गायत्री की २४ शक्ति धाराएँ

देव माता

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'रे' वर्णस्य च देवी तु देवमाताऽथ देवता ।।
इन्द्रो बीजं च 'लृं' अस्य भृगुः स ऋषिरुत्तमः॥
यन्त्रं देवेशयन्त्रं च देवयानी तथैव च ।।
दिव्या भूती फलं सन्ति देवत्वं सच्चरित्रता॥

अर्थात - 'रे' अक्षर की देवी- 'देवमाता', देवता- 'इन्द्र', बीज- 'लृं', ऋषि- 'भृगु', यन्त्र, विभूति- 'दिव्या एवं देवयानी' तथा प्रतिफल- 'देवत्व व सच्चरित्रता' हैं ।।

गायत्री का एक नाम 'देवमाता '' भी है ।। देव माता इसलिए कि उसकी गोद में बैठने वाला- पयपान करने वाला- आँचल पकड़ने वाला अपने में देवत्व बढ़ाता है और आत्मोत्सर्ग के क्षेत्र में क्रमिक विकास करते हुए इसी धरती पर विचरण करने वाले देव- मानवों की पंक्ति में जा खड़ा होता है ।।

गायत्री मन्त्र के २४ अक्षरों में जो शिक्षायें भरी पड़ी हैं वे सभी ऐसी हैं कि उनका चिन्तन मनन करने वाले की चेतना में अभिनव जागृति उत्पन्न होती है और अन्तःकरण यह स्वीकार करता है कि मानव जीवन की सार्थकता एवं सफलता देवत्व की सतवृत्तियाँ अपनाने में है ।। अज्ञानान्धकार में भटकने वाले मोह- ममता की सड़ी कीचड़ में फंसे रहते हैं और रोते- कलपते जिन्दगी के दिन पूरा करते हैं ।। किन्तु गायत्री का आलोक अन्तराल में पहुँचते ही व्यक्ति सुषुप्ति से विरत होकर जागृति में प्रवेश करता है ।। स्वार्थ को संयत करके परमार्थ प्रयोजनों में रस लेना और उस दिशा में बढ़ चलने के लिए साहस जुटाना, यही है मनुष्य शरीर में देवत्व का अवतरण, दैवी सम्पदा से जितनी मात्रा में सुसम्पन्न बनता है, यह उसी अनुपात से इसी जीवन में स्वर्गीय सुख- शान्ति का अनुभव करता है ।। उसके व्यक्तित्व का स्तर समुन्नत भी रहता है और सुसंस्कृत भी ।। देवात्मा शब्द से ऐसे ही लोगों को सम्मानित किया जाता है ।। और से स्वयं ऊँचे उठते, आगे बढ़ते हैं और अपने साथ- साथ अनेकों को उठाते आगे बढ़ाते हैं ।। चन्दन वृक्ष की तरह उनके अस्तित्व से, सारा वातावरण महकता है और सम्पर्क में आने वाले अन्य झाड़- झंखाड़ों को भी सुगन्धित होने का सौभाग्य मिलता है ।।

गायत्री उपासना का प्रधान प्रतिफल देवत्व का सम्वर्धन है ।। साधक का अन्तरंग और बहिरंग देवोपम बनता चला जाता है ।। एक- एक करके दुष्प्रवृत्तियाँ छूटती हैं और प्रगति हर कदम पर सत्प्रवृत्तियों की उपलब्धि होती है ।। गुण- कर्म -स्वभाव में गहराई तक घुसे हुए कषाय- कल्मष एक- एक करके स्वयं पतझड़ के पत्तों की तरह गिरते- झड़ते चले जाते हैं ।। उनके स्थान पर बसन्त के अभिनव पत्र पल्लवों की तरह मानवोचित श्रेष्ठता बढ़ती चली जाती है ।।

देवता देने वाले को कहते हैं ।। गायत्री उपासना सच्चे अर्थो में की जा सके तो देवत्व की मात्रा बढ़ेगी ही ।। देवता के दो गुण हैं- व्यक्तित्व की दृष्टि से उत्कृष्ट और आचरण की दृष्टि से आदर्श ।। ऐसे लोग हर घड़ी अपने प्रत्यक्ष और परोक्ष अनुदानों से सतयुगी वातावरण उत्पन्न करते चले जाते है ।।

देवता सदा युवा रहते हैं ।। मानसिक बुढ़ापा उन्हें कभी नहीं आता ।। प्रसन्नता उनके चेहरे पर छाई रहती है ।। सन्तोष की नींद सोते है, आशा भरी उमंग में तैरते हैं ।। किन्हीं भी परिस्थितियों में उन्हें खिन्न, उद्विग्न, निराश एवं असंतुलित नहीं देखा जाता ।। यह विशेषताएँ जिनमें हों उन्हें देव- मानव कहा जा सकता है ।। देवता स्वर्ग में रहते हैं ।। चिन्तन की उत्कृष्टता, विधेयात्मक चिन्तन में उत्साह, आनन्द और सन्तोष के तीनों ही तत्त्व घुले हुए हैं ।। देवता आप्त काम होते हैं ।। कल्प वृक्ष उनकी सभी कामनाओं को पूरा करता है ।। यह स्थिति उन सभी को प्राप्त हो सकती है जो निर्वाह के लिए जीवन- यापन की न्यूनतम आवश्यकता पूरी हो जाना भर पर्याप्त मानते हैं और अपनी महत्त्वाकाँक्षाएँ सदुद्देश्यों में नियोजित रखते हैं ।। वासना, तृष्णा और अहंता ही अतृप्त रहते हैं ।। सद्भावनाओं को चरितार्थ करने में तो हर क्षण अवसर ही अवसर है ।। देवत्व मनःस्थिति में उतरता है ।। फलतः परिस्थितियों को स्वर्गीय सन्तोषजनक बनने में देर नहीं लगती ।। देव माता गायत्री साधक को इसी उच्च भूमिका में घसीट ले जाती है ।।

देवमाता के स्वरूप का संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस प्रकार से है-
देवमाता के एक मुख, दो हाथ- सहज मातृभाव युक्त छवि ।। गोद में बालक से देवत्व के विकास का, आशिर्वाद मुद्रा से सभी को अनुदान देने की उदारता का बोध है ।। आसन व्यवस्था पीठ- व्यवस्था की क्षमता की प्रतीक है ।।

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