गायत्री ही कामधेनु है

गायत्री उपासना के सुनिश्चित परिणाम

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आत्म- कल्याण को अपना जीवन लक्ष्य निश्चित करने वाले साधक विभिन्न प्रकार की साधनाओं को अवलम्ब लेकर अभीष्ट दिशा में अग्रसर होते हैं ।। इसके लिए साधना पथ के पथ प्रदर्शक गुरु के निर्देशानुसार अनेक प्रकार के ध्यान, जप, योगाभ्यास, व्रत, संयम आदि किये जाते हैं और अनेकानेक विध विधानों का सहारा लिया जाता है ।। इन सभी में साधारणतः भिन्नता एवं अनेकता पाई जाती है, पर मूलतः उनमें कोई भेद नहीं है सभी साधनायें यों दिखाई भले ही भिन्न- भिन्न दें, परन्तु इन सभी का उद्भव गायत्री से ही हुआ है ।। बताया जाता है कि गायत्री से 84 प्रकार के योगों का उद्भव हुआ है ।। देशकाल पात्र की भिन्नता के लिए भिन्न- भिन्न मनोभूमि के साधकों को लिए अलग- अलग प्रकार के साधना विधानों की आवश्यकता पड़ती है, पर मूल तो सबका एक ही है ।। जितना भी आत्म- ज्ञान एवं आध्यात्मिक साधना विधान है, इस सबका मूल आधार केवल गायत्री ही है ।।

इसीलिए प्रायः सभी भारतीय ऋषि मुनियों ने सब साधना, उपासना की मूल गायत्री का ही अवलम्बन लिया है, इतिहास पुराणों से भी पता चलता है कि तप का आरम्भ गायत्री से ही हुआ है विष्णु की नाभि से जो कमल -नलिका निकली, वह गायत्री ही थी सृष्टि- निर्माण से पूर्व ब्रह्माजी को आकाशवाणी द्वारा गायत्री का तप करके सृष्टि- निर्माण की शक्ति पाई ।। शंकर जी की योगमाया गायत्री ही है ।। वे इसी महासमाधि में लीन रहते हैं ।। इस महाशक्ति का जब तीन गुणों में से पदार्पण होता है तो उस पदार्पण से सतोगुणी सरस्वती, रजोगुणी लक्ष्मी और तमोगुणी काली का अवतरण होता है ।। सविता सूर्य की आत्मा गायत्री ही कही गई है ।। इसी प्रकार अन्यान्य देव शक्तियों को भी इसी महाशक्ति सागर की तरंगें कहा गया है ।।

प्राचीन युग में प्रायः सभी ऋषियों ने इसी महामंत्र के आधार पर अपनी योग- साधनाएँ एवं तपस्यायें की हैं ।। सप्त ऋषियों को प्रधानता गायत्री द्वारा मिली, बृहस्पति इसी शक्ति की दक्षिणमार्गी साधना करके देव गुरु बने, शुक्राचार्य ने इस महामंत्र का वाममार्ग अपनाया और वे असुरों के गुरु हुए ।। साधारण ऋषि, मुनि उन्नति करते हुए महर्षि एवं देवर्षि का पद प्राप्त करते थे तो इस उत्कर्ष का मूल आधार गायत्री ही रहती थी ।।

वशिष्ठ याज्ञवल्क्य, अत्रि, विश्वमित्र, पराशर, भारद्वाज, गौतम, व्यास, शुकदेव, नारद, दधीचि, वाल्मीकि, च्यवन, शंख, लोमश, तैत्तिरीय, जाबालि, शृंगी, उद्दालक, वात्स्यायन, दुर्वासा, परशुराम, पुलस्त्य, दत्तात्रेय, अगस्त्य, सनत्कुमार, कण्व, शौनक आदि ऋषियों के जीवन वृत्तांत जिन्होंने पढ़े हैं वे जानते है कि उनकी सहायक ,शक्तियों जिस आधार शिला पर अवस्थित थीं- वह गायत्री है ।। इन ऋषियों ने अपने ग्रंथों में गायत्री की मुक्त कण्ठ से एक स्वर में महिमा गाई है और बताया है कि आत्मा को परमात्मा बनाने वाली, नरक से स्वर्ग पहुँचाने वाली, तुच्छ को महान् बनाने वाली शक्ति गायत्री ही है।

