(सं. श्री राजकिशोर मिश्र पहियाली)
महाभारत की लड़ाई के उपराँत युधिष्ठिर शोकाकुल थे। धृतराष्ट्र के समझाने के उपराँत श्रीकृष्ण भगवान उनसे कहते हैं—
एव मुक्तन्तु राज्ञा स धृतराष्ट्रेण धीमता। तूष्णीं वभूव मेधावी तमुवा वाथ केशव ॥ 1 ॥ अतीव मनसा शोकः क्रियमाणो जनाधिप। सन्तापयति चैतस्य पूर्व प्रेतान्पिता महान् ॥ 2 ॥
यजस्व विविधैर्यज्ञै र्वहुभिः स्वाप्तदक्षिणैः। देवांस्तर्पय सोमेन स्वधया च पितृनपि ॥ 3 ॥
—महाभारत, आश्वमेधिक पर्व, दूसरा अ.
अर्थ—धृतराष्ट्र के समझाने पर जब मेधावी युधिष्ठिर चुप हो गये तो भगवान् कृष्ण ने कहा—मन ही मन दुःख करने से मृत पूर्वजों को अनुताप होता है, अतः शोक परित्याग कर आप पूरी दक्षिणा वाले विविध महायज्ञों को करके सोमपान द्वारा देवों को एवं स्वधा द्वारा पितरों को तृप्त कीजिये।
यह कहने के उपराँत युधिष्ठिर जी पूछते हैं—
मैं पितामह कर्ण आदि को मार कर अशान्त हूँ अतः—
कर्मणा तद्विधत्स्वेह येन शुध्यति ये मनः। तमे वंवादिनं पार्थ व्यासः प्रोवाच धर्मवित् ॥
महाभारत, आश्वमे. दूसरा अ.
अर्थ—हे भगवान! जिन कर्मों द्वारा मैं इन सब पापों से छूट जाऊँ और मेरा मन पवित्र हो जाय, वह विधान बताइये। यह प्रश्न सुनकर श्री व्यास भगवान उनसे श्रेष्ठ वचन कहने लगे—
आत्मन्यं मन्यसे चाथ पाप कर्माणमन्ततः। शृणु तत्र यथा पापयकृष्येत भारत ॥ 3 ॥
तपोभिः क्रतुभिश्चैव दानेन च युधिष्ठिर। तरन्ति नित्यं पुरुषा ये स्मपापानि कुर्वते ॥ 4॥
यज्ञेन तपसा चैव दानेन च नराधिपः। पुयन्ते नरशार्दूल नरा दुष्कृत कारिणः ॥ 5 ॥
—महाभारत, आश्च. तीसरा अ.
अर्थ—हे भारत! यदि तुम अपने को निश्चित रूप से पापी ही मानते हो तो जिस प्रकार पाप से छूट सकते हो उसका साधन सुनो ॥ 3 ॥
हे युधिष्ठिर! तप, यज्ञ और दान के द्वारा सदा ही मनुष्य गण पापों से छूट जाया करते हैं॥ 4॥
हे नराधिप! यज्ञ, दान और तप से दुष्कर्म करने वाले व्यक्तियों की (पाप से) शुद्धि होती है ॥ 4 ॥
व्यास जी युधिष्ठिर को पाप से मुक्त होने के साधन तौर पर यज्ञादि का निर्देश कर रहे हैं—
असुराश्च सुराश्चैव पुण्यहेतोर्मख क्रियाम्। प्रयतन्ते महात्मानस्तस्माद्यज्ञाः परायणम् ॥ 6 ॥
यज्ञैरैव महात्मानो बभूवुरधिकाः सुराः। ततो देवा क्रियावन्तो दानवानभ्यधर्षयन् ॥ 7 ॥
राजसूयाश्वमेधौ च सर्वमेधं च भारत। नरमेधं च नृपते त्वमाहर युधिष्ठिरः ॥ 8 ॥
महाभारत, आश्व. तीसरा अध्याय
