शौचं शान्तिर्विवेकश्चैतल्लाभ त्रयमात्मिकम् ।।
पश्चादावाप्यते नूनं सुस्थिरं तदुपासकम् ॥
(सुस्थिर) मन को वश में रखने वाले (तदुपरान्त) उस गायत्री के उपासक को (पश्चात्) बाद में (शौचं) पवित्रता (शान्तिः) शान्ति (च) और (विवेकः) विवेक (एतत्) ये (आत्मिकं) आत्मिक (लाभत्रयं) तीन लाभ (नूनं) निश्चय से (अवाप्यते) प्राप्त होते हैं ।।
कार्येषु साहसः स्थैर्यं कर्मनिष्ठा तथैव च ।।
एते लाभाश्चवै तस्माज्यन्तेमानसास्त्रयः ॥
(कार्येषु साहसः) कार्यों में साहस (स्थैर्यं) स्थिरता (तथैव च) और वैसे ही (कार्यनिष्ठा) कार्यनिष्ठा (एते) ये (त्रयः) तीन (लाभाः) लाभ (मानसाः) मन सम्बंधी (सम्मत्वै) उससे (जायन्ते) प्राप्त होते हैं ।।
पुष्कलं धनसमृद्धिः सहयोगश्च सर्वतः ।।
स्वास्थ्यं वा त्रय एतेस्युस्तस्माल्लाभाश्चलौकिकाः ॥
(पुष्कलं) पर्याप्त (धन समृद्धि) धन की समृद्धि (सर्वतः) सब ओर से (सहयोगः) सहयोग (च) और (स्वास्थ्यं वा) स्वस्थता (एते) ये (त्रयः) तीन (लौकिक) सांसारिक (लाभाः) लाभ (तस्मात्) उससे (स्युः) होते हैं ।।
साधारण शारीरिक बल से सम्पन्न व्यक्ति अपने बाहुबल से बड़े- बड़े कठिन कार्य कर डालता है और आश्चर्यजनक सफलतायें प्राप्त कर लेता है, फिर आत्म- बल सम्पन्न व्यक्ति के बारे में तो कहना ही क्या है? शरीर जड़ पदार्थों का बना हुआ है, उसका बल भी जड़ एवं सीमित है ।। यह सीमा इतनी छोटी है कि पशु- पक्षी और छोटे दर्जे के जीव- जन्तु भी इस दृष्टि से बलवान मनुष्य की अपेक्षा अधिक बलवान होते हैं, कुत्ते की सी प्राणशक्ति, हिरन की- सी चौकड़ी, बैल जैसी मजबूती, सिंह जैसी वीरता, मनुष्य में कहाँ होती है? और मछली की तरह जल में तथा पक्षियों की तरह हवा में वह आवागमन कहा कर सकता है? फिर भी मनुष्य सब प्राणियों से श्रेष्ठ- सृष्टि का मुकुटमणि बना बैठा है ।। इसका कारण उसका आत्मिक बल ही है ।।
यह आत्मिक बल, गायत्री तत्व को अधिक मात्रा में धारण करने से प्राप्त होता है ।। इस धारणा के और भी अनेक उपाय हैं जिनके द्वारा संसार के महापुरुषों ने अपने को आत्मिक बल से सम्पन्न बनाकर बड़े- बड़े पुरुषार्थ किये हैं, उन अनेक उपायों में से एक सर्व सुलभ उपाय अध्यात्म विद्या के पारंगत आचार्यों ने ढूँढ़ निकाला है ।। उस उपाय का नाम है- गायत्री साधना ।। इस साधना से आत्मा में सात्त्विक चैतन्यता की मात्रा बढ़ती जाती है, फलस्वरूप जीवन की सभी दिशाओं में उसका प्रगति- परिचय मिलने लगता है ।।
जब शरीर में रक्त बढ़ता है तो हाथ, पाँव, छाती, नाक, गाल, ओठ सभी चैतन्यता, पुष्टि और लालिमा दृष्टिगोचर होने लगती है ।। जब कमरे में प्रकाश जलता है तो सभी खिड़कियों में से उसकी रोशनी बाहर निकलती है ।। आत्मा में जब बल बढ़ता है तो वह भी कई दिशाओं में उत्साहवर्धक ढंग से प्रगट होता है ।।
