सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र

गायत्री गंगा की अनेक धाराएँ

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गायत्री यों चारो वेदों में पाया जाने वाला एक महामंत्र है, जिसमें शिक्षात्मक प्रेरणा इनती ही है कि बुद्धि को शुद्ध रखा जाय । यही वह केन्द्र है जहाँ उत्थान-पतन के अंकुर उगते हैं । यदि बुद्धि भ्रमित हो जाय, निकृष्टता की दिशा में चल पड़े तो फिर समझना चाहिए कि आधि-व्याधियों का घटाटोप सिर पर घुमड़ने ही वाला है । इसलिए समस्त शास्त्रों और धर्म दर्शनों का सार तत्त्व गायत्री मंत्र में सन्निहित समझा जा सकता है ।

मान्यता, भावना, विचारणा, आकांक्षा और क्रिया तत्परता की पृष्ठभूमि बुद्धि के आधार पर मनुष्य उत्कृष्टता, निकृष्टता अपनाता और ऊँचा उठता, नीचे गिरता है । अस्तु मानवी सम्पदाओं में बल, वैभव, पद, अधिकार, शिक्षा, कौशल आदि सभी की तुलना में सदबुद्धि को सर्वोपरि माना गया है और कहा गया है कि अपनी नहीं अपने समाज संसार की विचारणा को उच्चस्तरीय बनानें में प्रयत्नरत रहना चाहिए ।

यह गायत्री का ज्ञान पक्ष है । दूसरा है-विज्ञान पक्ष । जिसके अनुसार गायत्री सविता देवता की प्राण चेतना, जड़ चेतना, सृष्टि की नियंत्रण कर्त्री आद्यशक्ति है । यह उत्पादन कर्म में ब्राह्मी, अभिवर्धन में वैष्णवी और परिवर्तन-क्रम में शाम्भवी मानी जाती है । उसे वेदमाता, देवमाता और विश्वमाता भी कहा गया है । महाप्रज्ञा के रूप में वेदमाता, उपासक के चरित्र में दिव्यता भर देने के कारण देवमाता है । जिसका कार्य क्षेत्र, प्रभाव क्षेत्र समूचा संसार है । इसलिए उसे विश्वमाता कहा गया है ।

गायत्री की योग धारा भी है और तंत्र धरा भी । योगधारा के अवगाहन से सप्त ऋषियों का परिकर विभूतिवान बना था और रावण, कालनेमि जैसों ने उसे अघोर-क्रम से अपनाकर दैत्य स्तर की, सशक्ता प्राप्त की थी । विश्वामित्र ने इन दोनों धाराओं को गायत्री सावित्री नाम से दमन और सद्भाव संवर्धन के निमित्त भगवान राम को प्रशिक्षण किया था ।

सामान्य-जन उसकी उपासना मनोकामना पूर्ति और बाधाओं की निवृत्ति के लिए करते हैं । यह सर्वविदित परिचय है । गायत्री का सूक्ष्म परिचय प्राप्त करने के लिए अधिक गहराई में उतरने की आवश्यकता है । जिस प्रकार शुक्राणु में, एक व्यक्ति का स्वस्थ बुद्धिकौशल प्रतिभा आदि सभी कुछ सन्निहित रहता है ।

बीज में वृक्ष का कलेवर, पुष्पों की बनावट, फलों का स्वाद एवं आयु विस्तार आदि की सारी विशेषताएँ सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहती हैं, उसी प्रकार गायत्री महामंत्र के २४ अक्षरों में से विभिन्न स्तर की विभूतियाँ, विशिष्टताएँ, ऋषियाँ-सिद्धियाँ समाविष्ट हैं । उन सब के समन्वय से ही एक पूरा गायत्री मंत्र बनता है ।

