गायत्री की २४ शक्ति धाराएँ

अजपा

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'र्गो' देवीमजपामेवं देवतां मरुतं तथा ।।
बीजं 'यं' तमृषिं चास्य कथयन्ति पतञ्जलिम् ॥
यन्त्रं निरञ्जनां भूती सहजां च निरञ्जनाम् ।।
शान्तिं प्रतिफलं चास्य भयनाशं च सवर्तः॥

अर्थात्- 'र्गो' अक्षर की देवी- 'अजपा', देवता- 'मरुत्', बीज- 'यं', ऋषि- 'पतञ्जलि', यन्त्र- 'निरंजनायन्त्रम्', विभूति- 'निरंजना एवं सहजा', स्फूर्ति 'शांति एवं भयनाश' हैं ।।

गायत्री साधना की एक ऐसी स्थिति है, जिसमें आत्मा का परमात्मा के साथ आदान- प्रदान का सिलसिला स्वयमेव चल पड़ता है और इस दिव्य मिलन के फलस्वरूप मिलने वाली उपलब्धियों का लाभ मिलने लगता है ।। उस स्थिति को अजपा कहते हैं ।।

'अजपा' गायत्री का साधनात्मक स्वरूप 'सोऽहम् साधना' इसे 'हंस- योग' भी कहते हैं ।। गायत्री का वाहन हंस है ।। यह हंस 'सोऽहम्' साधना के माध्यम से साधा जाने वाला हंस योग ही है ।। गायत्री शब्द का अर्थ है- प्राण का त्राण करने वाली ।। 'गय' प्राण को और 'त्री' त्राण करने वाले को कहते हैं ।। प्राण तत्त्व का विशिष्ट अवतरण प्राणायाम के माध्यम से होता है ।। गायत्री- साधना में २४ प्राणायामों का विधान है ।। इन सबमें 'सोऽहम्' साधना को प्रधानता मिली है ।। यह अत्यन्त उच्चस्तरीय स्वसंचालित प्राणायाम ही है ।। सामान्य प्राणायामों में इच्छा शक्ति, विचार शक्ति एवं शारीरिक गतिविधियों का उपयोग होता है ।। सोऽहम् साधना में यह सारा काम आत्मा स्वयं कर लेती है ।। शरीर और मन के सहयोग की उसे आवश्यकता नहीं पड़ती ।।

श्वाँस जब शरीर में प्रवेश करता है तब 'सो' की सूक्ष्म ध्वनि होती है ।। जब श्वाँस बाहर निकलता है तो 'हम' की शब्दानुभूति होती है ।। ये ध्वनियाँ बहुत ही सूक्ष्म हैं ।। स्थूल कर्णेंन्द्रियाँ उन्हें नहीं सुन सकती ।। शब्द की तन्मात्रा तक पहुँचने वाली ध्यान- धारणा में ही उसकी अनुभूति होती है ।। शान्त चित्त से एकाग्रता पूर्वक श्वाँस के भीतर जाते समय 'सो' को और बाहर निकलते 'हम' के शब्द प्रवाह को धारण करने पर कुछ समय बाद यह दिव्य ध्वनि अनायास ही अनुभव में आने लगती है ।। कृष्ण के वेणुनाद सुनने से जैसा आनन्द गोपियों को मिलता था, वैसी ही दिव्य अनुभूति इन्द्रियों को, उपत्यिकाओं को, इस 'सोऽहम्' ध्वनि प्रवाह को सुनने से होती है ।।

शब्द ब्रह्म- नाद ब्रह्म का उल्लेख शास्त्रों में होता है ।। मोटी विवेचना में सत्संग- प्रवचन को 'शब्द' और भक्ति भरे भाव संगीत को 'नाद' ब्रह्म कहते हैं ।। पर दिव्य भूमिका में ये दोनों ही शब्द 'सोऽहम्' साधना के लिए प्रयुक्त होते हैं ।। तपस्वी इसी को 'अनाहत ध्वनि' कहते हैं ।।

गायत्री का मूल उद्गम 'ॐकार' है ।। उसी का विस्तार गायत्री के २४ अक्षरों में हुआ है ।। इसी प्रकार नाद ब्रह्म का बीज 'सोऽहम्' है, उसी का विस्तार 'नादयोग' के साधनों में सूक्ष्म कर्णेन्द्रिय द्वारा घण्टा- घड़ियाल, मेघगर्जन, वंशी, मृदंग, कलरव आदि की अनेकानेक ध्वनियों में अनुभव होता है ।। यह दिव्य ध्वनियाँ प्रकृति के सूक्ष्म अन्तराल से उठती हैं और उनके सुनने की क्षमता उत्पन्न हो जाने पर, उनके पीछे छिपे वे रहस्य प्रकट होने लगते हैं, जो विश्व की अविज्ञात गतिविधियों की जानकारी देकर साधक को सूक्ष्मदर्शी बना देती हैं ।।

सामान्य साधनायें शरीर और मन की सहायता से प्रयत्न पूर्वक करनी पड़ती हैं ।। पर 'अजपा- गायत्री' का आत्मा के साथ सीधा सम्बन्ध जुड़ जाने से साधना क्रम स्वसंचालित हो जाता है और अपनी धुरी पर स्वयमेव घूमने लगता है ।। अजपा साधना भी है और शक्ति भी ।। सोऽहम् के ध्यान, अभ्यास को साधना कहते हैं ।। उसका आत्मा के साथ सीधा सम्बन्ध जुड़ जाने और गति चक्र के स्वयमेव घूमने लगने की स्थिति में वही एक शक्ति बन जाती है ।। इस शक्ति के सहारे साधक आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान प्राप्त करता है ।। उसका उपयोग आत्म कल्याण और विश्व कल्याण के लिए महत्त्वपूर्ण क्षमताएँ सम्पादित करने में भी होता है ।।

अजपा में सन्निहित हंसयोग को ध्यान में रखते हुये गायत्री का वाहन हंस बताया गया है ।। जो इसे साधता है, उसका अन्तरंग नीर- क्षीर विवेक की क्षमता सम्पन्न दिव्यदर्शी बनता है ।। उसका बहिरंग मोती चुगने तथा कीड़े न खाने जैसा आदर्शवादी हो जाता है ।। ऐसे ही चिन्तन में उत्कृष्टता और कर्तृत्व में आदर्शवादिता अपनाने वाले को राजहंस कहते हैं ।। ऊँचा उठने पर वे ही परमहंस बन जाते हैं ।। इस उच्चस्तरीय भूमिका तक पहुँचने में गायत्री की अजपा शक्ति का अनुग्रह असाधारण रहता है ।।
अजपा के स्वरूप, वाहन आदि का संक्षिप्त विवरण निम्न हैं ।।

अजपा के एक मुख है ।। अर्धनिमीलित नेत्र- अन्तर्दृष्टि के प्रतीक हैं ।। चार हाथों में दो ध्यान मुद्रा में- अन्तःकरण की गहराइयों में जाने का, माला -सतत ईश स्मरण का तथा कमल निरभिमान- निर्मल भाव का प्रतीक है ।।

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