयस्कर हो सकता है ।। न्यूनतम बीस वर्ष की आयु तक स्वास्थ्य और बुद्धि के विकास के लिए- शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए ब्रह्मचर्य, खेलकूद व्यायाम, अध्ययन एवं भावी जीवन में आने वाली समस्याओं को समझने तथा उन्हें हल करने की विधि का सांगोपांग प्रशिक्षण प्राप्त करना चाहिए ।। यह आयु इसी क्रम में लगनी चाहिए ।। दस- बारह वर्ष तक की आयु तो माता- पिता के सान्निध्य में ही बितानी चाहिए पर इसके बाद किशोर अवस्था को उच्च चरित्र एवं विवेकशील जीवन कला विशेषज्ञों की देख−रेख में अत्यन्त सावधानी के साथ बनाई हुई क्रम विधि के अनुसार व्यतीत की जानी चाहिए ।।
किशोर अवस्था जीवन की सबसे संवेदनशील एवं महत्त्वपूर्ण स्थिति है ।। मनुष्य का बनना बिगड़ना इसी में होता है ।। नया खून, नया उत्साह, नयी आशा एवं नया अनुभव पाने के लिए मचलता रहता है ।। जोश बहुत और होश कम रहने के कारण बच्चे इसी आयु में दिग्भ्रान्त होते कुमार्गगामी बनते हैं ।। इसलिए इसे जीवन का सबसे खतरनाक समय माना गया है ।। निर्माण के लिए उपयुक्त संस्कार प्रायः इसी आयु में अंकुरित होते हैं, इसलिए किशोर अवस्था का समय सुसंस्कारी सान्निध्य, प्रशिक्षण एवं नियन्त्रण में व्यतीत किया जाना चाहिए ।। जहाँ इस प्रकार की व्यवस्था बन गई ।। वहाँ बच्चे के भविष्य को उज्ज्वल बनो का सुदृढ़ शिलान्यास हो गया, यही मानना चाहिए ।। प्राचीन काल जैसी गुरुकुल पद्धति अब नहीं हैं फिर भी हमें उस आवश्यकता की प्राप्ति के लिए दूसरे उपाय सोचने चाहिए ।। ब्रह्मचर्य का मतलब केवल कामेन्द्रिय संयम ही नहीं, वरन् उसका वास्तविक तात्पर्य जीवन का सर्वांगीण विकास ब्रह्म का, सद्ज्ञान का सहचर्य, सान्निध्य ही है ।। ब्रह्मचारी अर्थात् आदर्शवादी परम्पराओं के आचरण का अभ्यास करने वाला बालकपन, जन्म से लेकर बीस पच्चीस वर्ष तक का आयुष्य भावी जीवन के विधिवत् जीने का कला सीखने की इस तैयारी में ही लगाया जाना चाहिए ।।
(भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व पृ.सं.४.२९- ३०)