गायत्री की दिव्य शक्तियाँ

गायत्री की दिव्य सिद्धियाँ

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महात्मा शुभानन्द जी एक अच्छे बंगाली महात्मा थे ।। उनका स्वर्गवास 65 वर्ष की उम्र में हुआ था ।। उन्हें अंग्रेजी, संस्कृत और बंगाली भाषाओं का उत्तम ज्ञान था ।। वेदों का भली- भाँति अध्ययन उन्होंने किया था ।।
वे जब वर्धमान में आते तो उनके दर्शन के लिए लोगों की बड़ी भीड़ एकत्र होती ।। शिक्षित वर्ग में भी उनका बहुत मान- सम्मान था ।।

उनकी चेष्टाओं से कभी- कभी विक्षिप्तता का सा आभास होता ।। बैठे- बैठे कभी सहसा चौंक उठते कभी ऐसे देखने लगते मानों कोई उनकी कुछ चीज उठाकर भागा है और वे उसे खोज रहे हों ।। कभी विकल हो उठते जैसे कोई संकट उन पर टूटने वाला हो, उनकी मुखाकृति से व्यग्रता- व्याकुलता स्पष्ट टपकती ।।
सामान्य स्थिति में, उनसे ज्ञान वैराग्य के अध्ययनपूर्ण एवं अनुभवपूर्ण प्रवचन को लोग सुनते और आनन्दित होते, पर जब उन्हें पागलपन का दौरा आता तो देखने वालों को आश्चर्य भी होता, दुःख भी ।। कुछ लोगों ने उनसे शांत स्थिति में पूछा कि स्वामी जी ! आपके इस कष्ट का कारण क्या है? तब उन्होंने बतलाया कि- मैं विद्याध्ययन के उपरांत आर्य समाज का उपदेशक बन गया ।। बहुत स्थानों पर घूमता रहा, एक जगह एक महात्मा से भेंट हुई ।। उनमें बहुत- सी आध्यात्मिक विशेषतायें देखकर मैं उनके साथ रहने लगा ।।

उनका मुझ पर बहुत पड़ा ।। मैंने उन्हें गुरु मान लिया, उनसे शिक्षण प्राप्त किया और उपदेशक का कार्य छोड़कर फिर उन्हीं के बताये विधि- विधान के अनुसार एक निर्जन स्थान में रहकर गायत्री पुरश्चरण करने लगा ।।
गुरुजी ने योग और तन्त्र के निश्चित विधान से गायत्री पुरश्चरण करने का कहा ।। यह तीन वर्ष में पूरा होना था, ढाई वर्ष तो सहज की बीत गये, अन्तिम 6 माहों में नित्य विलक्षण दृश्य दिखाई देने लगे ।। लोभप्रद और भयद्योतक अनेक प्रसंग आने लगे ।। मुझे बता दिया था कि साधना के अन्त में परीक्षा होती है और विभिन्न प्रकार के लोभ, आकर्षण, भय एवं उपद्रव सामने आते रहते हैं अतः मैं ऐसे प्रसंगों को धैर्यपूर्वक टालता रहा, ताकि अपनी तपस्या ठीक से पूर्ण कर सकूँ ।।

परन्तु एक दिन नई घटना घटी ।। रात्रि लगभग 11 बजे थे ।। मैं कुटी के भीतर बैठा साधना कर रहा था, तभी द्वार पर एक स्त्री बार- बार दिखने लगी, जो टहल रही थी ।। मैं झोपड़ी से बाहर निकला ।। चाँदनी रात थी ।। उसके प्रकाश में मैंने देखा सामने 18- 20 वर्ष की अति सुन्दर युवती ।। मैंने पूछा- तुम कौन हो और किस लिए आई हो? तब उसने बताया कि वह पड़ोस के गाँव में रहती है, अपने भाई के पास जा रही थी तभी रास्ता भूल गई ।। जंगल में डर लगता है, झोपड़ी देखकर यहाँ आ गई हूँ, रात भर के लिए आश्रय चाहती हूँ ।।

मेरी कुटी बीच जंगल में थी ।। जंगली जानवरों का भी डर था और चोरों का भी ।। अतः मैंने उसे आश्रय दे देना उचित समझा
वह युवती भीतर आकर लेट गई ।। कुटी छोटी ही थी ।। मेरे आसन के पास ही वह थी ।मैं जप कर रहा था, पर दृष्टि बार- बार उसके सुन्दर शरीर पर चली जाती थी ।। वह मेरी ओर तिरछी नजर से देखती, मन्द मन्द मुस्करा रही थी ।। मेरे भीतर वासना उठी और उस आवेश को मे न रोक पाया किन्तु उसने लात लगा दी ।। इससे मैं चक्कर खाकर गिर पड़ा, वह तूफान की तरह झोपड़ी- तोड़ती जाने कहाँ चली गयी ।।

सारी रात मैं बेहोश पड़ा गया, सुबह होश आने पर देखा- मैं ज्वरग्रस्त था और पीठ का भाग बुरी तरह छिल गया था मेरे दो दाँत टूट गये थे और मुँह से खून बह रहा था ।।
गुरुजी को यह समाचार मिल गया, वे आये और मुझे उठाकर ले गये ।। उपचार किया, एक माह में मैं ठीक हो गया ।। प्राण तो बच गये परन्तु मस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा, वह असंतुलित- सा बना रहा और उसी कारण मैं रह- रहकर चौंक पड़ता हूँ ।। मुझे खतरा बना रहता है, तभी से मैं सबको यही बताया हूँ कि सामान्य जन के लिए गायत्री की वेदोक्त दक्षिणमार्ग साधना ही उपयोगी है ।। तन्त्र विधि से उपासना में लाभ और चमत्कार तो बहुत मिलते हैं, पर यह पथ कंटकाकीर्ण हैं ।।

उसकी भयंकरता से तो साहसी ही अविचलित रह सकते हैं ।। साधना क्रम के समय के भयंकर दृश्यों से बचना अपेक्षाकृत कुछ अधिक आसान है, परन्तु प्रलोभन- आकर्षणों से बच पाना अत्यन्त कठिन है ।। फिर थोड़े सी भूल होने पर इस पथ के पथिक को प्राण खोने पड़ सकते हैं ।। इसलिए तन्त्र की अपेक्षा योग मार्ग सरल एवं उत्तम है, इसमें भले ही धीरे- धीरे उन्नति होती है, पर जितनी भी प्रगति होती है, वह अधिक स्थायी होती है और इस मार्ग में डर तथा हानि नहीं है, लाभ ही लाभ है ।।


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