अर्थ—असुर और देवता, दोनों ही पापों के विनाश एवं पुण्यों के संचय के लिये समधिक यज्ञानुष्ठान ही करते हैं, इसी से यज्ञ श्रेष्ठ माना गया है। देवता लोग यज्ञों के द्वारा ही असुरों से अधिक प्रभावशाली बने। यज्ञानुष्ठान में अधिक क्रियावान होने से ही देवों ने असुरों को पराजित कर पाया। अतः हे युधिष्ठिर! तुम भी राजसूय, अश्वमेध, सर्वमेध, नरमेध आदि यज्ञों का अनुष्ठान करो।
राजा जन्मेजय वैशभ्यायन जी से कह रहे हैं—
जन्मेजय उवाच —
यज्ञेसक्तानृपतयस्तपः सक्ता महर्षयः। शान्ति व्यवस्थिता विप्राः शमे दम इति प्रभो॥ 1 ॥
तस्मात् यज्ञफलैस्तुल्यं न किञ्चिदिह दृश्यते। इति में वर्तते बुद्धिस्तदा चैतद संशयम् ॥ 2 ॥
यज्ञै रिष्ट्वा तु बहवो राजानो द्विज सत्तमाः। इह कीर्त्ति पराँ प्राप्य प्रेत्य र्स्वगमवाप्नुयुः ॥3॥
देवराजः सहस्राक्षः ऋतुभिर्भूरि दक्षिणैः। देवराज्यं महातेजाः प्राप्तवानखिलं विभु ॥ 4 ॥
—महाभारत, आश्वमेधिकपर्व 91 वाँ अ.
अर्थ—राजा जनमेजय ने कहा—हे ब्रह्मन्! जब राजा लोग यज्ञ, महर्षिगण तप और विप्रगण शम, दस, एवं शान्ति करने में समर्थ है तब मेरी बुद्धि में ऐसा निश्चय होता है कि इस विश्व में यज्ञ फल से श्रेष्ठ और कुछ भी नहीं है ॥ 1-2 ॥
हे द्विजसत्तम! अनेक राजाओं ने यज्ञ के द्वारा ही इस लोक में परम यश एवं मरणोपराँत स्वर्ग की प्राप्ति की है ॥ 3 ॥
महातेजस्वी देवराज इन्द्र ने भी दक्षिणायुत अनेकों यज्ञ करके ही सम्पूर्ण देव-लोक के राज्य की प्राप्ति की है।
स्वर्गापवर्गौ मानुष्या त्प्राप्नुवन्ति नरामुने। यञ्चाभिस्नचितं स्थानं तद्यान्ति मन जाद्विजः ॥9॥
श्री वि. पु. प्रथम अंश अ. 6
अर्थ—यज्ञ के द्वारा मनुष्य इस मनुष्य शरीर से ही स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त कर सकते हैं, तथा और भी जिस स्थान की उन्हें इच्छा हो उसको जा सकते हैं।
अहन्यहन्यनुष्ठानं यज्ञानाँ मुनि सत्तम। उपकार करं पुँसाँ क्रियमाणाध शान्तिदम् ॥28॥
श्री वि. पु. प्र. अंश अध्याय 6
अर्थ—नित्यप्रति किया जाने वाला यज्ञानुष्ठान मनुष्यों का परम उपकारक और उनके किये हुए पापों को शान्त करने वाला है।
तामिस्रमन्ध तामिस्रं महारौरवरौरवौ। असिपत्रवनं घोरं कालसूत्रमवीचिकम् ॥ 41 ॥
विनिन्दकानाँ वेदस्य यज्ञ व्याघात कारिणाम्। स्थान मेतत्समाख्यातं स्वधर्मत्यागिनश्च ये । 42।
श्रीवि. पु. प्र. अंश अ. 6
अर्थ—तामिस्र, अन्धतामिस्र, महारौरव, रौरव, असपित्रवन, घोर कालसूत्र और अवीचिक आदि जो नरक हैं, वे वेदों की निन्दा और यज्ञों का उच्छेद करने वाले तथा स्वधर्म विमुख पुरुषों के स्थान कहे गये हैं।
वेद यज्ञमवं रूपमाश्रित्यजगतः स्थितौ
पद्म पुराण 1-30
जगत की संरक्षा के लिए वेद भगवान को यज्ञ रूप धारण करना पड़ा अर्थात् वेद भगवान यज्ञमय हुए।
