जहाँ चाह, वहाँ राह

निस्सन्देह हमारी आकृति मन की छाया मात्र है। विचारों का प्रतिबिम्ब स्पष्ट रूप से चेहरे पर झलकता है। भयभीत होने पर मुँह पीला पड़ जाता है, क्रोध आने पर आँखें लाल हो जाती हैं, स्वप्न से कामेच्छा होने पर स्वप्न दोष हो जाता है, स्वप्न में डर लगने या झगड़ा होने पर मुँह से शब्द निकल पड़ते हैं और हाथ पाँव पटकते हैं, कोई उत्साह होने पर शक्ति से अधिक काम करने पर भी थकान नहीं व्यापती, ब्याह शादी में बिना थके चौगुना काम कर लेते हैं, कोई उत्तेजनात्मक बात सुनकर रोग शैया पर से भी उठ खड़े होते हैं। यह मन की शक्ति है। स्वस्थ आदमी दुख का धक्का लगते ही बीमारों जैसा अशक्त हो जाता है। अपने को बीमार समझने वाले लोग सचमुच बीमार पड़ जाते हैं।

मनोबल या इच्छाशक्ति वह हैं जब एक ही बात पर सारे विचार केन्द्री भूत हो जाएं उसी को प्राप्त करने की सच्ची लगन लग जाय। सन्देह कच्चापन या संकल्प विकल्प इसमें न होने चाहिए। गीता कहती है कि ‘संशयात्मा विनश्यति’ अर्थात् संशय करने वाला नष्ट हो जाता है। पहले किसी काम के हानि लाभ को खूब सोच समझ लिया जाय जब कार्य उचित प्रतीत हो तब उसमें हाथ डालना चाहिये किन्तु किसी काम को करते समय ऐसे संकल्प विकल्प न करते रहना चाहिए कि ‘जाने यह कार्य पूरा होगा या नहीं मुझे सफलता मिलेगी या नहीं, सफलता देने वाला कि निश्चय वह है। जिसकी शक्ति को पहिचान कर नेपोलियन ने कहा था कि ‘असंभव शब्द मूर्खों के कोष में हैं।’ दृढ़ मनोबल और निश्चयात्मक इच्छा शक्ति ही सच्ची चाह है ऐसी चाह के पीछे राह छाया की भाँति दौड़ी फिरती है।

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