सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र

महाकाल की महाकाली सावित्री

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गायत्री महाशक्ति का उपयोग दक्षिणमार्गी भी है और वाममार्गी भी । दक्षिण मार्ग, अर्थात् सीधा रास्ता शुभ लक्ष्य तक ले जाने वाला रास्ता । वाम मार्ग माने कठिन रास्ता-भयानक लक्ष्य तक ले पहुँचने वाला रास्ता ।

चाकू के दोनों ही प्रयोग हो सकते हैं-कागज काटने, पेन्सिल बनाने, फल काटने आदि के उपयोगी कार्यों के लिए भी और किसी को चोट पहुँचाने, अंग-भंग करने, प्राण लेने के लिए भी । यह प्रयोक्ता की समझ और चेष्टा के ऊपर निर्भर है कि वह उसका किस प्रकार उपयोग करे ।

गायत्री का दक्षिण मार्गी प्रयोग हमने सीखा और सिखाया है । वह व्यक्तियों को परिष्कार करती है । जन-स्तर को ऊँचा उठाना एक बहुत बड़ा काम है । वह सदा सर्वदा प्रयोग करने योग्य है । उसमें लाभ-ही लाभ है । भले ही वह समग्र विधान के अभाव में सीमित प्रतिफल प्रस्तुत करें, पर उसमें किसी प्रकार की हानि की, प्रतिकूल परिणति की आशंका नहीं है ।

माचिस का प्रयोग भी चाकू जैसा ही है । उससे आग जलाकर शीत से बचने, भोजन पकाने, शतपुटी आयुर्वेदीय रसायनें-रस भस्में बनाने जैसे उपयोगी कार्य भी हो सकते हैं और ऐसा भी हो सकता है कि उसी माचिस से घर में आग लगा के समूचे गाँव को भस्म कर दिया जाय । आग लगाकर आत्महत्या भी की जा सकती है और किसी दूसरे का प्राण हरण भी हो सकता है ।

गायत्री के तांत्रिक प्रयोग भी हैं । देवी भागवत में गायत्री तंत्र का एक स्वतंत्र प्रकरण भी है । विश्वामित्र कल्प में उसके विशेष विधानों का वर्णन है । लंकेश तंत्र में भी उसकी विधियाँ हैं, पर हैं वे सभी संकेत मात्र । तांत्रिक प्रयोगों को गोपनीय इसलिए रखा जाता है कि उसे कुपात्र की जानकारी में पहुँचा देने से भस्मासुर जैसे संकट बताने सिखाने वाले के लिए खड़े किये जा सकते हैं ।

द्रोणाचार्य ने जिन शिष्यों को बाण विद्या सिखाई थी, उन्होंने उसी शिक्षा के सहारे शिक्षक का ही कचूमर निकाल दिया । इसलिए उसके प्रयोगों को, विधानों को गुरु परम्परा में ही आगे बढ़ाया जाता है, ताकि पात्रता की परख करने के उपरांत ही शिक्षण का प्रयोग आगे बढ़े ।

रावण वेदों का विद्वान था । उसने चारों वेदों के भाष्य भी किये, जिनमें से कोई-कोई भाग अभी भी मिलते हैं, पर उसने वेदमाता गायत्री का वाम मार्ग अपना कर उसे अनर्थकारी प्रयोजनों में ही लगाया, स्वार्थ ही साधे, सोने ही लंका बनाई, पारिवारियों को अपने जैसा ही दुष्ट बनाया, देवताओं को सताया, मारीच को वेश बदलने की विद्या सिखाकर सीताहरण का षड्यंत्र बनाया । इन तात्कालिक सफलताओं को लाभ लेते हुए भी अंततः अपना सर्वनाश किया और अनेकों ऋषि-मुनियों को त्रास देने में कोई कमी न रखी । यही है तंत्र मार्ग-वाममार्ग । यह मनुष्य की अपनी इच्छा है कि शक्तियों को सत्प्रयोजनों में लगाये या अनर्थ के लिए प्रयुक्त करे ।

तंत्र मार्ग एक प्रकार की भौतिक है । उसकी परिधि भी सीमित है और प्रयोग भी कुछ दुर्बल स्तर के लोगों पर ही हो सकता है । बहेलिये, लोमड़ी, खरगोश, कबूतर जैसे प्राणियों पर ही घात लगाते हैं । उनकी हिम्मत शेर, बाघ, चीते, घड़ियाल जैसे जानवर पकड़ने की नहीं होती । उनकी खाल की कीमत भी बहुत मिल सकती है, पर साथ में जान जोखिम का खतरा भी है । इसलिए प्रहार दुर्बलों पर ही होते हैं । जाल में वे ही फँसते हैं ।