गायत्री साधना का मार्ग सबके लिए अभी भी खुला है ।। इस साधना को अपनाकर हर कोई अपना कल्याण कर सकता है ।। उचित तो यही है कि सभी साधनाओं की मूल गायत्री उपासना को ही अपना इष्ट बनाया जाय, क्योंकि अन्य उपासनाओं के साथ गायत्री उपासना तो अनिवार्य रूप से करनी ही पड़ती है ।। शास्त्रों में कहा गया है कि गायत्री उपासना के बिना अन्य उपासनाएँ फलवती नहीं होती फिर क्यों न एक मात्र गायत्री का ही अवलम्बन लिया जाय ।।

गायत्री उपासना का प्रभाव सर्वप्रथम मनुष्य के मनःक्षेत्र पर पड़ता है ।। इससे कुविचार दूर होते हैं, दुष्कर्मों से घृणा उत्पन्न होती है, आत्म- निरीक्षण में अभिरुचि होती है तथा अपने भीतर जो- जो दोष दुर्गुण होते हैं उन्हें उपासक ढूँढ़- ढूँढ़ कर तलाश करता है, उनकी हानियों को समझता है और उन्हें त्यागने को तत्पर हो जाता है ।। इस प्रकार को अपना वर्तमान जीवन निष्पाप बनाने की प्रेरणा मिलती है ।। जैसे- जैसे यह पवित्रता बढ़ती है, उसी अनुपात में पूर्व जन्मों के दुष्कृत्य संस्कार भी घटने और नष्ट होने लगते हैं ।। इसीलिए गायत्री को पाप नाशिनी, मोक्षदायिनी और कल्याणकारी कहा गया है ।। यथा-

गायत्र्या परमं नास्ति देवि येन न पावनम् ।। हस्तत्राण प्रदा देवी यततां नरकार्णवे ॥ (शंखस्मृति अ.12/15)

नरक रूपी समुद्र में गिरते हुए को हाथ पकड़कर बचाने वाली गायत्री के समान पवित्र करने वाली वस्तु, इस पृथ्वी पर तथा स्वर्ग में कोई नहीं हैं ।।

धर्मोंन्नतिमधर्मस्य नाशनं जनहृछुचिम् मांगल्ये जगतो माता गायत्री कुसनात्सदा॥

धर्म की उन्नति अधर्म का नाश, भक्तों के हृदय की पवित्रता तथा संसार का कल्याण गायत्री माता करें ।।

गायत्री जान्ह्नवी चोमे सर्व पाप हरे स्मृतो ।। गायत्रीच्छन्दसां माता- माता लोकस्य जान्ह्नवी॥

गायत्री गंगा यह दोनों ही सब पापों का नाश करने वाली हैं ।। गायत्री को वेद माता और गंगा का लोक माता कहते हैं ।।

गायत्रीयो जपन्नित्यं स न पापेन लिप्यते ।। (हरितास्मृति ३/43) जो गायत्री का नित्य नियमित जप करता है, वह पापों में लिप्त नहीं होता ।।

गायत्री पावनानि जप्त्वा ज्ञात्वा याति परां गतिम् ।। न गायत्री विहीनस्य भद्र पात्र च ॥

अर्थात-परमपावनी गायत्री का श्रद्धापूर्वक जप करके साधक परम गति को प्राप्त करता है ।। गायत्री रहित का तो न इस लोक में कल्याण होता है न परलोक में ।।

गायत्री जाप्य निरतो मोक्षोपाचं च विंदति ।। अर्थात्- गायत्री मंत्र का जप करने वाला मोक्ष का प्राप्त करता है

