देवताओं, अवतारों और ऋषियों की उपास्य गायत्री

सर्वफल प्रदा उपास्य सर्वश्रेष्ठ गायत्री

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भारतीय धर्म के उपासना विज्ञान में गायत्री को सर्वोपरि माना गया है और सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। इसके कई कारण हैं, एक तो यह कि इस महामंत्र के अक्षरों में बीज रूप मानवी संस्कृति एवं आदर्श वादिता के सारे सिद्धान्त सन्निहित हैं। इसे विश्व का सबसे छोटा, मात्र 24 अक्षरों का वह ग्रन्थ कहा सकते हैं, जिसमें धर्म और आध्यात्म का समूचा तत्त्वज्ञान साररूप से समाविष्ट मिल सकता है। इन अक्षरों की व्याख्या करते हुए जो कुछ मानवी प्रगति एवं सुव्यवस्था के लिए आवश्यक है, यही प्रजा का विवेकशीलता का मन्त्र है। कहना न होगा कि मनुष्य जीवन की समस्त समस्याएं दुर्बुद्धि के कारण उत्पन्न होती हैं। संसार पर आये दिन छाये रहने वाले संकट के बादल अशुभ चिंतन के खारे समुद्र में ही उठते हैं। विवेक सर्वोपरि है। सद्बुद्धि से बढ़कर संसार में और कुछ नहीं है। यह तथ्य प्रज्ञा की देवी गायत्री को सर्वोपरि ठहराने में सन्निहित है।

गायत्री सद्बुद्धि ही है। इस महा-मन्त्र में सद्बुद्धि के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गई। इसके 24 अक्षरों में 24 अमूल्य शिक्षा संदेश भरे हुए हैं, वे सद्बुद्धि के मूर्तिमान प्रतीक हैं। उन शिक्षाओं में वे सभी आधार मौजूद हैं जिन्हें हृदयंगम करने वाले का सम्पूर्ण दृष्टिकोण शुद्ध हो जाता है और उस भ्रम जन्य अविद्या का नाश हो जाता है, जो आये दिन कोई न कोई कष्ट उत्पन्न करती है। गायत्री महामन्त्र की रचना ऐसे वैज्ञानिक आधार पर हुई है कि उसकी साधना से अपने भीतर छिपे हुए अनेकों गुप्त शक्ति केन्द्र खुल जाते हैं और अन्तस्थल में सात्विकता की निर्झरिणी बहने लगती है। विश्वव्यापी अपनी प्रबल चुम्बक शक्ति से खींचकर अन्तःप्रदेश में जमा कर देने की अद्भुत शक्ति गायत्री में मौजूद है। इन सब कारणों से कुबुद्धि का शमन करने में गायत्री अचूक रामबाण मन्त्र की तरह प्रभावशाली सिद्ध होती है। इस शमन के साथ-साथ अनेकों दुःखों का समाप्त हो जाना भी पूर्णतया निश्चित है। गायत्री देवी प्रकाश की वह अखण्ड ज्योति है जिसके कारण कुबुद्धि का अज्ञानान्धकार दूर होता है और अपनी वही स्वाभाविक स्थिति प्राप्त हो जाती है, जिसको लेकर आत्मा इस पुण्यमयी धरती माता की परम शान्ति दायक गोदी में किलोल करने आया है। मनुष्य ईश्वर का उत्तराधिकारी एवं राज कुमार है। आत्मा परमात्मा का ही अंश है। अपने पिता के सम्पूर्ण गुण एवं वैभव बीज रूप से उसमें मौजूद हैं। जलते हुए अंगार में जो शक्ति है वही छोटी चिनगारी में भी मौजूद है। इतना होते हुए भी हम देखते हैं कि मनुष्य बड़ी निम्न कोटि का जीवन बिता रहा है। दिव्य होते हुए भी दैवी सम्पदाओं के वंचित हो रहा है।

परमात्मा सत् है, परन्तु उसके पुत्र हम असत् में निमग्न हो रहे हैं। परमात्मा चित् है हम अन्धकार में डूबे हुए हैं। परमात्मा आनन्द स्वरूप है हम दुःखों से संत्रस्त हो रहे हैं। ऐसी उल्टी परिस्थिति उत्पन्न हो जाने का कारण क्या है। यह विचारणीय प्रश्न है।