तांत्रिक प्रयोग भी मनस्वी लोगों पर नहीं चलते । उनकी तेजस्विता से टकराकर वापस लौट आते हैं । ऐसा न होता हो हिटलर, मुसेलिनी जैसे खलनायकों को तो किसी तांत्रिक से ही मार दिया होता । पुरातन काल में तंत्र प्रचलित था । पर वह वृत्रासुर, महिषासुर, हिरण्यकश्यपु जैसों पर नहीं चला । हीन मनोभूमि के लोग उसे गुलेल की तरह दुर्बल प्राणियों को आहत करने में ही प्रयुक्त करते हैं । हिप्नोटिज्म में भी दुर्बल मन वाले लोग ही प्रभावित होते हैं ।

तंत्र के अनेक माध्यम हैं । उन्हीं में एक गायत्री तंत्र भी है । उसकी साधना किसी व्यक्ति विशेष को ही हानि पहुँचा सकती है । व्यापक क्षेत्र में उसका प्रयोग नहीं हो सकता । मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन आदि प्रयोगों के तंत्र विधान हैं । इनमें किसी व्यक्ति विशेष को कठिनाईयों में फँसाया जा सकता है, प्रतिशोध लिया जा सकता है, पर ऐसा कुछ नहीं जिसमें किसी को ऊँचा उठाने, आगे बढ़ाने या संकट से उबारने का उच्चस्तरीय प्रयोजन पूरा हो सके ।

गायत्री त्रिपदा है । दक्षिण मार्ग में उसका यही स्वरूप प्रयुक्त होता है । ब्राह्मी, वैष्णवी, शम्भवी के रूप में, वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता के रूप में उसका तत्त्वज्ञान हृदयंगम किया जाता है और विधान अपनाया जाता है । किन्तु जब उसका तांत्रिक प्रयोग करना होता है तो वह नाम रूप नहीं रहता । तब उसे त्रिपुरा या 'त्रिपुर भैरवी' कहते हैं । यह शिव के भूत-पिशाचों में सम्मिलित है । इसे 'रोद्री' या 'चण्डी' कहते हैं । यह तमोगुणी शक्तियाँ हैं और अनर्थ करने में ही समर्थ हैं । रक्तपात में ही उन्हें मजा आता है, किन्तु साथ ही यह जोखिम भी है कि वह तनिक-सी भूल हो जाने पर अपना क्रोध उलटकर प्रयोक्ता पर ही निकाल दे और उसे उन्मादी, उद्वत, अपराधी स्तर का बना दें ।

दूसरे को हानि पहुँचाने वाले, प्रयोग उलटा पड़ने पर स्वयं भी कम जोखिम नहीं उठाते हैं । व्यभिचारी जूतों से पिटते, हत्यारे फाँसी पर चढ़ते और उदण्ड घूँसे का जवाब लाठी से प्राप्त करते देखे गये हैं । इसलिए तंत्र साधना को प्रोत्साहन नहीं दिया गया, उसे गोपनीय रखा गया है ।

बन्दूक की गोली आगे को चलती है, पर चलते समय पीछे को धक्का भी मारती है । यदि चलाने वाला अनाड़ी हुआ तो अपनी हँसली की हड्डी तोड़ लेता है । ऐसे लोग निन्दा के पात्र तो बनते हैं ही, उनका कोई सच्चा मित्र नहीं बनता, क्योंकि डर लगा रहता है कि अलौकिक व्यक्ति तनिक से कारण पर मित्र से शत्रु बन सकता है, आज सहयोगी है, कल अनर्थ करने पर उतारू हो सकता है । इसलिए गायत्री उपासकों से दक्षिण मार्गी साधना करने और माता जैसा स्नेह-दुलार का रिश्ता बनाने के लिए कहा गया है ।

गायत्री के तांत्रिक प्रयोगों में ब्रह्माण्ड, ब्रह्मस्त्र और ब्रह्मशीर्ष के प्रयोग का वर्णन आता है । दण्ड कहते हैं । लाठी को या प्रताड़न को । ब्रह्मदण्ड का प्रयोक्ता किसी को आर्थिक, पारिवारिक, शारीरिक, मानसिक क्षति पहुँचा सकता है । डण्डे से पीटने की तरह या न्यायधीश द्वारा दिये गये जेल जुर्माने की सजा की तरह । ब्रह्मास्त्र इससे बड़ा हथियार है । वह व्यर्थ नहीं जाता । उसमें सिंह से लड़ने जैसा पराक्रम और जोखिम उठाना पड़ता है ।

