नारायण तीर्थ नामक स्थान में महर्षि विदग्ध शाकल्य का आश्रम था। वहाँ वे अपने एक हजार शिष्यों सहित निवास करते थे। महर्षि के एक शिष्य याज्ञवल्क्य भी उन दिनों उन्हीं के पास थे। महर्षि ने उन्हें ऋग्वेद में पारंगत कर दिया था।
एक दिन आवर्त देश के नरेश सुप्रिया उनके आश्रम पर पहुँचे और वहाँ की सुख- शांति देखकर कुछ दिन वहाँ रहकर ऋषि- मुनियों का सत्संग करने की उन्हें इच्छा हुई। महर्षि ने उनके निवास के लिये अपनी आश्रम- भूमि में ही व्यवस्था कर दी और एक विद्यार्थी को यह कार्य सौंपा कि वह नित्य प्रति राजा सुप्रिया का अभिषेक कर उन्हें सुखी रहने का आशीर्वाद दिया करे।
नित्य की भाँति आज भी याज्ञवल्क्य राजा को शुभाशीष देने के लिये गये, परन्तु राजा को नित्य कर्म से निवृत्त होने में देर हो गई। उन्होंने नम्रता से ऋषिप्रवर ! आप कुछ देर रुकें। याज्ञवल्क्य ने सोचा कि आश्रम- जीवन में आलस्य नहीं करना चाहिए। उन्होंने राजा से भी ऐसा कहा कि- 'राजन् ! यह आश्रम- जीवन है। इसमें एक- एक क्षण बहुमूल्य है।
राजा पर इसका उल्टा प्रभाव पड़ा। उसने सोचा कि यह विद्यार्थी अभिमानी है। वह बोला 'ऋषि कुमार ! 'यदि तुम रुकना चाहते तो सामने पड़े लक्कड़ पर जल डालकर चले जाओ'
याज्ञवल्क्य ने ऐसा ही किया। सूखे लक्कड़ पर पानी डालकर चले गये। सायंकाल राजा की दृष्टि उस पर पड़ी। लक्कड़ हरा हो गया और उसमें नवीन पत्तियाँ तथा फल- फूल लग गये। यह देख राजा अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने सोचा- मैंने यह स्वर्ण अवसर गवाँ दिया। जिस जल ने इस शुष्क काष्ठ को हरा- भरा कर दिया यदि मुझ पर पड़ता तो क्या मुझे भी सब प्रकार सुखी न कर देता।
राजा के मन की अशांति बहुत बढ़ गई। वे स्वयं महर्षि की सेवा में उपस्थित हुए। विदग्ध शाकल्य ने ने राजा को सादर आसन दिया और अभिप्राय जानकर याज्ञवल्क्य को समीप बुलाकर बोले -'वत्स ! राजा हमारे अतिथि हैं, इनका इच्छित करना हमारा कर्तव्य है। अत: जिस कार्य से इनका हित हो, वही करो।
याज्ञवल्क्य ने नम्रता से कहा- गुरुदेव ! यह तपोभूमि है, यहाँ प्रमादी पुरुष का कल्याण सम्भव नहीं है। राजा के प्रमाद का इन आश्रमवासियों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ेगा।
राजा ने याज्ञवल्क्य से क्षमा- याचना की, तब विदग्ध शाकल्य बोले- 'वत्स याज्ञवल्क्य ! क्षमा माँगने वाले पर क्रोध कैसा? अत: राजा पर प्रसन्न होकर इनकी कामना पूर्ण करो !'
याज्ञवल्क्य बोले- 'गुरुदेव ! राजा मेरे सामने नहीं मेरे चमत्कार के सामने झुका है। मैं इनके हित में कुछ कर सकूँ यह सम्भव नहीं है।
विदग्ध शाकल्य क्रोधित हो उठे, उन्होंने कर्कश स्वर में कहा- 'अरे मूर्ख ! मिथ्याभिमानवश हमारा अपमान कर रहा है। ऐसे प्रमादी शिष्य का इस आश्रम में कोई काम नहीं है। अत: तू मुझसे प्राप्त वेद विद्या को मुझे लौटा कर यहाँ से चला जा।
याज्ञवल्क्य ने सोचा- 'जो गुरुजन अभिमान के वशीभूत होकर अनुचित आज्ञा दें, उनसे विलग हो जाना ही उचित है।
विदग्ध शाकल्य से प्राप्त ऋग्वेद विद्या को लौटाकर याज्ञवल्क्य वहाँ से चल दिये। भ्रमण करते हुए कई मास व्यतीत हो गये। एक दिन वे प्रभास तीर्थ के निकट पहुँचे, वहाँ उनके नाना महर्षि वैशम्पायन निवास करते थे। महर्षि से याज्ञवल्क्य ने अपना सब वृत्तान्त कहा और उनकी आज्ञा पाकर उन्हीं के पास रहने लगे।
वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य को यजुर्वेद की शिक्षा दी। अल्पकाल में ही वे यजुर्वेद के पूर्ण ज्ञाता हो गये। उनकी दिव्य प्रतिभा से वैशम्पायन अत्यन्त प्रसन्न हुए और वे शीघ्र ही आश्रम के कुलगुरु घोषित कर दिये गये।