जीवन की प्रमुख दिशाएँ तीन होती हैं (1)आत्मिक (2) बौद्धिक, (3) सांसारिक ।। इन तीनों दिशाओं में आत्म- बल बढ़ने से आनन्ददायक परिणाम प्राप्त होते हैं ।। इन तीनों दिशाओं में तीन- तीन लक्षण ऐसे दिखाई पड़ते हैं जिनसे जीवन सर्व सुखी बन जाता है ।। इन नौ सम्पदाओं को नव निद्धि भी कह सकते हैं ।। सिद्धियाँ देवताओं को प्राप्त होती हैं, ऋद्धियाँ असुरों को मिलती हैं और निधियाँ मनु की सन्तान मानव प्राणी को प्राप्त होती है ।।
आत्मिक क्षेत्र की तीन निधियाँ (1)विवेक, (2) पवित्रता (3)शान्ति हैं ।। बौद्धिक क्षेत्र की और सांसारिक क्षेत्र की तीन निधियाँ (1) साहस, (2)स्थिरता, (3)कर्त्व्यनिष्ठा हैं और सांसारिक क्षेत्र की तीन निधियाँ (1)स्वास्थ्य ,, (2)समृद्धि, (3)सहयोग हैं ।। यह नौ लक्षण जीवन की सफलता के हैं ।। इन्हीं नौ गुणों को ब्राह्मण के नव गुण बताया है ।। भगवान् रामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ने पर क्रुद्ध परशुराम जी से उनके नव गुणों की प्रशंसा करके उन्हें प्रसन्न किया था ।।
'' नवगुण परम पुनीत तुम्हारे ''
(1) विवेक- जब आत्मा में गायत्री तत्व की स्थापना होती है तो अन्तःकरण में विवेक जागृत होता है ।। सत्- असत् का भेद स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता है ।। शास्त्र, सम्प्रदाय, वर्ग, संस्कार, स्वार्थ आदि की चहार दीवारियों को छलाँग कर सत्य का दर्शन करने वाली ऋतम्भरा बुद्धि जागृत हो जाती है ।। उचित न्याय- अन्याय, कर्तव्य- अकर्तव्य, धर्म- अधर्म के भेद को अनेकों व्यक्ति ठीक प्रकार नहीं समझ पाते। थोड़ी सी अड़चन से उनकी बुद्धि अर्जुन की भाँति मोहग्रस्त हो जाती है, परन्तु जिसमें विवेक की मात्रा बढ़ गई है, वह भ्रमित नहीं होता ।। वस्तुस्थिति की गहराई तक वह आसानी से पहुँच जाता है ।। सूक्ष्म मेघा, तत्व दृष्टि अथवा ऋतम्भरा बुद्धि से उसकी आत्मा सम्पन्न होती है यह प्रथम निद्धि है ।।
(2)पवित्रता- भीतरी और बाहरी दो प्रकार की पवित्रता होती है, छल, कपट, दुराव, असत्य, दंभ आदि के कारण अन्तःप्रदेश गन्दा हो जाता है ।। भीतर कुछ तथा बाहर कुछ भाव रहने से मनोभूमि में गन्दगी भर जाती है ।। इसकी दुर्गन्ध कलुषता से नाना प्रकार के आन्तरिक रोग उपज पड़ते हैं ।। ऐसे लोग- चोरी, व्यभिचार, शोषण, लोभ, क्रोध, मद, मत्सर आदि घातक शत्रुओं के आसानी से शिकार हो जाते हैं ।।