जब कि ईश्वर का अविनाशी राजकुमार अपने पिता के इस सुरम्य उपवन संसार में विनोद क्रीड़ा करने के लिए आया हुआ है तो उसकी जीवनयात्रा आनन्दमयी न रहकर दुःख-दारिद्र से भरी हुई क्यों बन गयी है? यह एक विचारणीय पहेली है।

अग्नि स्वभावतः ऊष्ण और प्रकाशवान् होती है, परन्तु जब जलता हुआ अंगार बुझने लगता है तो उसकी ऊपरी भाग राख से ढक जाता है। तब उस राख से ढके हुए अंगार में वे दोनों ही गुण दृष्टिगोचर नहीं होते जो अग्नि में स्वभावतः होते हैं। बुझा हुआ, राख से ढका हुआ अंगार न तो गर्म होता है और न प्रकाशवान्, वह काली-कलूटी कुरूप भस्म का ढेर मात्र बना हुआ पड़ा रहता है। जलते हुए अंगार को इस दुर्दशा में ले पहुंचाने का कारण वह भस्म है जिसने उसे चारों ओर से घेर लिया है। यदि यह राख की परत ऊपर से हटा दी जाय तो भीतरी भाग में फिर वैसी ही अग्नि मिल सकती है जो अपने ऊष्णता और प्रकाश के गुण से सुसम्पन्न हो।

परमात्मा सच्चिदानन्द है। वह आनन्द से ओत-प्रोत है। उसका पुत्र आत्मा भी आनन्दमय ही होना चाहिए। जीवन की विनोद क्रीड़ा करते हुए इस नन्दन वन में उसे आनन्द ही आनन्द अनुभव होना चाहिए। इस वास्तविकता को छिपाकर जो उसके बिलकुल उलटी दुःख-दारिद्र और क्लेश-कलह की स्थिति उत्पन्न कर देती है वह कुबुद्धि रूप राख है। जैसे अंगार को राख ढककर उसको अपनी स्वाभाविक स्थिति से वंचित कर देती है। वैसे ही आत्मा की परम सात्विक, परम आनन्दमयी स्थिति को यह कुबुद्धि ढक लेती है और मनुष्य निकृष्ट कोटि का दीन-हीन जीवन व्यतीत करने लगता है।

‘कुबुद्धि’ को ही माया, असुरता, अन्धतामिश्र, अविद्या आदि नामों से पुकारते हैं। यह आवरण मनुष्य की मनोभूमि पर जितना मोटा चढ़ा होता है वह उतना ही दुःखी पाया जाता है। शरीर पर मैल की जितनी मोटी तह जम रही होगी उतनी खुजली मचेगी और दुर्गन्ध उड़ेगी। यह तह जितनी ही कम होगी उतनी ही खुजली और दुर्गन्ध कम होगी। शरीर में दूषित, विजातीय विष एकत्रित न हो तो किसी प्रकार का कोई रोग न होगा। पर यह विकृतियां जितनी अधिक जमा होती जायेंगी शरीर उतना ही रोगग्रस्त होता ही जायेगा। ‘कुबुद्धि’ एक प्रकार से शरीर पर जमी हुई मैल की तह या रक्त से भरी हुई विषैली विकृति है जिसके कारण खुजली, दुर्गन्ध, बीमारी तथा अनेक प्रकार की अन्य असुविधाओं के समान जीवन में नाना प्रकार की पीड़ा, चिन्ता, बेचैनी और परेशानी उत्पन्न होती रहती हैं।

लोग नाना प्रकार के कष्टों से दुःखी हैं। कोई बीमारी से कराह रहा है, कोई गरीबी से दुःखी है, किसी का दाम्पत्ति जीवन कष्टमय है, किसी को सन्तान की चिन्ता है व्यापार में घाटा, उन्नति में अड़चन, असफलता की आशंका, मुकदमा, शत्रु के आक्रमण का भय, अन्याय का उत्पीड़न, मित्रों का विश्वासघात, दहेज की चिन्ता, प्रियजनों का विछोह आदि दुःख आये दिनों दुःखी बनाये रहते हैं। व्यक्तिगत जीवन की भांति धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों में अशान्ति कम नहीं है। यदि कोई व्यक्ति अपने आपको बहुत सम्भाल कर रखे, तो भी व्यापक बुराइयों एवं कुव्यवस्थाओं के कारण उसकी शान्ति नष्ट हो जाती है और जीवन का आनन्दमय उद्देश्य प्राप्त करने में बाधा पड़ती है।