दत्तात्रेय की गुरु खोज जब पूरी नहीं हुई तो वे प्रजापति के पास गये और प्रामाणिक गुरु उपलब्ध करने के लिए उनसे र्निदेश चाहा । उन्होंने उन्हें २४ गुरु के लिए कहा । अलंकारिक रूप से उन्हें चित्र-विचित्र जीव-जन्तु भी कहा
गया है, पर वस्तुतः वे गायत्री के २४ अक्षर ही हैं, जिनका अवगाहन करके वे महर्षि से अवतार स्तर पर पहुँचने में समर्थ हुए ।

गायत्री में २४ अक्षर हैं । इनमें से प्रत्येक अक्षर एक-एक देवता, एक-एक देवी, एक-एक अवतार, एक-एक ऋषि अपने कलेवर के साथ जोड़े हुए हैं । इन सबके समुच्चय को ही समग्र गायत्री मंत्र माना जाना चाहिए । यों देवताओं, देवियों, अवतारों, ऋषियों की संख्या गिनते हुए मत विशेष से वे न्यूनाधिक भी हो जाते हैं । किन्तु मनीषियों के तथा शास्त्रकारों के बहुमत को लिया जाय तो वह संख्या चौबीस ही होती है । इस प्रकार अध्यात्म जगत में वह जो कुछ सारतत्त्व है, उसे इन माध्यमों से गायत्री में केन्द्रीभूत समझा जा सकता है ।

मनुष्य के काय कलेवर में २४ विशेष केन्द्र हैं । षट्चक्र यंत्र कोष का विस्तार उन्हीं २४ केन्द्रों के अंतर्गत आ जाता है ।
स्थूल शरीर में ही सूक्ष्म शरीर भी गुँथा हुआ । जिस प्रकार प्रत्यक्ष अंग-अवयव होते हैं, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर में भी विशिष्ट शक्ति केन्द्र होते हैं । नदी से भँवर एवं तेज गरम हवा में चक्रवात बनते देखे जाते हैं, उसी प्रकार सूक्ष्म शरीर में भी ऐसे भ्रमर पड़ते हैं, जिन्हें शक्ति केन्द्र की उपमा दी जा सकती है । इन्हें निर्झर भी कहा गया है । झरनों से जिस प्रकार धाराएँ स्रवित होती हैं, उसी प्रकार मनुष्य की प्रतिभा में योगदान देने वाली इन निर्झरणियों को उपत्यिकाएँ कहा जाता है । इन्हें गजमणि, सर्पमणि वाली अग्नि जिहृअएँ भी कहा जाता है ।

हारमोन ग्रन्थियों के सम्बन्ध में शरीर शास्त्री गहराई तक खोज करने में संलग्न हैं । अभी तक उन्हें जो विदित हुआ है उसके अनुसार जीवन में अनेक प्रकार की विलक्षणताओं को चलाने, बढ़ाने, घटाने में इन अन्तः स्रावी ग्रंथियों की महती भूमिकाएँ होती हैं, आकार सौन्दर्य, जीवट, कामोत्तेजन, पराक्रम, आवेश आदि उतार-चढ़ाव हारामोनों की न्यूनाधिकता एवं व्यवस्था व्यतिरेकता के ऊपर निर्भर हैं । इनकी संख्या अभी प्रायः एक दर्जन खोजी गई हैं, लेकिन सम्भावनाएँ बताती हैं कि वे २४ से कम नहीं हो सकतीं कारण कि शरीर और मस्तिष्क में ऐसी विलक्षणताएँ पाई गई हैं जो विज्ञात हारमोनों की परिधि में नहीं आती ।

दूसरी और शरीर में ऐसी ग्रन्थियाँ भी देखी गई हैं, जिनके उद्देश्य और कार्य ठीक तरह समझे नहीं जा सके । इसी प्रकार यह भी अचम्भे का ही विषय है कि कतिपय प्रकार की विलक्षणताओं के सम्बन्ध में यह विदित नहीं हो सका है कि उनका उद्गम कहाँ है? जब इन रहस्यों का पता चलेगा तब जाना जायेगा । कि अविज्ञात और ज्ञात हारमोनों की संख्या मिलकर २४ हो जाती है । यह मान्यता सुनिश्चित है कि हाड़-मास के शरीर में अनेक प्रतिभाओं और विशेषताओं के साथ इन हारमोन ग्रंथियों का गहरा सम्बन्ध है ।