गायत्री तत्व की वृद्धि के कारण वह आन्तरिक अपवित्रता नष्ट होती है और स्वभाव बालकों की तरह सरल, कोमल, स्वच्छ, निष्कपट बनता है ।। जो बात पेट में वही बाहर- जो बाहर वही पेट में ।। इस प्रकार के निष्कपट स्वभाव वाले व्यक्तियों का अन्तःकरण बड़ा निर्मल रहता है और निर्मल हृदय में अपने आप दैवी सम्पदाओं को निवास होने लगता है ।।
बाह्य पवित्रता की दिशा में भी ऐसे मनुष्यों की अभिरुचि विशेष रूप से आकृष्ट रहती है ।। स्थान की, शरीर की, वस्त्रों की, प्रयोजनीय वस्तुओं की सफाई की ओर उनका बड़ा ध्यान रहता है ।। प्रकृति के बनाये हुए सुन्दर, स्वच्छ पदार्थों में उन्हें स्वभावतः प्रेम हो जाता है ।। बालक, वृक्ष, पौधे, पशु, पक्षी, नदी, पर्वतों की सुन्दरता उन्हें बहुत सुहाती है ।। उनका दृष्टिकोण स्वच्छ- पवित्र होने से उन्हें विचारों की, कार्यों की, साधनों की स्वच्छता ही पसन्द आती है ।।
(3) शान्ति- साधारण लोग जहाँ साधारण हानि- लाभ से उत्तेजित, अशांत, व्याकुल एवं बेकाबू हो जाते हैं, हर्ष, शोक, क्रोध, निराशा, भय, चिन्ता, मद आदि के तूफान उनके भीतर छोटी- छोटी घटनाओं के कारण आत्मा को बड़ा क्लेश रहता है, परन्तु अन्तःप्रदेश में गायत्री तत्व की अधिकता हो जाने से यह स्थिति नहीं रहती ।। परिवर्तनशील संसार, वस्तुओं का अवश्यम्भावी रूपान्तर, त्रिगुणात्मक सृष्टि का वैचित्र्य जब उनकी समझ में भली प्रकार आ जाता है फिर उन्हें न हर्ष का, न शोक का कोई भी अवसर व्यथित नहीं बनता ।। बाह्य विक्षोभ आ जाय तो भी उनका मानसलोक शान्त रहता है ।। ऐसी शान्ति को द्वन्द्वात्मक, स्थिति प्रज्ञा, समत्व योग, परमानन्द आदि नामों से पुकारते हैं ।।
(4) साहस- शक्तियाँ होते हुए भी कितने ही मनुष्य आत्महीनता, तुच्छता, दीनता, संकोच, कायरता, आदि मानसिक कमजोरियों के कारण सदा डरते, झिझकते रहते हैं और कठिनाई चाहे कितनी ही छोटी हो पर वे इसे बहुत बड़ी मान बैठते हैं और अपने को उसे पार करने में असमर्थ अनुभव करते है यह साहसहीनता बौद्धिक जगत में एक ऐसी आपत्ति है जिसके कारण अनेकों प्रकाशवान् दीपक असमय में ही बुझ जाते हैं, अनेकों सुरभित मनोहारिणी कलियाँ अपने जौहर प्रकट करने से पहले ही मुरझा जाती हैं। योग्यताओं का अभाव जीवनोन्नति में जितना बाधक होता है, उससे कहीं अधिक बाधक साहस का अभाव होता है ।।
यह अन्धकार गायत्री तत्व की आध्यात्मिक किरणें प्रकाशित होने के साथ साथ लीन होता चाहता है ।। त्रास क्रमशः अधिक स्वावलम्बी, आत्मविश्वासी, साहसी, निर्भर बनता है वह न किसी को त्रास देना पसन्द करता है और न सहना ।। आत्मगौरव, साहसी, से आध्यात्मिक महानता से उसका मनोलोक आलोकित हो उठता है तदनुसार वह मनुष्योचित अधिकारों के लिए संघर्ष, प्रयत्न और परिश्रम करता हुआ परतंत्रता के बन्धनों को काटता हुआ स्वतन्त्रता की ओर, मुक्ति की ओर द्रुत गति से अग्रसर होता है और आत्मोन्नति लौकिक और परलौकिक आनन्द प्राप्त करता है ।।
