मनोभावों से स्वास्थ्य का-उत्थान और पतन

 रचनात्मक कार्य का मूल स्रोत -

जब तक मनुष्य अपनी भीतरी अवस्था का ध्यानपूर्वक विचार नहीं करता और अपने भीतरी शत्रुओं अर्थात् क्रोध, स्वार्थ, चिन्ता, निराशा, संताप को काबू में नहीं करता, जीवन की निराश एवं क्षुद्र क्षुद्र वासनाओं को मन मन्दिर में से नहीं निकाल देता तब तक वह पूर्ण स्वास्थ्य लाभ नहीं कर सकता। अनिष्ट मनोभावों से मुक्ति ही उत्तम स्वास्थ्य का रहस्य है।

जितना ही मनुष्य स्वार्थपरता को छोड़ेगा और अलौकिक बुद्धि, जो बल और योग्यता प्रदान करती है, को विकसित करेगा उतना ही उसके महान् सामर्थ्य जाग्रत होंगे। अंतर्मन की गुप्त शक्तियाँ प्रकट होंगी। अन्तःकरण में कोई भी विचार दृढ़ता से जमाने पर वे मस्तिष्क में दृढ़ता से अंकित हो जाते हैं।

इसके विपरीत अति क्रोध, शोक, चिन्ता से मन की शक्तियों का ह्रास होता है। जब तुम अपने आपको कोसते हो, अनिष्ट मनोभाव के वशीभूत हो जाते हो, चिन्ता करते हो, भयंकर व्याधियों को न्योता देते हो और रक्त को अशुद्ध बना देते हो। तुम्हारे गिरते स्वास्थ्य का कारण तुम्हारे अन्तःकरण की दुर्बलता है। नीच स्थिति ही तुम्हारे अतुल सामर्थ्यों का नाश कर रही है।

हम नित्य प्रति के जीवन में अपने मनोभावों के अनुसार अपनी कार्योत्पादक शक्ति को बढ़ाते या पंगु करते रहते हैं। यदि हम सदा पूर्ण स्वास्थ्य, सुख, शान्ति का आदर्श सन्मुख रखकर उत्तम स्वास्थ्य के लिए प्रयत्नशील हों और यह समझते रहें कि सर्वशक्तिमान परमात्मा के अंश होने से हम आत्मा हैं, तो हमें वह स्वास्थ्य कर शक्ति प्राप्त हो जायेगी जो हमारे अन्तःकरण की निम्न भूमिका में स्थित रोग सम्बन्धी भ्रान्तियों को कमजोर कर देगी।

क्षुद्र मनोभाव से हम अपने स्वास्थ्य को दुर्बल कर डालते हैं। भ्रम व चिन्ता हमें कहीं का भी नहीं छोड़ती है। हमें चाहिये कि अपने मन से अप्रीति कर अस्वास्थ्यकर और बुढ़ापे के विचारों को हटाने का अभ्यास करें, जीवन के कलुषित एवं कष्ट साध्य उपकरणों पर कल्पना को न भड़कने दें, अपने विषय में गर्हित चित्रों की छाया मनः प्रदेश में न प्रवेश होने दे। आप अपने जीवन में जो कुछ भी करें जिस ओर अग्रसर हों, अपने मनोभाव उत्तम रखिए और उन्हें केवल उच्च भूमिका में ही विचरण करने दीजिए।

व्यायाम के समय हमारे मनोभाव-


कितने ही व्यक्ति व्यायाम करते समय अपनी मनोभावनाओं पर किंचित भी ध्यान नहीं देते। वे अपने रग पट्ठों को झटक पटक कर थका डालते हैं, डम्बल एवं मुगदर घुमा फिरा कर पसीने-पसीने हो जाते हैं, घी और बादाम खा-खा कर खूब धन व्यय करते हैं। किन्तु इन सबसे अधिक मूल्यवान वस्तु अपने मनोभावों पर किंचित भी दृष्टि नहीं रखते। उन्हें उचित है कि अपने मनोभावों को भी अपनी शारीरिक उन्नति की कल्पना में लगायें, अपने आप को ऐसे पुष्ट संकेत दें कि रग पट्ठों में द्विगणित वेग से रक्त प्रवाहित होने लगे। अपने उत्तम मनोभावों से जितने अंशों में हम अपनी शारीरिक उन्नति कर सकते हैं। उतनी अन्य किसी बाह्य उपकरण द्वारा नहीं। व्यायाम करते समय यह सोचना चाहिए कि हमारा प्रत्येक अंग सुन्दर एवं सुदृढ़ बन रहा है, अंग-अंग में स्फूर्ति का संचार हो रहा है। नया जीवन, नया जोश, नया उत्साह प्रवेश कर रहा है। हम अधिकाधिक बलशाली बन रहे हैं। अपनी पुरानी कमजोरियों तथा निर्बलताओं को हम क्रमशः छोड़ते जा रहे हैं। हमारा कायाकल्प होता जा रहा है। हम उच्चतर जीवन में प्रविष्ट हो रहे हैं।