दुःख चाहे व्यक्तिगत हों या सामूहिक उनका कारण एक ही है और वह है कुबुद्धि। संसार में इतने प्रचुर परिणाम में सुख-साधन भरे पड़े हैं कि इन खिलौनों से खेलते-खेलते सारा जीवन हंसी-खुशी में बीत सकता है। मनुष्य को ऐसा अमूल्य शरीर, मस्तिष्क एवं इन्द्रिय समूह मिला हुआ है कि इनके द्वारा साधारण वस्तुओं एवं परिस्थितियों में भी इतना आनन्द लिया जा सकता है कि स्वर्ग भी उसकी तुलना में तुच्छ सिद्ध हो। इतना सब होते हुए भी लोग बेतरह दुःखी हैं, जिन्दगी में कोई रस नहीं, मौत के दिन पूरे करने के लिए समय का एक बोझ की तरह काटा जा रहा है। मन में चिन्ता, बेबसी, भय, दीनता और बेचैनी की अग्नि दिन भर जलती रहती है। जिसके कारण पुराणों में वर्णित नारकीय यातनाओं जैसी व्यथाएं सहनी पड़ती हैं।

यह संसार चित्र सा सुन्दर है, इसमें कुरूपता का एक कण भी नहीं। यह विश्व मनोदमयी क्रीड़ा का प्रांगण है इसमें चिन्ता और भय के लिए कोई स्थान नहीं। यह जीवन आनन्द का निर्बाध निर्झर है इसमें दुखी रहने का कोई कारण नहीं। स्वर्गादपि गरीयसी—इस जननी जन्म भूमि में वे सभी तत्त्व मौजूद हैं जो मानस की कली को खिलाते हैं। इस सुर दुर्लभ नर तन की रचना ऐसे सुन्दर ढंग से हुई है कि साधारण वस्तुओं को वह अपने स्पर्श मात्र से ही सरस बना लेता है। परमात्मा का राजकुमार आत्मा इस संसार में क्रीड़ा-किलोल करने आता है। उसे शरीर रूपी रथ, इन्द्रियों रूपी सेवक, मस्तिष्क रूपी मन्त्री देकर परमात्मा ने यहां इसलिए भेजा है कि इस नन्दन वन जैसे संसार की शोभा को देखे, उसमें सर्वत्र बिखरी हुई सरलता का स्पर्श और आस्वादन करे। प्रभु के इस महान उद्देश्य में बाधा उपस्थित करने वाली, स्वर्ग को नरक बना देने वाली कोई वस्तु है तो वह केवल कुबुद्धि ही है।

स्वस्थता हमारी स्वाभाविक स्थिति है बीमारी अस्वाभाविक एवं अपनी भूल से पैदा हुई है। पशु-पक्षी जो प्रकृति का स्वाभाविक अनुसरण करते हैं, बीमार नहीं पड़ते, वे सदा स्वास्थ्य का सुख भोगते हैं पर मनुष्य नाना प्रकार के मिथ्या आहार-विहार द्वारा बीमारी को न्योत बुलाता है। यदि वह भी अपना आहार-विहार प्रकृति के अनुकूल रखे तो कभी बीमार न पड़े। इसी प्रकार सद्बुद्धि स्वाभाविक है। यह ईश्वर प्रदत्त है, दैवी है, जन्मजात है, जीवन संगिनी है। संसार में भेजते समय प्रभु हमें सद्बुद्धि रूपी कामधेनु भी देते हैं ताकि वह हमारे सम्पूर्ण सुख-साधन जुटाती रहे, परन्तु हम भूलवश भ्रमवश, अज्ञानवश, माया ग्रस्त होकर सद्बुद्धि को त्यागकर कुबुद्धि को अपना लेते हैं और जैसे मिथ्याचरण से बीमारी न्योत बुलाई जाती है। वैसे ही मानसिक अव्यवस्था के कारण कुबुद्धि को आमंत्रित किया जाता है यह पिशाचिनी जहां आई नहीं कि जीवन का सारा क्रम उलटा नहीं, दोनों एक साथ रह नहीं सकतीं। जहां कुबुद्धि होगी, वहां तो अशान्ति, चिंता, तृष्णा, नीचता, कायरता आदि की कष्ट कारक स्थितियों का ही निवास होगा। रंगीन कांच का चश्मा पहन लेने पर आंखों से सभी वस्तुएं रंगीन दिखाई देती हैं। यद्यपि उन वस्तुओं का वैसा रंग नहीं होता फिर भी चश्मे के कांच का रंग जैसा होता है, वैसा ही आस-पास का जगत् दिखाई देने लगता है। कुबुद्धि का चश्मा लगाने से, बुद्धि भ्रम उत्पन्न हो जाने से सीधी साधारण सी परिस्थितियां और घटनायें भी दुखदायी दिखाई देने लगती हैं। गायत्री महामंत्र का प्रधान कार्य कुबुद्धि का निवारण और ऋतंभरा प्रज्ञा का जागरण है।

