गायत्री यज्ञ विधान

यज्ञाग्नि की शिक्षा तथा प्रेरणा

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अग्नि भगवान् के स्थूल रूप का पूजन करने के लिये सुन्दर हवन-सामग्रियों के कुंड रूपी मुख में आहुतियाँ दी जाती हैं । सूक्ष्म पूजन करने के लिए अग्नि रूपी तेजस्वी भगवान् को अपने अन्तःकरण में धारण करना होता है और उनके गुणों को अपनाकर स्वयं अग्नि रूप बनना होता है । अग्नि भगवान् से ऐसी प्रार्थना यजमान करता है कि-

ॐ अयन्त इध्म आत्मा जातवेदसे इध्मस्वचवर्धस्व इद्धय वर्धय । -आश्वलायन गृह्यसूत्र 1/10/17
अर्थात्-हे अग्निदेव, आप प्रदीप्त होओ और हमें भी प्रदीप्त करो । जो गुण आप में हैं, उन्हें ही हम धारण करें, ऐसी प्रार्थना इस मन्त्र में की गई है । अग्नि-यज्ञ का सच्चा उपासक वही कहा जायेगा, जो अपने इष्टदेव में तन्मय होकर उसे समान गुणों वाला बनने का स्वयं भी प्रयत्न करे ।

स्थूल अग्नि की स्थापना और पूजन का स्थान हवन-कुण्ड है, यज्ञ की सूक्ष्म महत्ता को स्थापित करने का वास्तविक स्थान हृदय अन्तःकरण है । उस अग्नि के स्वत्व गुण को धारण करके अपने को अग्नि रूप, अग्नि गुण-सम्पन्न बनाने का प्रयत्न ज्ञानी लोग अपनी ज्ञान-बुद्धि द्वारा करते हैं, तभी उनका जीवन अग्नि रूप यज्ञमय बनता है ।

अविदन्ते अतिहितं यदासीत यज्ञस्यधाम परमं गुहायत् । -ऋग. 1/811
''यज्ञ का वास्तविक निवास स्थान है हृदय रूपी गुफा में । वह वह अत्यन्त गुप्त है । परन्तु ज्ञानी सत्पुरुष उसे प्राप्त कर लेते हैं ।''

यज्ञ को अग्निहोत्र कहते हैं । अग्नि ही यज्ञ का प्रधान देवता हे । हवन-सामग्री को अग्नि के मुख में ही डालते हैं । अग्नि को ईश्वर-रूप मानकर उसकी पूजा करना ही अग्निहोत्र है । अग्नि रूपी परमात्मा की निकटता का अनुभव करने से उसके गुणों को भी अपने में धारण करना चाहिए एवं उसकी विशेषताओं को स्मरण करते हुए अपनी आपको अग्निवत् होने की दिशा में अग्रसर बनाना चाहिए ।
नीचे अग्नि देव से प्राप्त होने वाली शिक्षा तथा प्रेरणा का कुछ दिग्दर्शन कर रहे हैं

(1) अग्नि का स्वभाव उष्णता है । हमारे विचारों और कार्यों में भी तेजस्विता होनी चाहिए । आलस्य, शिथिलता, मलीनता, निराशा, अवसाद यह अन्ध-तामसिकता के गण हैं, अग्नि के गुणों से यह पूर्ण विपरीत हैं । जिस प्रकार अग्नि सदा गरम रहती है, कभी भी ठण्डी नहीं पड़ती, उसी प्रकार हमारी नसों में भी उष्ण रक्त बहना चाहिए, हमारी भुजाएँ, काम करने के लिए फड़कती रहें, हमारा मस्तिष्क प्रगतिशील, बुराई के विरुद्ध एवं अच्छाई के पक्ष में उत्साहपूर्ण कार्य करता रहे ।
    
(2) अग्नि में जो भी वस्तु पड़ती है, उसे वह अपने समान बना लेती है । निकटवर्ती लोगों को अपना गुण, ज्ञान एवं सहयोग देकर हम भी उन्हें वैसा ही बनाने का प्रयत्न करें । अग्नि के निकट पहुँचकर लकड़ी, कोयला आदि साधारण वस्तुएँ भी अग्नि बन जाती हैं, हम अपनी विशेषताओ से निकटवर्ती लोगों को भी वैसा ही सद्गुणी बनाने का प्रयत्न करें ।