इस प्रकार के पुष्ट आत्म-निर्देशों से जितनी शीघ्रता से लाभ होता देखा गया है, उतनी शीघ्रता से घी दूध से नहीं। स्मरण रखिए, स्वास्थ्य के बाह्य उपकरण आपके अर्न्तबल के सहयोग (Co operation) में ही कार्यशील होते हैं। बलों में मनोबल सब का सम्राट है। इस बल को जाग्रत करने पर ही आप जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इस महान बल का उपयोग जीवन के हर पहलू में किया जा सकता है।

निद्रा के समय हमारे मनोभाव-


रात्रि में आपका अव्यक्त मन नई रचना किया करता है। अतः रात्रि में सोने से पूर्व जैसे मनोभाव लेकर हम सोते हैं, उन्हीं के अनुसार हमारा अव्यक्त निर्माण कार्य करता है। यदि हम उत्तम पुष्ट, पवित्र भावनाएँ लेकर निद्रा में प्रवेश करें तो निश्चय ही हमारा अव्यक्त मन (Subcons cious) उत्तम रचना करेगा। जैसे अच्छी या बुरी वासनाएँ लेकर हम सोयेंगे, उनके अनुसार ही शरीर का अणु-अणु निर्मित होगा। जैसे आपका रक्त नाड़ियों में दौड़ता है, वैसे ही आपके मनोभावों की विद्युत निरन्तर रक्त में प्रवाहित हुआ करती है।

निद्रा से पूर्व आप पवित्र से पवित्र मनोभाव रखिये। आप सोचिये कि “मैं महान पिता का परम सामर्थ्यशाली पुत्र हूँ। अतः उन्हीं के अनुरूप सदा आनन्द स्वरूप, षड् गुणैर्श्वय सम्पन्न, सर्वज्ञ एवं सर्व शक्तिमान तथा पूर्ण पवित्र हूँ। मेरे शरीर में किसी का अभाव न होकर मैं नित्य सब भाँति से परिपूर्ण हूँ।” इस प्रकार की भावनाओं में रमण करने से आपका अंतर्मन इन्हें दृढ़तापूर्वक ग्रहण कर लेगा फिर जगत में ऐसी कोई शक्ति नहीं है, जो आपके सुख, शान्ति एवं पूर्ण समाधान का अपहरण कर सके।

मनोभावों पर तीव्र दृष्टि रखिए-

जो भाव प्रकट करोगे, वही अनुभव करोगे
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चिड़चिड़ापन या अस्थिरता की भावनाओं से यकृत को अत्यन्त हानि पहुँचती है और कोष्ठबद्धता उत्पन्न हो जाती है। चिंतित भावनाओं से हृदय पर आघात पड़ता है। इसी प्रकार क्रोध से मन में भयंकर प्रभाव पड़ता है। इसके विपरीत हँसी खुशी की भावनाओं से शरीर का प्रत्येक अवयव बल प्राप्त करता है। एक सुन्दर मुस्कान सैकड़ों दवाइयों से श्रेष्ठ है। खेल कूद मित्र मंडली में हास परिहास से व्याधि एक दम दूर होती देखी गई है। होम्योपैथिक चिकित्सा में तो विशेष मानसिक स्थितियों का इलाज भी औषधियों से किया जाता है। क्योंकि प्रत्येक बुरी मनः स्थिति भी घातक है।