इसके अतिरिक्त गायत्री मंत्र में एक और विशेषता यह है कि उसमें शब्द विज्ञान-स्वर शास्त्र का जैसा संगम हुआ है वैसा अन्य किसी मंत्र में नहीं हुआ है। साधा रस योगियों और तपस्वियों ने अपने प्रयोग, परीक्षणों और अनुभवों के आधार पर जो तुलनात्मक उत्कृष्टता देखी है, उसी से प्रभावित होकर उन्होंने गायत्री महाशक्ति को सर्वोपरि स्थान दिया। इस संदर्भ में मिलने वाले शास्त्र वचनों में से कुछ इस प्रकार है—

गायत्र्या न परं मन्त्रं न बीजं प्रणवादिकम् । गायत्र्या न परं जप्यं गायत्रया न परं तपः । गायत्र्या न परं ध्यानं गायत्र्या न परं हुतम् : हविष्यं घृत संयुक्त गायत्री मन्त्र पूर्वकम् । —विश्वामित्र कल्प

अर्थात्—गायत्री से बढ़कर अन्य कोई मन्त्र, जप, ध्यान, तप, कहीं नहीं है। गायत्री यज्ञ से बढ़कर और कोई यज्ञ नहीं है। गायत्री परदेवतेति गहिता ब्रह्मैव चिद्रूपिणी ।।
—देव्युपनिषद्

अर्थात्—‘‘गायत्री परादेवता कही गई है और वह चित् स्वरूपा गायत्री साक्षात् ब्रह्म ही है।’’

‘महाभारत’ में भीष्म पितामह का वचन है कि— ‘‘परां सिद्धिमवाप्नोति गायत्री मुत्तमां पठेत् ।’’ जो मनुष्य सर्वश्रेष्ठ गायत्री का जप करता है वह परम सिद्धि को पाता है।

अष्टादशसु विद्यासु मीमांसाति गरीयसी । ततोऽपि तर्क शास्त्राणि पुराण तेभ्य एव च । ततोऽपि धर्म शास्त्राणि तेभ्यो गुर्वी श्रुतिर्द्विज । ततोऽप्युपनिषच्छ्रेष्टा गायत्री च ततोऽधिका । दुर्लभा सर्व मन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता । —वृहत् सन्ध्या भाष्य

अठारह प्रकार की विद्याओं में मीमांसा (कर्मकाण्ड) श्रेष्ठ है। मीमांसा से तर्क विवेक उत्तम है। न्याय से पुराणों की गरिमा अधिक है। पुराणों में धर्मशास्त्र और धर्मशास्त्रों में वेद की महिमा अधिक है। वेदों की व्याख्या करने वाली उपनिषदों की उपयोगिता और भी अधिक है। उपनिषदों से भी गायत्री श्रेष्ठ है समस्त मन्त्रों में प्रणव युक्त गायत्री की महिमा सर्वोपरि है।

गायत्री यः परित्यज्य चान्यमन्त्र मुपासते । न साफल्यमवाप्नोति कल्प कोटि शतैरपि । —वृहत संध्या भाष्य

जो गायत्री को त्याग कर अन्य मन्त्र की उपासना करता है वह सौ कोटि कल्पों में भी अभीष्ट सफलता प्राप्त नहीं कर सकता।

जपतां जुह्यतां चैव नित्यं च प्रयतात्मनाम् । ऋषीणां परमं जप्यं गूह्य मेतन्नराधिप । —महाभारत

