विचार क्रान्ति अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता

विचार क्रान्ति अनिवार्य है

    यह समझने और उस संकट की ओर से लौट पड़ने का काम स्वयं अपने विवेक से किया जा सके, तो और भी अच्छा, अन्यथा हितैषियों का कर्तव्य है कि आत्महत्या के लिए उतारू आवेशग्रस्त को बलपूर्वक दबोचकर, औचित्य तक ही सीमित रहने के लिए बाधित किया जाय। आज के ‘‘आस्था संकट’’ से ग्रसित लोगों को, महामारी ग्रसित, विपत्ति झेलने वालों की श्रेणी में गिनते हुए, उन्हें रोग मुक्त करने के लिए यह सभी कुछ किया जाना चाहिए।

प्रकारान्तर से यही है, महान् परिवर्तन प्रस्तुत कर सकने वाली विचार क्रान्ति की रूप-रेखा। लोक-मानस के परिष्कार नाम से भी इसी का उल्लेख होता है। अवांछनीय मान्यताओं, गतिविधियों की रोक-थाम के लिए यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसे सम्पन्न करने के लिए हमें आपत्तिकालीन स्थिति से निपटने जैसी उदार साहसिकता का परिचय देना चाहिए। पड़ोस में हो रहे अग्निकाण्ड के समय मूकदर्शक बने रहना किसी को भी शोभा नहीं देता; विशेषतया उनको, जिनके पास फायर ब्रिगेड जैसे साधन हैं। विवेकशीलता और उदारता से सम्पन्न लोगों के लिए यह अशोभनीय है कि विश्व संकट का समाधान समझते हुए भी, उस संदर्भ में जो सहज ही अपने से बन पड़ सकता था, उससे उपेक्षा दिखाए, अन्यमनस्कता जैसी निष्ठुरता अपनाये।

    बाहरी सहायता से अधिक देर तक, किसी का काम नहीं चल सकता। उससे विपत्ति की वेला में यत्किंचित् सहायता भर मिल सकती है। काम तो अपने पैरों पर खड़े होने से ही बनता है। अपनी भुजाओं का पुरुषार्थ ही निर्वाह साधन जुटाने से लेकर प्रगति पथ पर अग्रसर होने जैसे सुयोग जुटाता है।  रक्तदान से, आहत को तात्कालिक राहत ही दी जा सकती है। जीवित रहने की आशा तभी बँधती है, जब अपना शरीर स्वयं रक्त उत्पादन करने लगता है। मानवी करुणा के नाते अभावग्रस्त की सहायता तो होनी ही चाहिए। किन्तु स्थायी समाधान तभी बन पड़ेगा, जब अपने बल-बूते, अपनी समस्याओ से निबटने की साहसिकता उभरे।

    दानों में सबसे बड़ा दान एक ही है, कि व्यक्ति की प्रस्तुत मानसिकता को झकझोर कर जागृत बनाया जाय। अपनी भूलें सुधारने और अपने भाग्य का निर्माण करने के लिए-साहसिकता अपनाने के लिए सहमत किया जाय। विचार-क्रान्ति में यही किया जाता है,  कि भटकाव के दुष्परिणामों की मान्यताओं को इतनी गहराई तक पहुँचाया जाय, अवांछनीयता अपनाए रहने की स्थिति से पीछा छुड़ा सकने की बात बन पड़े। सुखद संभावनाओं के निकट तक जा पहुँचने के लिए चल पड़ने वाला पौरुष अपनाने के लिए कटिबद्ध होने का उत्साह जगाया जाय।

    अपनी समस्याओं का उत्तरदायी स्वयं को भी मानने और अपना सुधार करने के बाद दूसरों से भी सहयोग की आशा-अपेक्षा करने की बात तो समझने योग्य है; पर इसका कोई औचित्य नहीं कि अपनी प्रतिगामिता को छाती से चिपकाए बैठे रहा जाय और जिस-तिस पर प्रस्तुत कठिनाइयों का दोष मढ़कर किसी प्रकार मन समझा लिया जाय। ईश्वर भी मात्र उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं। इस सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता, भले ही कोई हठवादिता अपनाकर परावलम्बन के आधार पर दिवास्वप्न सजाता रहे। पात्रता की अभिवृद्धि के बिना, उदारचेताओं के अनुदान भी आते-आते कहीं बीच में ही अटक जाते हैं। यही हैं शाश्वत तथ्य, जिन्हें समझने-समझााने के लिए समझदारों को सहमत करना विचार-क्रान्ति की पृष्ठभूमि है। यही है, अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता। इसी में सन्निहित है-सुख, शान्ति और प्रगति के सूत्र सिद्धान्त।


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