गायत्री यज्ञ विधान

यज्ञ में पालन करने योग्य नियम

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(१) विशेष यज्ञ के लिये यजमान तथा आचार्य ब्रह्मा आदि को एक सप्ताह पूर्व से ही ब्रह्मचर्य से रहना आरम्भ कर देना चाहिए ।

(२) यज्ञ के दिनों उपवास पूर्वक फल, दूध, अथवा हविष्यान्न लेकर रहें ।

(३) यज्ञ के दिनों, अपना अधिकांश समय साधना, उपासना, स्वाध्याय, भगवत भजन में ही लगाया जाय । सांसारिक विचार एवं कार्य यथा संभव कम ही किये जावें ।

(४) यज्ञ करने के लिए स्नान करके धुले हुए वस्त्र पहन कर ही बैठने चाहिए । पाजामा अथवा मोजे पहन कर यज्ञ में बैठना निषिद्ध है ।

(५) सम्भव हो तो हवन करने वाले सब लोग कंधे पर पीले दुपट्टे धारण करके बैठें ।

(६) बडे़ यज्ञ में सबको नये यज्ञोपवीत धारण करके बैठना चाहिए ।

(७) सब लोग शान्त चित्त से एकाग्रता पूर्वक यज्ञ भगवान का ध्यान करते हुए हवन करें । इधर- उधर सिर मोड़कर देखना, आँखें नचाना, बीच-बीच में बातें करते जाना, हँसना आदि निषिद्ध हैं । पैरों को ऊपर-नीचे करके आसन तो बदल सकते हैं, पर बैठना पालती मार कर ही चाहिए । घुटने मोड़कर, उकडू, एक ऊपर एक नीचे अथवा अन्य बेढ़ंगे प्रकारों से बैठना वर्जित है ।

(८) हवन पर बैठने के लिये के समय हाथ-पाँव मुँह धोकर बैठें । शरीर पर या जेब में चमडे़ का बना बटुआ आदि कोई वस्तु अथवा तम्बाकू, सिगरेट, पान आदि कोई नशीली चीज नहीं रखनी चाहिए । हो सकें तो हवन के दिनों चमड़े के जूते भी न पहनें क्योंकि आज कल ९९ प्रतिशत चमड़ा हत्या किए हुए पशुओं का ही आता है ।

(९) यज्ञ में भाग लेने वाली महिलाए भी भारतीय वेष-भूषा में रहें, सादा लिवास पहनें, व सिर को ढ़का रखें । रजोदर्शन के दिनों में अथवा जिनका बालक ४० दिन से छोठा हो, उन्हें हवन में भाग नहीं लेना चाहिए ।

(१०) यज्ञ की वस्तुओं को यज्ञ के अतिरिक्त अन्य किसी काम में नहीं लाना चाहिए । हवन की अग्नि, दीपक, जल, पान आदि की सांसारिक कार्यों में लेना उचित नहीं ।

(११) सब लोग एक स्वर से, एक गति से मंत्र बोलें । किसी का कंठ नीचा, किसी का ऊँचा कोई जल्दी, कोई तेजी से बोले, यह ठीक नहीं ।

(१२) सामग्री को कुण्ड में झोंकना नहीं चाहिए और न कुण्ड से बाहर ही बखेरना चाहिए । वैसी सावधानी तथा श्रद्धा पूर्वक थोड़ा आगे झुक कर आहुति छोड़नी चाहिए । अग्नि को देव मानकर उनके आदर का ध्यान करते हुए जैसे भोजन परोसते हैं, वैसे हाथ को ऊपर मुख रख कर आहुति देनी चाहिए ।

(१३) सामग्री पाँचों उँगलियों से नहीं होमी जाती । अँगूठा और तर्जनी को छोड़कर मध्यमा अनामिका, अथवा तीसरी कनिष्ठ को भी मिला कर इन पर सामग्री लेनी चाहिए और अँगूठे का सहारा देकर धीरे से अग्नि में छोड़ना चाहिए ।

(१४) जिस समय मन्त्र के अन्त में स्वाहा उच्चारण हो, उसी समय सबको आहुति छोड़नी चाहिए, पहले पीछे नहीं ।

(१५) घी हवन वाले स्रुवा की पीठ को, घृत पात्र के किनारे से पहले से पोंछ लिया करें, ताकि मेखलाओं पर घी टपकता न जाया करे ।

(१६) घृत की आहुति देने के बाद स्रुवा को लौटाते हुए एक बूँद घी प्रणीता पात्र में टपकाना चाहिए और साथ-साथ इदम् गायत्र्यै इमं न मम्बोलना चाहिए ।

(यज्ञ का ज्ञान-विज्ञान पृ.5.21)

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