नित्य जप करने के लिए, हवन करने के लिए ऋषियों का परम मन्त्र गायत्री ही है। गायत्री सर्व मन्त्राणां शिरोमणि तया स्थिता । विधानामपि तेनैतां साधयेत्सर्व सिद्धये । त्रिव्याहृति युतां देवीमोंकार युग सम्पुटाम् । उपास्य चतुरोवर्गान् साधयेद्यो न सोन्धकोः । देव्या द्विजत्व मासाद्य श्रेय सेव्य रतास्तुये । ते रत्नमभिवांच्छन्ति हित्वा चिन्तामणिं करात् । —ब्रह्म वार्तिक

गायत्री सब मन्त्रों में तथा विद्याओं में शिरोमणि है। उससे सब इन्द्रियों की साधना होती है। जो व्यक्ति इस उपासना से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पदार्थों को प्राप्त नहीं करते वे अन्धबुद्धि वाले हैं। जो गायत्री जैसे मन्त्र के होते हुए भी अन्य मन्त्रों की उपासनाएं करते हैं वे ऐसे ही मूर्ख हैं जैसे हाथ आई चिन्तामणि को फेंककर छोटे-छोटे रत्न कणों को ढूंढ़ने वाले मूर्ख।

गायत्री वेद जननी गायत्री लोक पावनी । न गायत्र्याः पर जप्यमेताद्विज्ञाय मुच्यते ।। —कूर्म पुराण

‘‘वेद-जननी गायत्री इस संसार में सर्वाधिक पवित्र करने वाली है। विद्वानों का कथन है कि गायत्री से बढ़कर अन्य कोई जप नहीं है।’’

सावित्र्यास्तु परं नास्ति शोधनम् सर्व कर्मणाम् । —अग्नि वृद्धा चस्तम्बो सब कर्मों को शुद्ध करने के लिए गायत्री से बढ़कर और कुछ नहीं है।

अष्टादाशसु विद्यासु मीमांसातिगरीयसी । ततोऽपि तर्कशास्त्राणि पुराणं तेभ्य एवच ।। ततोऽपि धर्मशास्त्राणि तेभ्यो गुर्वी श्रुतिर्द्विज । ततोऽप्युप निषच्छ्रेष्टा गायत्री च ततोऽधिका ।। —स्कन्दपुराण काशीखण्ड 9। 49। 50

अष्टादश विद्याओं में मीमांसा शास्त्र, मीमांसा से तर्कशास्त्र, तर्कशास्त्र से पुराण शास्त्र, पुराण से धर्म शास्त्र, धर्मशास्त्र से वेद, वेद से उपनिषद् और उपनिषद् से गायत्री का महत्व अधिक है।

कुर्यादन्यन्नवा कुर्यादनुष्ठानादिकम् तथा । गायत्री मात्र निष्ठस्तु कृत्य कृत्यो भवेद्विजः । —गायत्री तन्त्र

अन्य उपासना अनुष्ठान आदि करें न करें गायत्री मन्त्र की उपासना करने वाला कृतकृत्य हो जाता है।

सप्त कोटि महा मन्त्रा गायत्री प्रायकाः स्मृताः । आदिदेवमुपासन्ते गायत्री वेदमातरम् ।। —गायत्री कल्प

‘‘करोड़ों मन्त्रों में सर्व प्रमुख मन्त्र गायत्री है जिसकी उपासना ब्रह्मा आदि देव भी करते हैं। वह गायत्री ही वेदों का मूल है।’’

इत्युक्त्वा च महादेवी मूलप्रकृतिरीश्वरी ।। अन्तर्धानं गता सद्यो भक्त्या देवैरभिष्टुता ।। ततः सर्वे स्वगर्वं तु विहाय पदपंकजम् ।। सम्यगाराधयामासुर्भगवत्याः परात्परम् ।। त्रिसंध्यं सर्वदा सर्वे गायत्रीजपतत्पराः ।। यज्ञभागादिभिः सर्वे देवीं नित्यं सिषेविरे ।। न विष्णूपासना नित्या वेदेनोक्ता तु कुत्रचित् ।। न विष्णुदीक्षा नित्यास्ति शिवस्यापि तथैव च ।। गायत्र्युपासना नित्या सर्ववेदैः समीरिता ।। यया विना त्वधःपातो ब्राह्मणस्याऽस्ति सर्वथा ।। तावता कृतकृत्यत्वं नान्यापेक्षा द्विजस्य हि ।। गायत्री मात्र निष्णातो द्विजो मोक्षमवाप्नुयात् ।। कुर्यादन्यं न वा कुर्यादिति प्राह मनुः स्वयम् ।। —देवी भागवत् 12। 8। 84 से 91