मेघनाथ ने लक्ष्मण जी पर ब्रह्मास्त्र का ही प्रहार किया था । कोई दूसरा होता तो निश्चय ही जान से हाथ धो बैठता । स्वयं शेष जी के अवतार होने तथा सूखेन वैद्य और हनुमान जी द्वारा संजीवनी बूटी की व्यवस्था करने पर ही उनके प्राण बच सके ।

ब्रह्मशीर्ष दुर्बुद्धि उत्पन्न करने से काम आता है । जिस पर यह प्रयोग होता है वह सन्मार्ग छोड़कर कुमार्ग अपनाता है, दुर्बुद्धि का आश्रय लेता है । हर आक्रमणकारी आरम्भ में सामने वाले के असावधान होने के कारण उसके उठा लेता है पर जब लोकमत और शासन उसके विरुद्ध पड़ता है तो सांसारिक क्षति भी कम नहीं उठानी पड़ती ।

इसके अतिरिक्त ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था का अपना विधान है, उससे किसी का बच निकलना नितान्त असम्भव है । देर भले ही लगे पर अनाचारी अपने कुकृत्य का फल अवश्य पाते हैं । देर हो सकती है, पर इस विश्व व्यवस्था में अन्धेर नहीं है । इसलिए तंत्र विज्ञान को गोपनीय ही रखा गया है और चाहे जिसके हाथ में थमा देने का निषेध किया गया है । रिवाल्वर को खिलौने की तरह खेलने के लिए नहीं दिया जा सकता ।

विज्ञान का प्रत्येक पक्ष हर किसी के लिए खुला नहीं होता । अणु बम बनाने वाले देश उसके रहस्यों को दूसरे देशों को बताने के लिए तैयार नहीं होते । उसे नितान्त गोपनीय रखते हैं । अमेरिका स्टार वार की तैयारी वाले अस्त्र बना रहा है, पर उनकी प्रक्रिया इतने गोपनीय रखी जा रही है कि रूस को या अन्य किसी देश को उसकी जानकारी न मिल जाय । इसलिए काम करने वाले वैज्ञानिकों की भी इतनी चौकीचारी रखी जाती है कि उनका कोई देश अपहरण न कर ले अथवा किसी रीति से उनके निर्माण कि विधि जानकर उसकी वरिष्ठता छीनकर समानता की प्रतिद्वन्द्विता न करने लगे ।

तंत्र ऐसा ही गोपनीय है । उसमें विपक्ष के बलिष्ठ हो जाने और अपने पक्ष की वरिष्ठता छिन जाने का खतरा तो है । एक और भी बड़ी बात है, दरुपयोग करके अपना या पराया अनर्थ न होने लगे । बारूद के गोदाम में किसी प्रकार एक चिनगारी जा पहुँचे तो विरोधी का नहीं, निर्माता एवं संग्राहक का ही अनर्थ होगा ।
बच्चे अपने ही होते हैं । पर उनसे पैसा-आभूषण आदि छुपाते हैं । भेद पूछकर कोई चोर-उचक्का उन्हें लूट सकता है । वे बच्चों के हाथ पड़े तो भी उनसे छिन जाने का या जान का खतरा है । वे लोभ में कोई ऐसी चीज भी खरीद सकते हैं, जिनको या परिवार को भारी हानि सहन करनी पड़े । पैसा चुराकर शराब खरीदी जावे और उसे पीं मरें, तो पैसा भी गया, बालक भी गया और सावधानी न बरतने के कारण अपनी भर्त्सना भी हुई ।

वरदान देने की शक्ति दक्षिण मार्गी साधनाओं से होती है और शाप देने की तांत्रिक विधानों से । दुर्वासा के बारे में प्रसिद्ध है कि वे जरा-जरा सी बात से तुनक कर चाहे जिसको शाप दे डालते थे और पीछे निर्दोषों को कष्ट में डाला और स्वयं बदनाम हुए । तांत्रिक साधना का विधान ही ऐसा है, जिसमें साधक रीति-अनीति का बोध खो बैठता है और अपना दर्प दिखाने के लिए जिस-तिस को छोटे करणों से आक्रोश में भर शाप देने लगता है ।