(5) स्थिरता- डाँवाडोल अस्थिर वृत्तियों के मनुष्यों की जीवन यात्रा एक दिशा में नहीं चलती, फलस्वरूप उनका समय, श्रम और बल निरर्थक खर्च होता रहता है ।। विचार, विश्वास, सिद्धांत, कार्य, लक्ष्य, स्वभाव एवम् निष्ठा की सरसता होने से जीवन प्रवाह एक नियत दिशा में प्रवाहित होता है और बूँद- बूँद से घट भर जाने की उक्ति के अनुसार उसे अपने कार्य में सफलता मिलती है ।। चित्त में स्थिरता रहने से मस्तिष्क नियत दिशा में सोचता और कार्य मग्न रहता है, फलस्वरूप उस क्षेत्र में अनेकों उन्नति के अवसर मिलते हैं ।। स्थिरता का आध्यात्मिक अर्थ है- मनोजय, आत्मनिग्रह, समाधि ।। इस मार्ग में प्रगति होने के साथ- साथ सांसारिक और आत्मिक सुख- शान्ति के द्वार खुलने लगते हैं ।।
(6) कर्तव्यनिष्ठा- इसे धर्म भावना अथवा कर्तव्यपरायणता कहते हैं ।। मानव जीवन की सर्वश्रेष्ठ प्राप्त होने के साथ- साथ प्राणी को एक भारी उत्तरदायित्व भी सौंपा गया है, जिसे धर्म कर्तव्य कहते हैं ।। यह कर्तव्य- पालन ही जीवन का सच्चा मूल्य है ।। इसे चुकाये बिना कोई आत्मा न तो शान्ति लाभ कर सकती है और न सद्गति प्राप्त कर सकती है ।। अपनी आत्मा के प्रति, मस्तिष्क के प्रति, शरीर के प्रति, कुटुम्ब के प्रति, समाज के प्रति, राष्ट्र ,, ईश्वर एवं समस्त संसार के प्रति मनुष्य के कुछ कर्तव्य, उत्तरदायित्व धर्म होते हैं ।।
असंख्यों व्यक्ति उन्हें जानते तक नहीं, जो जानते हैं उनमें से असंख्यों उन्हें पूरा नहीं करते, फलस्वरूप उन्हें वे दुःखद परिणाम भुगतने पड़ते हैं जिन्हें नरक बंधन आदि नामों से पुकारा जाता है ।। गायत्री शक्ति की धारणा से यह धर्म- भावना जागृत होती है, फलस्वरूप साधक के विचार, कार्य और आयोजन धर्म केन्द्र के चारों ओर परिभ्रमण करने लगते हैं और वह ऐसा धर्मात्मा बनता जाता है जिसे सच्चा मनुष्य देशभक्त, लोकसेवी, भला मानुष, सभ्य नागरिक, कर्तव्यनिष्ठ एवं ईश्वर- भक्त भी कह सकते हैं ।।
(7)स्वास्थ्य- उत्तम स्वास्थ्य मनुष्य का जन्म- सिद्ध अधिकार है ।। कुछ अपवादों को छोड़कर आमतौर से प्रकृति माता सभी की स्वस्थ शरीर प्रदान करती है, किन्तु लोग उसे मिथ्या आहार- विहार के द्वारा बिगाड़ लेते हैं ।। यह बिगाड़ जब तक चलता रहता है, तब तक स्वास्थ्य में विकृतियाँ बनी ही रहती हैं ।। एक रोग गया, दूसरा आया ।। एक दवा बन्द हुई, दूसरी करनी पड़ी ।। यह क्रम तब तक नहीं टूट सकता, जब तक कि आहार- विहार में प्राकृतिक न आवे, सतोगुण न बढ़े ।। गायत्री से सतोगुण बढ़ता है और जीवनक्रम में संयम एवं सुव्यवस्था का प्रमुख भाग रहने लगता है, तदनुसार स्वास्थ्य में सुधार आरम्भ हो जाता है और वह दिन- दिन अधिक सुधरने लगता है ।।