व्यास जी बोले अपना निर्देश देकर—भगवती अन्तर्धान हो गई। पीछे सब देवता अभिमान और अज्ञान छोड़कर उसी परम शक्ति की उपासना में लग गये। सब त्रिकाल संध्याराधना पूर्वक गायत्री मन्त्र के जप में तत्पर रहने लगे। यज्ञ भाग देने लगे। विष्णु अथवा शिव की उपासना नित्य नहीं है। गायत्री उपासना को वेदों ने नित्य कहा है। इस गायत्री से रहित विप्र का अधः पतन हो जाता है। किसी भी अन्य उपासना का उतना सत्परिणाम नहीं, जितना गायत्री का। केवल गायत्री उपासना से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है भले ही और कोई साधना न करें। मनु भगवान ने भी ऐसा ही कहा है।

अष्टादशसुविद्यासु मीमांसातिगरीयसी । ततोपितर्कशास्त्राणि पुराणे तेभ्य एव च ।। ततोऽपिधर्मशास्त्राणितेभ्यो गुर्वीश्रुतिर्द्विज ।। ततोप्युपनिषच्छ्रेष्टागायत्री च ततोधिका ।। दुर्लभासर्वमन्त्रेषु गायत्री प्रणवान्विता । न गायत्र्याधिकं किंचित्त्रयीषु परिगीयते ।। न गायत्रीसमो मन्त्रोनकाशीसदृशी पुरी । —स्कन्द पुराण

अठारह विद्याओं में मिमांसा विद्या अत्यन्त बड़ी है। इससे भी अधिक गुरु तर्क शास्त्र हैं। उनसे भी अधिक पुराण हैं और उनसे भी अधिक धर्म-शास्त्र होते हैं और इनसे अधिक गुरु श्रुति हैं। हे द्विज! श्रुतियों से भी अधिक गुरु उपनिषद् हैं और इसे भी परम श्रेष्ठ गायत्री होती है। इससे अधिक कोई भी नहीं है। प्रणव से समन्वित गायत्री सभी मन्त्रों में दुर्लभा है। त्रयी में अर्थात् वेद त्रयी में गायत्री से अधिक कुछ भी नहीं परिगीत किया जाता है गायत्री के समान कोई अन्य मन्त्र नहीं है और काशी के समान अन्य कोई भी पूरी नहीं है।

गायत्री वेद जननी गायत्री ब्राह्मणप्रसूः । गातारं त्रायतेयस्माद्गायत्री ते न गीयते ।। वाच्यवाचक सम्बन्धोगायत्र्याः सवितुर्द्वयोः । वच्योसौ सविता साक्षाद्गायत्री वाचिका परा । प्रभावेणैवगायत्र्याः क्षत्रियः कौशिकोवशी । राजर्षित्वपरित्यज्यब्रह्मर्षिपदमीयिवान् ।। सामर्थ्यं प्राप चात्युच्चेरन्यद्भुवनसर्जने । किं किं न दद्याद्गायत्री सम्यगेवमुपासिता ।

यह गायत्री वेदों की जननी है। गायत्री ब्राह्मणों को प्रसूत करने वाली है। क्योंकि इसका जो गायन (जाप) करता है उसकी यह सुरक्षा (त्राण) किया करती है इसलिए इसको गायत्री कहा जाता है। गायत्री और सविता इन दोनों का वाक्य-वाचक सम्बन्ध होता है। वाच्य तो भगवान् सविता देव हैं और गायत्री साक्षात् परा उनकी वाचिका होती है। इस गायत्री के प्रभाव से ही क्षत्रिय वंशी कौशिक (विश्वामित्र) राजर्षित्व का त्याग करके ब्रह्मर्षि के पद को प्राप्त हो गये। दूसरा बहुत ऊंचा भवन निर्माण करने की भी उन्होंने सामर्थ्य प्राप्त करली थी। भली-भांति से उपासना भी की हुई गायत्री देवी मनुष्य को क्या-क्या नहीं दे दिया करती है?

