सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र

योगसाधना का राजमार्ग

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इन सूक्ष्म शक्ति संस्थानों के जागरण के लिए साधना विज्ञान के अनुसार बन्ध और मुद्राओं का विधान शास्त्रों में मौजूद है ।
गायत्री के २४ अक्षरों से सम्बन्धित इस प्रकार की २४ साधनाएँ प्रसिद्ध हैं ।

१. महामुद्रा, २. नभोमुद्रा, ३. उड्डीयान, ४. जालन्धर, ५. बंध, ६. मूलबंध, ७. महाबंध, ८. विपरीत करणी, ९. योनि मुद्रा, १०. बज्ज्ली, ११. शक्ति चालनी, १२. तडागी, १३. माण्डवी, १४. शांभवी, १५. अश्विनी, १६. पाशिनी, १७. काक्री, १८. मातंगी, १९. भुजंगिनी, २०. पार्थिवी, २१. आपम्भरी, २२. वैश्वानरी, २३. कयवी, २४. आकाशी ।

आठ प्राणायाम-१. सूर्यभेदन, २. उज्जायी, ३. सीत्कारी, ४. शीतली, ५. भस्रिका, ६. भ्रामरी, ७. मूर्छा ८. प्लाविनी ।

यह भी इन्हीं सूक्ष्म संस्थानों के जागरण के लिए है । ८४ प्रकार के योग आसनों से भी यह उद्देश्य पूरा होता है पर यह सब समझने में नए विज्ञान को कुछ देर लगेगी । फिर भी यह आशा की जा सकती है कि आधनिक वैज्ञानिक अपनी खोजों को जारी रखते हुए एक दिन वहीं पहुँचेगे जहाँ बहुत समय पूर्व हमारे ऋषि पहुँच गए थे ।

योग दर्शन के द्वितीय अध्याय में अष्टांग योग साधना की सिद्धियों का वर्णन है । अहिंसा की साधना करने वाले से हिंसक जीव भी बैर त्याग देते हैं । सत्य की आराधना करने वाले के मुख से निकले हुए शाप वरदान सफल होते हैं । अस्तेय वृत्ति धारण करने से बहुमूल्य रत्नों के समान वस्तुएँ उपलब्ध होती हैं । ब्रह्मचर्य का पालन करने से तेजस्विता मिलती है । अपरिग्रह सध जाने पर जन्मजन्मान्तरों का तथा भूत-भविष्य-वर्तमान का ज्ञान हो जाता है । पवित्रता की साधना हो जाने पर घृणा तथा परसंसर्ग से छुटकारा मिलता है । अन्तःकरण की पवित्रता से मन की प्रसन्नता, एकाग्रता, इन्द्रियों पर विजय और आत्म साक्षात्कार करने की क्षमता प्राप्त होती है ।

संतोष धारण करने से सर्वोंत्तम सुख मिलता है । तप साधना से मल दोष दूर हो जाने पर अणिमा, लघिमा, महिमा आदि आठ शारीरिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं । स्वाध्याय से इष्टदेव का साक्षात्कार होता है । ईश्वर प्रणिधान से समाधि लग जाती है । आसन सध जाने से सर्दी गर्मी आदि के द्वन्द्व दुःख नहीं पहुँचते । प्राणायाम से पाप और अज्ञान का आवरण मिटता है । प्रत्याहार से इन्द्रियाँ वश में हो जाती हैं ।

अन्य साधनाओं से अन्य प्रकार की भी अनेक सिद्धियाँ मिलती है अणिमा, महिमा, लघिमा, गरिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, दूरदर्शन, दूर, श्रवण परचित्र विज्ञान, परकाय प्रवेश, आकाशारोहण, मारण, मोहन, उच्चाटन, बशीकरण आदि का वर्णन योग ग्रंथों में मौजूद हैं । वे सभी गायत्री उपासना से संभव है । कहा गया है कि-

गायत्री द्वारा योग साधना के पिपीलिका मार्ग, दादर मार्ग, बिहंगम मार्ग ये तीन मार्ग हैं । इन पर चलने से परा, पश्यन्ती, मध्यमा और बैखरी चारों वाणियाँ प्रस्फुटित होती हैं । अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, आय निवेश यह पाँचों क्लेश दूर होते हैं । जागृत, स्वप्न, सुसुप्ति, तुरीया यह चारों अवस्ताएँ परिमार्जित होती हैं । मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, निशुद्धास्थ, आज्ञाक्र यह छहों चक्र जागृत होते हैं एवं मस्तिष्क के मध्यभाग में व्यवस्थित सहस्रार कमल में ब्रह्म तेज विकसित होने लगता है ।

आकाश, महाकाल, पराकाश, तत्वकाश, सूर्याकाश, इन पाँचों आकाश में उसकी गति विधि विस्तृत होने लगती है । सातों भूमिका में शुभेच्छा, विचारणा तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, पदार्थ, भाविनी, तुर्यगा अपनी नियमित गति विधि से विकसित होती जाती हैं । गायत्री के माध्यम से योग साधना करने वाला साधक योग मार्ग के नौ विघ्नों-व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्ति, अलब्ध भूमिका, अनवस्थिति पर विजय प्राप्त कर लेता है ।
गायत्री ही वह महाशक्ति है जो सारे विश्व का नियंत्रण करती है । उसकी सत्ता से संसार की प्रत्येक क्रिया नियमित रूप से होती रहती है । कठोपनिषद में इसका वर्णन यों आया है-

भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपसि सूर्यः ।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पंचमः॥

जिसके भय से अग्नि तपती है, जिसके भय से सूर्य जलता है, जिसके भय से इन्द्र, वायु और यम दौड़ते रहते हैं ।
ऐसी परम महिमामयी माता का श्रद्धा पूर्वक अंचल पकड़ने वाला साधक क्या नहीं प्राप्त कर सकता है? उसे श्रुति सम्पति मार्ग से उपलब्ध हो सकने वाला प्रत्येक पदार्थ मिल सकता है ।

गायत्रया सर्व संसिद्धि र्द्विजानां श्रुति संमजा ।

अर्थात्-वेद समस्त सारी सिद्धियाँ गायत्री उपासना से मिल सकती हैं ।
अध्यात्मशास्त्रों में उपासनाओं की सार्थकता के लिए उर्वर मनोभूमि बनाने में गायत्री उपासना की असाधारण उपयोगिता बताई गयी है ।

सा गायत्री समिद्धाऽन्यानि छन्दांसि समिन्धे । -शपपथ १/३/४/६

गायत्री के जागृत होने पर अन्य मंत्र जागृत होते हैं ।

प्रारम्भ में हलके काम दिये जो हैं और समर्थता बढ़ने पर बड़े एवं भारी काम सौंपे जाने लगते हैं । गायत्री की सरल जप प्रक्रिया-उपासनात्मक विधि-विधान के साथ जब ठीक प्रकार बन पड़ती है तो साधक के योगाभ्यास सहित उसे करने के लिए कहा जाता है । योग और तप का समन्वय हो जाने से गायत्री कुण्डलिनी बन जाती हैं । योग साधना सहित की गयी गायत्री उपासना का विशेष महत्व है ।

गायत्री संस्मरेद्योगात् स याति ब्रह्मणः परम् ।
गायत्री जप निरतो मोक्षोपायञ्च विन्दति॥

योगाभ्यास सहित जो गायत्री उपासना करता है वह ब्रह्म पर को प्राप्त कर लेता है ।
योग और तप के समन्वय से की गयी गायत्री साधना का, कुण्डलिनी साधना का, महत्व बताते हुए कहा गया है कि-

गायत्र्येव तपो योगः साधनं ध्यान मुच्यते ।
सिद्धीनां सामना माता नात् किंचिद् ब्रह्मत्तरम् ।
गायत्री साधना लोक न कस्यापि कदापि हि ।
याति निष्फलत मेतन् ध्रवुं सत्यं भूतले ।
योगिकानां समस्तानां साधनानां तु वरानने । -गायत्री मंजरी

शिवजी कहते हैं-हे पार्वती, गायत्री ही तप है, योग है, साधना है, ध्यान है । वही सिद्धियों की माता मानी गई है । इससे बढ़कर श्रेष्ठ तत्त्व इस संसार में और कोई नहीं है । कभी किसी की गायत्री साधना निष्फल नहीं जाती । समस्त योग साधनाओं का आधार गायत्री ही है ।

गायत्री की प्रखरता प्राण-शक्ति के समन्वय से प्रकट होती है । वस्तुतः गायत्री गायत्री को प्राण-विद्या ही कहना चाहिए । प्रश्नोपनिषद् के यम-नचिकेता संवाद में जिस पंचग्नि प्राण-विद्या का उल्लेख किया गया है वह गायत्री महाशक्ति में सन्निहित पंच प्राणों के प्रखर बनाने का ही विज्ञान है । यही पंचमुख अथवा सूक्ष्म शरीर के पंच कोश हैं । गायत्री की प्राण-शक्ति को उभारने के लिए ही सावित्री की, कुण्डलिनी की उच्चस्तरीय साधनाएँ की जाती हैं ।

पंचदेव मयं जीव, पंच प्राणमयं शिवं ।
कुण्डली शक्ति संयुक्त, शुभ्र विद्युल्लपोपमम्॥

यह जीव पाँच देव सहित है । प्राणवान होने पर शिव है । यह परिकर कुण्डलिनी शक्ति युक्त है । इनका आकार चमकती बिजली के समान है ।
कुण्डलिनी जागरण का परिचय पंच कोशों की जागृति के रूप में मिलता है ।

कुण्डलिनी शक्तिराविर्भवति साधके ।
तदा स पंच कोशे मत्तेजोऽनुभवति धु्रवम्॥ -महायोग विज्ञान

जब कुण्डलिनी जागृत होती है तो साधक के पांचों कोश ज्योतिर्मय हो उठते हैं । यही वह शक्ति केन्द्र है । जिन्हें सूक्ष्म शक्तियों का भाण्डागार कहा जाता है और जिन्हें उच्चस्तरीय गायत्री-सावित्री साधना द्वारा जागृत किया जाता है ।

(सवित्री कुण्डलिनी एवं तन्त्र- पृ-1.37)


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