जिस प्रकार दक्षिण मार्गी साधनाओं में गायत्री महाशक्ति को धारण करके पात्रता विकसित करने के लिए अधिक से अधिक पवित्र और मानसिक बनना पड़ता है । उसी प्रकार तांत्रिकों को क्रूर कर्म करने के लिए स्वयं भी क्रूर-अनाचारी बनना पडता है, ताकि उस प्रयोग को करते समय में आत्मग्लानि न उठे । आत्मा को दबाने, दबोचने और अपवित्रता, दुस्साहसिकता से भरे-पूरे की तंत्र साधना के प्रयोग पहले साधक को अपने ऊपर करने पड़ते हैं ।

हत्यारे अक्सर उस क्रूर कर्म को करने से पूर्व डटकर मद्यपान कर लेते हैं, ताकि उस कृत्य को करते हुए आत्मा में करुणा न उपजे और हाथ न रुकें । तांत्रिकी साधना अक्सर श्मशानों में होती है । मुर्दों की चिताओं पर भोजन पकाते-खाते हैं । कापालिक मनुष्य के कपालों में भोजन करते, पानी पीते और मुण्ड-मालाएँ गले में लटकाये रहते हैं । अघोरी मल-मूत्र तक खा जाते हैं, ताकि अनौचित्य के प्रति घृणा भाव समाप्त हो जाय ।

वाम मार्ग में साधक को पंच मकारों का अभ्यास करना पड़ता है- (१) मद्यं, (२) मासं च, (३) मीनं च, (४) मुद्रा (५)मैथुन एवं च । यह पाँचों मकार हेय कर्म हैं । शराब, गाँजा, भाँग आदि तीव्र नशों का सेवन । माँस भक्षण और इस प्रयोजन के लिए देवता के नाम पर पशु-पक्षियों का ही, मनुष्यों तक का वध करना । मछली, मेढ़क जैसे आसानी से मिल सकने वाले प्राणियों की आये दिन हत्या करना और उन्हें भूनते-तलते रहना ।

मुद्रा का एक अर्थ भयंकर आकृति बना कर त्रिशूल जैसे शस्त्र लेकर नग्न नृत्य करना भी और अनीति युक्त धन संग्रह करना भी, ताकि उसके सहारे व्यभिचार-बलात्कार आदि कुकृत्य किये जा सकें । बुद्धकाल में ऐसे वाममार्गी बनाचार शास्त्रों और में ऐसा उल्लेख और जो देवता ऐसे क्रूर कर्म में सहायता करते हैं, उन्हें मान्यता देने से इन्कार कर दिया ।

उस अनाचार को घटाने और मिटाने के लिए अहिंसा धर्म का प्रचार करने के लिए उन्हें संगठित संघर्ष करना पड़ा । यहाँ तक कि देववाद ही नहीं, ईश्वरवाद तक का खण्डन करने, अपने को शून्यवादी तक घोषित करना पड़ा । हमने भी तंत्रवाद से सर्वथा असहयोग रखा है । न सीखा है, न किसी सिखाया है' प्रकारान्तर से यह तांत्रिक मनोवृत्ति अनायास ही लोगों के स्वभाव में बरसात के उद्भिजों की भाँति ही पनप रही है । ऐसी दशा में कहीं तांत्रिक विधान का आश्रय भी मिल जाय, तो स्थिति दुर्गति की चरम सीमा तक जा पहुँचेगी ।

यहाँ स्थिति का स्पष्टीकरण इसलिए करना पड़ा कि सावित्री की सविता की प्रचण्डता देखते हुए कोई उसकी संगति तांत्रिक विधान या विज्ञान के साथ न जोड़ने लगे । सविता परब्रह्म का स्वरूप है और सावित्री उसकी ब्राह्मी शक्ति वह आदि से अंत तक सात्विकता से सराबोर है । किन्तु सार्वजनिक और विशाल-प्रचण्ड कार्यों के लिए उसका प्रयोग आवश्यक हो जाता है ।

इसलिए उस विज्ञान पर प्रकाश डालना पड़ा, उसे पुनर्जीवन देना पड़ा और स्वयं भी उसकी साधना में संलग्न होना पड़ा । इसके बिना हम या हमारे निजी व्यक्तित्व की दृष्टि से कितने ही परिष्कृत क्यों न हों निजी व्यक्तित्व में भले ही स्वर्ग मुक्ति या दूसरों की सीमित भलाई कर सकने वाली शक्ति क्यों न प्राप्त कर लें, विश्व कल्याण एवं युग परिवर्तन के लिए उससे बड़ी शक्ति चाहिए । वही है सविता महाकाल की महाकाली सावित्री ।

(सावित्री कुण्डलिनी एवं तन्त्र: पृ-1.14)




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