अध्यात्म भाषा में उपत्यिकाएँ उन्हीं को कहते हैं, जिनमें रिसने वाले स्राव रक्त में मिलने हैं और विभिन्न शक्ति संस्थानों सका सींच कर उन्हें पल्लवित, पुष्पित एवं फलित करते हैं ।

इन शक्ति बीजों को प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता । हारमोनों की बनावट तथा उनके स्राव ही देखे समझे गये । पर उनकी क्रिया-पद्धति के रहस्यों का विवेचन विश्लेषण नहीं हो सका, किन्तु अध्यात्म क्षेत्र में इनको बहुत पहले से ही जान लिया गया है । उन्हें बीज की संज्ञा दी गई है और आकृति को कोणात्मक यंत्र बताया गया है ।

तंत्र विज्ञान में अभीष्ट सिद्धियाँ उपार्जित करने के लिए बीज मंत्रों और कोण यंत्रों की रहस्यमयी सामर्थ्य समझी गई है । साथ ही उन्हें जागृत एवं प्रयुक्त करने का विधान भी बताया गया है । बीज और यंत्र उपत्यिकाओ का ही सूक्ष्म रूप है । उपत्यिकाओं का स्थान एवं अता-पता शरीर विच्छेद से एक सीमा तक जाना जा सकता है किन्तु उनके बीज एवं यंत्र दृश्य नहीं हैं, उन्हें दिव्य नेत्रों एवं सूक्ष्म विज्ञान के आधार पर ही जाना जा सकता है ।

मंत्र विज्ञान, तंत्र विज्ञान एवं यंत्र विज्ञान को साधना जगत की त्रिविध विशिष्टताएँ समझा जा सकता है । मंत्र विज्ञान में शब्द शक्ति का प्रयोग है । मंत्र के अक्षरों का अनवरत जप करते रहने से उनका एक चक्र बन जाता है और उनकी सुदर्शन चक्र जैसी गति विद्युतीय चमत्कारों में परिणत होती है । मंत्र शब्द बेधी बाण की तरह काम करते हैं । अभीष्ट लक्ष्य को बेधते हैं ।

तंत्र प्रकारान्तर से कुण्डलिनी विज्ञान है । उसमें प्राण ऊर्जा को प्रचण्ड किया जाना है और किन्हीं व्यवधानों की तोड़ मरोड़ में उनका प्रयोग किया जाता है । मारण, मोहन, उच्चाटन, बेधन, वशीकरण आदि में उनकेक प्रयोगों को कार्यान्वित किया जाता है । सम्मोहन और विनष्टीकरण तंत्र के यही दो मूल प्रयोजन हैं ।

तांत्रिक अघोर साधना करके अपने मन, शरीर के विद्युतीय क्षेत्र को इस स्तर का बना लेते हैं कि चाहें तो किसी का प्राण हरण भी कर सकें । असुर समुदाय में तंत्र विधि को ही अपनाया जाता रहा है । दैत्यों के क्रिया-कलाप प्रायः आक्रामक रहे हैं । इसके लिए वे अपने साधारण शरीरों में वेधक और मारक क्षमता का उत्पादन तंत्र साधना से ही करते रहे हैं । उन्हें कुण्डलिनी शक्तिभण्डार से अभीष्ट प्रयोजनों के लिए उतना आधार मिलता है, जितना कि समय-समय पर प्रयोजन विशेष के लिए आवश्यकता पड़ती रहती है ।

तंत्र में आसन, बंध, मुद्राएँ अभ्यास में उतारनी पड़ती हैं । इन तीनों की ही संख्याएँ और अगणित हैं किन्तु गायत्री का तंत्र-पक्ष सावित्री यदि सिद्ध करना हो तो २४ आसन, २४ मुद्राएँ प्रयोग में लानी पड़ती हैं । २४ मुद्राएँ प्रसिद्ध हैं । बंधों की मोटी जानकारी तीन तक सीमित है । किन्तु विशेषज्ञों को विदित है कि उनके भी भेद उपभेद २४ की संख्या तक पहुँचते हैं । हटयोग में आसन तो ८४ तक पहुँचते हैं, पर तंत्र प्रयोजन में उनमें से २४ की एक अतिरिक्त श्रृंखला है तांत्रिकों का काम २४ से ही चल जाता है ।