इसके पश्चात् एक दिन सुमेरु पर्वत पर महर्षियों की एक वृहद सभा हुई। उसकी सूचना सात दिवस पूर्व प्रसारित की गई और उसमें सम्मिलित न होने वाले को ब्रह्म- हत्या लगने वाली बात कही गई। यह जानकर महर्षि वैशम्पायन ने वहाँ जाने का विचार किया, परन्तु चलने की शीघ्रता में किसी प्रकार उनका पाँव एक शिशु पर पड़ गया और उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार बाल हत्या तो लगी ही, साथ ही सभा में जाना स्थगित करने के कारण ब्रह्म- हत्या का पाप और लग गया।
वृद्धावस्था और कृश शरीर के कारण प्रायश्चित कि महर्षि में शक्ति न रही। अत: उन्होंने याज्ञवल्क्य से कहा कि किसी विद्यार्थी से इसका प्रायश्चित कराओ।
याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया- 'भगवान ! इन विद्यार्थियों की शक्ति सीमित है, यदि मुझे प्रायश्चित करने की आज्ञा दें तो मैं इस कार्य को भली प्रकार पूर्ण कर सकूँगा'
महर्षि ने समझा याज्ञवल्क्य को बड़ा अभिमान हो गया है, यह अन्य शिष्यों को अत्यन्त निस्तेज समझता है। अत: वे बोले- 'याज्ञवल्क्य ! तू इन विद्यार्थियों को इतना हीन समझता है कि इनका अपमान करने में नहीं चूका। अत: मुझे तेरे जैसे अभिमानी शिष्य का त्याग करना ही उचित लगता है। तू मेरी दी हुई वेद- विद्या को लौटाकर चाहे जहाँ चला जा।'
याज्ञवल्क्य को इससे बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने कहा कि 'प्रभो ! मेरे मन में आपके प्रति अत्यन्त भक्ति- भाव था, उसी के वशीभूत होकर मैंने ऐसा कहा है। इन विद्यार्थियों का निरादर करने का मेरा किंचित् अभिप्राय न था ।'
परन्तु वैशम्पायन का क्रोध शांत न हुआ । याज्ञवल्क्य ने उनसे प्राप्त हुआ यजुर्ज्ञान लौटा दिया और भारी हृदय से आश्रम त्यागकर चल दिये।
भ्रमण करते हुए याज्ञवल्क्य विश्वामित्र तीर्थ में पहुँचे। वहाँ उनके पिता देवरात तप करते थे। पुत्र को आया देखकर वे प्रसन्न हुए। उन्होंने याज्ञवल्क्य की दुःख- कथा सुनकर उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- 'पुत्र ! हमारे वंश से अब तक कोई भी निराश नहीं हुआ, क्योंकि हमारे कुल- गोत्र के आदि प्रवर महर्षि विश्वामित्र हैं। उन्होंने गायत्री साधना द्वारा महान् ब्रह्मवर्चस् को प्राप्त किया है। उसी गायत्री मन्त्र के द्वारा तुम्हारे मन का पूर्ण विषाद और निराशा शीघ्र ही दूर हो जायगी।
याज्ञवल्क्य ने पूछा- 'पिताजी ! महर्षि विश्वामित्र क्षत्रिय हैं, यह हमारे कुल के आदि प्रवर किस प्रकार हुए ?'
देवरात ने उत्तर दिया- 'महर्षि अंगिरा के वंश में अर्जित नामक एक पुरुष हुए। उनके तीन पुत्र थे। शुन: पुच्छ, शुन: शेप और शुनोलांगुल। राजा रोहिताश्व ने शुन: शेप को यज्ञ पशु के रूप में क्रय किया, उसे जाते समय मार्ग में विश्वामित्र का आश्रम मिला तब शुन: शेप ने उनसे प्राण रक्षा की प्रार्थना की। महर्षि ने राजा रोहिताश्व से उसे मुक्त कराया और अपने दत्तक पुत्र के समान रखा। वह शुन: शेप ही मेरे पिता थे, मैंने भी गायत्री मन्त्र द्वारा भगवान सविता देव को प्रसन्न कर उन्हीं के समान तेजस्वी पुत्र की याचना की थी। तुम भी उन्हीं सविता देव की उपासना करो, वही तुम्हारा कल्याण करेंगे।
पिता की आज्ञा पाकर याज्ञवल्क्य ने गायत्री साधना आरम्भ की तब सविता देव प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर वर माँगने को कहा। याज्ञवल्क्य ने उन्हें बारम्बार प्रणाम किया और बोले- प्रभो ! आप अन्तर्यामी हैं, मेरी कामना आप से छिपी हुई नहीं है। मैं समस्त वेद−शास्त्रों के ज्ञान की याचना करता हूँ, यही मुझे प्रदान करो।
इच्छित वर देकर सविता देव अन्तर्ध्यान हो गये। उसी समय से याज्ञवल्क्य के हृदय में सूर्य के समान ही अलौकिक ज्ञान ज्योति प्रकट हुई और वे सम्पूर्ण वेद−शास्त्रों के ज्ञाता हो गये।