(3) अग्नि जब तक जलती है, तब तक उष्णता को नष्ट नहीं होने देती । हम भी अपने आत्मबल से ब्रह्म तेज को मृत्यु काल तक बुझने न दें ।

(4) हमारी देह, ''भस्मान्तं शरीरम्'' है । वह अग्नि का भोजन है । न मालूम किस दिन यह देह अग्नि की भेट हो जाय, इसलिए जीवन की नश्वरता को समझते हुए सत्कर्म के लिये शीघ्रता करें और क्षणिक जीवन के क्षणिक सुखों की निमित्त दुष्कर्म की मूर्खता से बचें । जीवन की गति-विध ऐसी रहे कि किसी समय मृत्यु सामने आ खड़ी हो, देह अग्नि को भेंट करनी पड़ी, तो किसी प्रकार का पछतावा न हो । अग्नि रूपी यमराज का हम नित्य दर्शन एवं पूजन करते हुए उसके साथ आत्मसात् होने की तैयारी करते रहें ।

(5) अग्नि पहले अपने में ज्वलन शक्ति धारण करती हैं, तब किसी दूसरी वस्तु को जलाने में समर्थ होती है । हम पहले स्वयं उन गुणों को धारण करें जिन्हें दूसरों में देखना चाहते हैं । उपदेश देकर नहीं, वरन् अपना उदाहरण उपस्थिति करके ही हम दूसरों को कोई शिक्षा दे सकते हैं । जो गुण हम में वैसे ही गुण वाले दूसरे लोग भी हमारे समीप आवेंगे और वैसा ही हमारा परिवार बनेगा । इसलिये जैसा वातावरण हम अपने चारों ओर देखना चाहते हों, पहले स्वयं वैसा बनने का प्रयत्न करें ।

(6) अग्नि, जैसे मलिन वस्तुओं को स्पर्श करके स्वयं मलिन नहीं बनती, वरन् दूषित वस्तुओं को भी अपने समान पवित्र बनाती है, वैसे ही दूसरों की बुराइयों से हम प्रभावित न हों । स्वयं बुरे न बनने लगें, वरन् अपनी अच्छाइयों से उन्हें प्रभावित करके पवित्र बनावें ।

(7) अग्नि जहाँ रहती है वहीं प्रकाश फैलता है । हम भी ब्रह्म-अग्नि के उपासक बनकर ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैलावें, अज्ञान के अन्धकार को दूर करें । ''तमसो मा ज्योतर्गमय'' हमारा प्रत्येक कदम अन्धकार से निकल कर प्रकाश की ओर चलने के लिये बढ़े ।

(8) अग्नि की ज्वाला सदा ऊपर को उठती रहती है । मोमबत्ती की लौ नीचे की तरफ उलटें तो भी वह ऊपर की ओर ही उठेगी । उसी प्रकार हमारा लक्ष्य, उद्देश्य एवं कार्य सदा ऊपर की ओर हो, अधोगामी न बने ।

(9) अग्नि में जो भी वस्तु डाली जाती है, उसे वह अपने पास नहीं रखती, वरन् उसे सूक्ष्म बनाकर वायु को, देवताओं को, बाँट देती है । हमें जो वस्तुएँ ईश्वर की ओर से, संसार की ओर से मिलती हैं, उन्हें केवल उतनी ही मात्रा में ग्रहण करें, जितने से जीवन रूपी अग्नि को ईंधन प्राप्त होता रहे । शेष का परिग्रह, संचय या स्वामित्व का लोभ न करके उसे लोक-हित के लिए ही अर्पित करते रहें । अग्नि में चाहे करोड़ों रुपयों की सामग्री होमी जाय वह अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए कुछ नहीं चुराती और न पीछे के लिए संग्रह करती है, वरन् तत्क्षण उस सामग्री को सूक्ष्म बनाकर वायु द्वारा लोक-हित के लिए बाँट देती है । वैसे ही हमें जो ज्ञान, बल, बुद्धि, विद्या आदि उपलब्ध हैं, उनका उपयोग स्वार्थ के लिये नहीं, परमार्थ के लिये ही करें ।

(10) जैसी अग्नि हवन कुण्ड में जलती है, वैसी ही ज्ञानाग्नि अन्तःकरण में, तप-अग्नि इन्द्रियों में, कर्म अग्नि देह में, प्रज्जवलित रहनी चाहिए । यही यज्ञ का आध्यात्मिक स्वरूप है ।

(यज्ञ का ज्ञान-विज्ञान पृ. 5.1)
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