अन्यान्य मन्त्रों की तुलना में गायत्री की श्रेष्ठता बताई है और यह भी कहा गया है कि एक ही बीज उपासना को अपनाने से वेदाध्ययन का लाभ मिल जाता है। अन्य मन्त्रों की तुलना में गायत्री की विशेषता से इनकार नहीं किया जा सकता। इस प्रसंग में कुछ प्रमाण इस प्रकार मिलते हैं—

सर्वेषां जप सूक्तानामृचांच यजुषां तथा । साम्नां चैकाक्षरा दीना गायत्री परमो जपः । —वृद्ध पाराशर स्मृति 4।4

वेदों के अनेक मन्त्र, जप, सूक्त, ओंकार आदि अनेक उपासनाएं हैं। उन सब में गायत्री मन्त्र परम श्रेष्ठ है।

अष्टादशसु विद्यासु मीमांसातिगरीयसी । ततोऽपि तर्क शास्त्राणि पुराणं तेभ्य एव च ।। ततोऽपि धर्म शास्त्राणि तेभ्यो गुर्वी रुतिर्द्विज । ततोऽप्युनिषच्छ्रेष्ठा गायत्री च ततोऽधिका ।। (स्कन्द पुराण, काशी खण्ड 1। 49-50)

अर्थात्—‘‘अठारह विद्याओं में मीमांसा बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है। उससे अधिक तर्कशास्त्र, तर्कशास्त्र से अधिक पुराण, पुराण से धर्मशास्त्र, धर्मशास्त्र से वेद, वेद से उपनिषद् और उपनिषद् से गायत्री का महत्त्व अधिक है।’’
(वृहत् पाराशर संहिता)

‘‘सम्पूर्ण सूक्तों में, ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद में तथा प्रणवादि जितने हैं उन सब में गायत्री को सर्वश्रेष्ठ कहा है। जिस ओंकार की उपासना ब्रह्माजी ने की थी वह भी उसी का अंग है। इन दोनों से बढ़कर जपने योग्य तीनों लोकों में और कुछ नहीं है।’’

पुराणं संहिताशास्त्रं स्मृतिशास्त्रं तथैव च । गायत्र्याः परमेशानि सदर्थं ब्रह्मसम्मितम् ।।

हे पदमेशात्रि! पुराण—संहिता शास्त्र तथा स्मृति शास्त्र और गायत्री का सत् अर्थ यह सब ब्रह्म समित हैं ।।205।।

सांगंश्च चतुरोवेदानधीत्यापि सवाङ्गयात् । सावित्रीं यो न जानाति वृथा तथ्य परिश्रमः ।। —योगी याज्ञवल्क्य

समस्त अंग उप-अंगों समेत वेदों को पढ़ लेने पर भी जो गायत्री को नहीं जानता उसका परिश्रम व्यर्थ ही गया समझना चाहिए।

गायत्रीं चैव वेदांश्च तुलायां समतोलयत् । वेदा एकत्र सांगास्तु गायत्री चैकतः स्मृता ।। (वृहद् योगी याज्ञ. 4-80)

अर्थात्—‘‘जब ब्रह्माजी ने तराजू के एक पलड़े में चारों वेदों को और दूसरे में गायत्री को रखकर तोला तो गायत्री चारों वेदों की अपेक्षा भारी सिद्ध हुई।’’ यहां माता और पुत्रों की तुलना में माता की गरिमा अधिक भारी सिद्ध करने का तात्पर्य है।

इन्हीं सब विशेषताओं को देखते हुए गायत्री को धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के चारों फल करने वाली—पाप, ताप, शोक, संताप, निवारिणी कहा गया है। उसे सर्वोपरि साधना बताया है।

स्कन्द पुराण में महर्षि व्यास का कथन है— गायत्र्येव तपो योगः साधनं ध्यान मुच्यते । सिद्धिनां सामता माता नातः किंचिद् वृहत्त्रम् ।। —स्कन्द पुराण

गायत्री ही तप है, गायत्री ही योग है, गायत्री ही सबसे बड़ा ध्यान और साधन है। इससे बढ़कर सिद्धिदायक साधन और कोई नहीं है।

भगवान मनु भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हुए कहते हैं—

सावित्र्यास्तु परन्नास्ति । —मनु 2। 83

गायत्री से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। मनुस्मृति में तो इस महान् तत्त्वज्ञान और उपासना की पग-पग पर महत्ता प्रतिपादित की गई है। कुछ उद्धरण इस प्रकार है—