गायत्री के २४ अक्षरों तंत्र प्रयोग में २४ बीज, २४ मंत्र, २४ आसन, २४ बंध, २४ मुद्राओं के रूप में जाने जाते हैं इन्हें करने से पूर्व नेति, धौति, वस्ति, वज्रोली, कपाल, भीति आदि षट्क्रमों के द्वारा नाड़ी शोधन की आवश्यकता पड़ती है ।
योग मार्ग में प्राणायाम और ध्यान दो ही प्रमुखता है । मंत्र योग स्वतंत्र है । उसे वाक् विद्या के नाम से जाना जाता है । मंत्र की शक्ति सहस्र चक्र ब्रह्मरंध्र विचारों आदि के सम्मिश्रण से उद्भूत होती है । किन्तु योग साधना के लिए प्राणायाम और ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है । प्राणायामों का अपना संसार और अपना विस्तार है पर उनमें से गायत्री मार्ग अपनाने वाले के लिए २४ ही छाँटे हुए अलग है । महामंत्र के २४ अक्षर भी हैं । इसी अनुपात से २४ प्राणायामों का भी निर्धारण हुआ है ।

ध्यान के राजमार्ग के साथ अनेक पगडण्डियाँ जुड़ती हैं । नादयोग भी प्रकारान्तर से ध्यान ही है । सोहम् साधना की श्वास-प्रश्वास क्रिया तो होती है, पर ध्यान सोहम् की सूक्ष्म ध्वनि पर ही केन्द्रिरत रहता है । भक्तियोग में इष्टदेव दर्शन का पूरा प्रकरण ध्यान पर ही आश्रत है । ध्यान की परिपक्वा ही जब समग्र हो जाती है तो निर्धारित इष्टदेव के प्रत्यक्षत दर्शन होने लगते हैं । हृदय गुफा में अंगुष्ठ मात्र ज्योति का आभास भी इस प्रकार दिखने लगता है । मानों उसका साक्षात्कार ही हो रहा हो । इष्टदेव भी अपनी धारण या भावना के अनुरूप आकार प्रकार धारण करके प्रकट होते हैं । यह ध्यान की समग्रता का ही चमत्कार है ।

ध्यान में एकाग्रता की प्रमुख भूमिका रहती है । त्राटक आदि के सहारे दिव्य नेत्र खोले जाते हैं और उससे अपनी ही सत्ता अनेक गुनी हो जाती है । छाया पुरुष साधना में आत्मसत्ता को द्विगुणित हुई देखा जाता है । पंच मुखी गायत्री की पंचकोशीय साधना में अपने में ही पाँच-पाँच स्वतंत्र इकाइयाँ विकसित हो जाती है । यह उच्चस्तरीय गायत्री साधना की चमत्कारी परिणतियाँ हैं । ये पाँचों एक ही समय में अपनी-अपनी क्षमता के अनुरूप काम करती देखी जा सकती हैं ।

ध्यान में सर्वप्रथम छवि मात्र का आभास होता है । किन्तु मनायोग की गहनता में उनमें प्राण प्रतिष्ठा भी हो जाती है और वह छवि एक सजीव देव-दानव की तरह र्निदेश का पालन करने लगती है । यह योगमार्ग है । योग आद्यशक्ति गायत्री का प्रथम पक्ष है एवं तंत्र सावित्री शक्ति क द्वितीय पक्ष । उच्चस्तरीय साधना अनुष्ठानों में सावित्री-गायत्री महाशक्ति के इस विवेचन को ध्यान में रखकर ही साधना करनी चाहिए ।

(सावित्री कुन्डलिनी एवं तंत्र- पृ-1.9)



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