विष्णुधर्मोत्तरपुराण की कथा है कि इन्द्र वृत्रासुर के मारने से लगी हुई ब्रह्महत्या के भय से भयभीत हुआ जब विषतन्तु में छिप गया तो इन्द्रलोक में अराजकता से दुःखी देवताओं ने प्रभु त्रैलोकनाथ की प्रार्थना की तब भगवान ने कहा-
यजताँ सोऽश्वमेधेन मामेवसुरसत्तमा। अहमेव कारिष्यामि विपाप्मानं विडौजसम्॥
तत्कृता व्रह्म हत्याँ तु चतुर्धा स करिष्याति। अहमशेन याष्यामि भूतलं सुर कारणम्॥
नष्टे च भूतले धर्म स्थापपिष्याम्यहं पुनः। एतत्सर्व यथोदिष्टं देव देवेन शांर्गिणा।
चक्रुः सुरगणाः सर्वे राज्यं चावाप वृत्रहा॥ वि. धर्मोत्तर पु .अ. 24 श्लोक. 25,26,29,30,
अर्थ—हे सुर श्रेष्ठ देवताओं? वह इन्द्र मुझको ही यज्ञ द्वारा यजन करे, मैं ही इन्द्र को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त करूंगा। उस अश्वमेध यज्ञ के करने से इन्द्र ब्रह्महत्या को चार जगह बाँट देगा।
मैं अंशों सहित देवताओं के कारण पृथिवी पर आऊँगा, और धर्म के नष्ट हो जाने पर मैं फिर धर्म की स्थापना करूंगा।
देवाधिदेव शांर्गपाणि भगवान ने ये सब वृत्ताँत जैसा कहा वैसा देवताओं ने किया, और इन्द्र ने ब्रह्महत्या के पाप से छुटकारा प्राप्त किया।
श्री नारदजी उग्रसेन से यज्ञ का महत्व कह रहे हैं-
द्विजहा विश्वहागोघ्नो वाजिमेधेन शुध्यति। तस्मादूरञ्च यज्ञानाँ हयमेधं वदंति हि॥16॥
निष्कारणं नृपपश्रेष्ठ वाजिमेधं करोति यः। ब्रजेत्सुपर्णकेतोः स सदनं सिद्ध दुर्लभम्॥17॥
—गर्ग. सं. अ. ख. 10 अ.7
अर्थ—द्विज हत्यारा, विश्ववधकर्त्ता एवं गौओं को मारने वाला भी अश्वमेध यज्ञ करने से परिशुद्ध हो जाता है। हे नृपश्रेष्ठ! वह यज्ञ निष्काम भाव से जो करते हैं, वे गरुड़ध्वज विष्णु भगवान का लोक प्राप्त करते हैं, जो सिद्धों के लिये भी दुर्लभ है।
तस्मा आप्यनुभावेन स्वेनैवावप्तराघसे। धर्म एव मतिं दत्त्वा त्रिदशास्ते दिवं ययु॥57॥
—भागवत चौथा स्कन्ध अष्टम अध्याय
अर्थ- दक्ष को निज यज्ञादि कर्मों के प्रभाव से स्वतः सब सिद्धियाँ प्राप्त हो गयी थीं, फिर भी भगवान ने यज्ञ समाप्त होने पर “धर्म में तुम्हारी बुद्धि लगी रहे” यह वरदान देकर, पुनः अपने लोक को चले गये।
जब परशुराम जी ने भूमि को क्षत्री-विहीन कर दिया, तो पाप से मुक्त यर्थ यज्ञ संपादित किया यथा—
अश्वमेध महायज्ञ चकार विधिवद्विजः। प्रदद्दौ विप्रमुख्येभ्यः सप्तद्वीपवती महीम्॥
पा. पु., उ. ख. स. अ. 242।78
अर्थ- ब्राह्मण ने महायज्ञ अश्वमेध किया और मुख्य विप्रों के लिये सप्तद्वीप वाली पृथ्वी का दान किया।