जप्येमैव तु संसिध्येद् ब्राह्मणो नामसंशयः । कुर्यादन्यन्त वा कुर्यान्मैमो ब्राह्म उच्यते ।। (मनु. 2। 87)

अर्थात्—गायत्री उपासना समस्त सिद्धियों की आधारभूत है, गायत्री उपासक अन्य कोई अनुष्ठान न करे तो भी सबसे मित्रवत आचरण करता हुआ ब्रह्म को प्राप्त करता है क्योंकि जप से उसका चित्त ब्राह्मी चेतना की तरह शुद्ध व पवित्र हो जाता है।

पूर्वा सध्यां जपस्तिष्ठेत्सावित्रीयार्क दर्शनात् । पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्ष विभावनात् ।। (मनु. 2।10)

हे तात! प्रातःकाल सूर्योदय के पूर्व से सूर्योदय तक खड़ा होकर गायत्री का जप करने वाला, सायंकाल तारों के निकलने तक बैठकर जप करने वाले उपासक भौतिक और आध्यात्मिक समृद्धि के अधिकारी बनते हैं।

अपां समीपे नियतों नैत्यिकविधिमास्थितः । सावित्रीमण्य धीयति गत्वाण्यंसमाहितः ।। (मनु. 2।202)

अर्थात्—नगर की अशान्ति से दूर वन में किसी सरोवर के समीप जाकर की गई गायत्री उपासना से मन की एकाग्रता और असीम शान्ति का लाभ मिलता है।

गायत्री मात्र सारोऽपि वरविप्रः सुर्यान्मतः । नायन्त्रितस्त्रिवेदोऽपि सर्वांशी सर्व विक्रयी ।। (मनु. 2।118)

अर्थात्—केवल गायत्री की उपासना करने वाला संयमी पुरुष सर्वभक्षी, सब कुछ बेचने वाले वेदपाठी ब्राह्मण से भी श्रेष्ठ कहलाता है।

एतदक्षरमेतां च जपन् व्याहृति पूर्विकाम् । सन्ध्योर्वेदविडिप्रो वेद पुष्येन युज्यते ।। (मनु. 2।78)

अर्थात्—ओंकार और व्याहृति पूर्वक दोनों संध्याओं के समय गायत्री उपासना करने वाले को स्वयं ही वेद ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

योऽधीतेऽहन्य हन्येतां त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः । स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूतः खंमूर्तिमान् ।। (मनु. 2।82)

अर्थात्—यदि उपासक तीन वर्षों तक निरालस्य नियम पूर्वक गायत्री मन्त्र का जप करता है तो वह वायु और विराट् आकाश में व्याप्त चेतना को भली प्रकार जान लेता है और परमात्मा को प्राप्त करने का अधिकार पा लेता है। गीता में कहा गया है—

गायत्री छन्दसामहम् । (अ. 10।35) छन्दों में गायत्री छन्द मैं हूं। गायत्री पर देवतेति गदिता ब्रह्मैव चिद्रूपिणी ।। गायत्री पुरश्चरण प.

गायत्री परम श्रेष्ठ देवता और चित्तरूपी ब्रह्म है, ऐसा कहा गया है।

गायत्री वा इदं सर्वभूतं यदिदंकिच । छान्दोग्योपनिषद् यह विश्व जो कुछ भी है व समस्त गायत्रीमय है। गायत्री प्रत्यग्ब्रह्मैक्य वोधिका । शांकरभाष्य गायत्री प्रत्यक्ष अद्वैत ब्रह्म की बोधक है।

शास्त्रों, पुराणों में इस तरह के असंख्यों उदाहरण भरे पड़े हैं जिनमें गायत्री को भारतीय संस्कृति की जननी, परम उपास्या कहा गया है। यही नहीं गायत्री की उपासना न करने वालों की निन्दा, भर्त्सना भी की गयी है। उपरोक्त प्रतिस्थापनायें निःसन्देह बहुत महत्त्वपूर्ण थीं, जब तक इनका परिपालन हुआ देश में भौतिक और अध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से विश्व शिरोमणि रहा। इस महाशक्ति से वंचित हो जाने पर ही देश की नीवें खोखली हो गयीं। उन्हें सुदृढ़ बनाने के लिए गायत्री उपासना को व्यापक बनाया जाना अनिवार्य है।
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