(8) समृद्धि- अनेक दोषों, पापों, कुटेवों, व्यसनों में फँसे हुए व्यक्ति पूर्व संचित समृद्धि को भी गँवाते हैं ।। बुरे स्वभाव, उल्टे दृष्टिकोण और अस्थिर मस्तिष्क के कारण उनके लाभदायक कार्य ही हानिकारक सिद्ध होते हैं ।। उनके खर्च बहुत बढ़े हुए और निरर्थक होते हैं, तदनुसार तामसिक वृत्ति के मनुष्य सच्चे अर्थों में कभी समृद्धिशाली नहीं बन सकते ।। किसी प्रकार नीति- अनीति का विचार छोड़कर वे पैसे जमा भी कर लें तो वह पैसा उनके लिए चिन्ता, अशान्ति, क्लेश और दोष, दुर्गुणों की वृद्धि करने वाला कष्टकारक ही सिद्ध होता है ।।
इसके विपरीत जिनके अन्दर गायत्री तत्व की अधिकता है उनका मानसिक सन्तुलन ठीक रहने से कार्यों में दूरदर्शिता की मात्रा अधिक रहती है, फलस्वरूप वे सम्पन्नता की ओर बढ़ते हैं ।। मितव्ययिता, ईमानदारी और परिश्रमशीलता के कारण वे गरीब नहीं रह पाते ।। अनीति से धनवान् हुए लोगों की तरह वे अमीर नहीं बन पावें तो भी उनकी थोड़ी- सी पूँजी सदुपयोग में आकर अमित आनन्ददायक बनती है और वे थोड़े से भी भारी अमीरी से अधिक समृद्धिशाली होने का सुख प्राप्त करते हैं ।।
(9)सहयोग- बुरे लोगों से वे लोग भी भीतर ही भीतर डरते और घृणा करते रहते हैं जो कारणवश उनसे मित्रता रखते हैं ।। इसके विपरीत खरे, ईमानदार, सद्गुणी, प्रसन्नचित्त, स्थिरमति, मधुरभाषी, सेवाभावी, सुखी, प्रसन्न व्यक्ति की ओर सबका मन आकर्षित होता है ।। ध्वनि की प्रतिध्वनि की भाँति प्रेम का प्रत्युत्तर प्रेम से, सेवा का सेवा से सहयोग का सहयोग से मिलता है ।। इस प्रकार गायत्री साधक को अनेक सच्चे सहयोगी मिल जाते हैं ।। उन्नति के अवसर सहयोगियों की सहायता से ही मिला करते हैं ।। जिसे अधिक लोगों का सहयोग प्राप्त है उसको न केवल सांसारिक वरन् मानसिक सुख शान्ति की भी उपलब्धि होती है ।।
यह नौ निधियाँ यज्ञोपवीत के नौ तार हैं ।। गायत्री की शरण में जाना द्विजत्व को प्राप्त करना है ।। जो द्विज इस नौ तार के यज्ञोपवीत को धारण करता है उसे उनसे सम्बन्धित उन नौ गुणों की प्रतिध्वनि स्वरूप यह नौ निधियाँ प्राप्त होती हैं ।। यह जीवन के सर्वोत्तम लाभ हैं ।। यह जितने अंशों में मनुष्य को प्राप्त हो जाते हैं उतने ही अंशों में साधक अपने को स्वर्गीय सुखों से सम्पन्न अनुभव करने लगता है ।।
(गायत्री महाविद्या का तत्त्वदर्शन पृ.सं.3.6)