‍ परांसिद्धिमवाप्नोति गायत्री मुत्तमां पठेत् ।। गायत्री का जप करने में परा सिद्धि प्राप्त होती है ।।

गायत्री महामंत्र की उपासना से उत्पन्न आध्यात्मिक शक्ति से मनुष्य क लौकिक जीवन पर भी महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है और उसकी अनेकों आपत्तियों तथा कठिनाइयों का समाधान होकर सुख, समृद्धि ,, सौभाग्य, सफलता एवं उन्नति के अवसर प्राप्त होते हैं ।। उपासकों के अनुभवों से भी यह प्रत्यक्ष है और शास्त्र वचनों से भी इसकी पुष्टि होती है ।।

एहिकामुष्यिकं सर्व गायत्रीं जपतो भवेत् ।। (अग्नि पुराण) अर्थात् गायत्री जप से सभी सांसारिक कामनायें पूर्ण होती है ।।

शास्त्रों में गायत्री को कामधेनु कहा गया है ।। कुन्ती ने इसी कामधेनु के अनुग्रह से देव सन्तानें प्राप्त की थीं ।। इस संदर्भ में महाराजा पाण्डु और उनकी पत्नी कुन्ती का संवाद देवी भागवत् में इस प्रकार आता है-

इत्यार्कण्य तदा प्राहकुन्ती कमलोचनम् ।। सुतमुत्पादयाशु त्वं मुनि गत्वा तपोन्वितम् ॥ त कुन्ती वचनं प्राह मम् मन्त्रोऽस्ति कामदः ।। दत्तो दुर्वासा पूर्व सिद्धिदः सर्वथा प्रभो ॥

निमन्त्रयेऽहं यं देवं मंत्रेणानेन पार्थिव ।। आगच्छेत्सर्वथाऽसौ मम् पराश्व निमंत्रितः ॥ (देवी भागवत्)

महाराजा पाण्डु ने अपनी पत्नी कुन्ती से कहा तुम किसी तपोनिष्ठ मुनि की शरण में जाकर एक सन्तान प्राप्त करो ।। यह सुनकर कुन्ती ने कहा- दुर्वासा ऋषि का दिया हुआ एक सर्व कामनापूर्ण करने वाला कामधेनु जैसे मंत्र मुझे ज्ञात है ।। सावित्री सत्यवान् के कथानक में सावित्री को गायत्री का प्रतीक और उत्कृष्ट जीवन जीने वाले साधक को सत्यवान् के रूप में निरूपित किया गया है ।। गायत्री हर किसी को वरण नहीं करती, हर किसी को मृत्यु के मुख से नहीं छुड़ाती ।। इसके लिए साधक को सत्यनिष्ठा होना चाहिए ।।

सत्यवान् होना सच बोलना तक ही सीमित नहीं है ।। वरन् उसका संयमी, तपस्वी, एवं परमार्थ प्रयोजनों में संलग्न रहना भी आवश्यक है ।। सावित्री सत्यवान् का विवाह किस कारण हुआ? उन्होंने रूप, वस्त्र, धनवान, विद्यावानों की उपेक्षा करके मात्र तपस्वी का वरण क्यों किया, इसका उल्लेख महाभारत के वनपर्व में मिलता है ।। इसमें साधक में सत्यवान के गुण होने का वर्णन है ।। तपस्वी पिता के तपस्वी पुत्र के रूप में ही सत्यवान् की चर्चा है ।।

तस्य पुत्रः पुरे जातः संवृद्धश्च तपोवने ।। सत्यवाननुरूपो मे भर्तेति मनसा वृत्तः ॥

उनके एक पुत्र हैं, सत्यवान, जो पैदा तो नगर में हुए हैं, परन्तु उनका पालन- पोषण एवं संवर्धन तपोवन में हुआ है ।। वे ही मेरे योग्य पति हैं ।। उन्हीं को मैंने मन ही मन वरण किया है ।।

(गायत्री महाविद्या का तत्त्वदर्शन पृ.सं.3.15)

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