एक बात बड़े महत्व की है। आप शरीर से जैसी मानसिक भावना प्रकट करोगे वैसी ही मनो भावनाओं का आप वास्तव में अनुभव भी करने लगोगे। यदि तुम दुःख की भावनाओं को मुख पर प्रकट करोगे तो अवश्यमेव तुम क्लान्त ही रहोगे, तुम्हारा हृदय किसी अज्ञात पीड़ा से रो उठेगा। यदि उत्साह, प्रसन्नता, खुशी प्रकट करोगे, तो तुम सचमुच सुख और प्रसन्नता का ही अनुभव करोगे और असाधारण स्वास्थ्य लाभ कर सकोगे। प्रेम, क्रोध, शोक, करुणा, हास्य, जो भी भाव प्रकट (Express) करोगे वही अनुभव (Fell) भी करोगे।

प्रातः काल के मनोभावः-

प्रातः काल किसी सुन्दर पवित्र भजन का उच्चारण करते हुए उठने से चित्त बड़ा पवित्र बना रहता है। उद्वेग नहीं सताता, काम में बड़ा आनन्द आता है। दिल में एक अजीब मस्ती सी छाई रहती है। बात यह है कि प्रातः काल अव्यक्त मन में जैसे मनोभाव दृढ़ कर लिये जाते हैं, पूरे दिन वैसे ही दिन कटता है। यदि कहीं आप क्रुद्ध हो गए तो समझ लीजिए सम्पूर्ण दिन चित्त व्यग्र रहेगा, बात बात में आप उखड़ेगें और किसी काम में भी मजा न आवेगा।

ईश्वरीय आनन्द का भाव सम्पूर्ण आधि−व्याधियों का नाश करने वाला है। ईश्वर मैं ही हूँ, मैं ईश्वर बन कर रहता हूँ, खाता पीता व्यवहार करता हूँ। ऐसी सूचनाएँ देने से आनन्द का भाव गुप्त मन में दृढ़ हो जाता है। गुप्त मन ही हमारी शक्ति, शान्ति, स्वास्थ्य तथा जीवन का स्रोत है। गुप्त मन को वैसे ही मनोभाव दीजिए जो आपके लिए हितकर हों।

मनोभावों ने हमारे अंतर्जगत् का निर्माण किया है, जो कुछ हम हैं अपने मनोभावों की बदौलत हैं। यदि हमारे मनोभाव दुष्ट हैं तो हमारे साथ नीचता, उसी भाँति रहती है। जैसी व्यक्ति के पीछे छाया। यदि हमारे मनोभाव पवित्र, शुचि उत्तम है तो हमारे मुख पर उनका दिव्य प्रकाश सदैव दैदीप्यमान रहता है।

कार्य करते समय हमारे मनोभाव -


जब आप अपने प्रिय कार्य में संलग्न हों या जीविकोपार्जन में व्यस्त हों तो मनोभावों को अपने पक्ष में उत्तेजित कीजिए। काम को एक प्रिय कार्य समझ कर कीजिए। बेगार काटने से थकान मालूम होगी और तिल का पर्वत नजर आएगा। चिंता और भय को दूर कर दो। इन भावों के प्रवेश से बल, पुरुषार्थ, स्फूर्ति एवं स्वास्थ्य का क्षय होता है। ऐसी भावना दृढ़ करो कि तुम अपना कार्य स्वयं करने में पूर्ण समर्थ हो, उसमें खूब उन्नति कर रहे हो, प्रशंसा के पात्र बने हुए हो। साहस, आत्मविश्वास, बल की भावनाएँ प्रदीप्त रक्खो। यदि कोई प्रतिकूल भाव मनः क्षेत्र में प्रवेश करे तो उसे निर्भयता के शस्त्र से चूर चूर कर दो।

मनोभावों का आकृति पर प्रभाव -


जिस प्रकार प्रकाश तथा विशुद्ध वायु के निरन्तर आदान प्रदान से घर शुद्ध बनता है, उसी प्रकार समृद्धि, स्वास्थ्य, भलाई तथा परोपकार की भावनाओं के प्रवाह से मुखाकृति दृढ़ सुन्दर आनन्दप्रद, एवं शान्त बनती है। आपका मुख अंतर्जगत का प्रतिबिम्ब है। उसमें आपकी हृदय आकाँक्षाएँ स्पष्ट परिलक्षित होती हैं। आपकी मुखाकृति देख कर चतुर मनुष्य आपका चरित्र क्षण भर में मालूम कर लेते हैं। अतः हृदय में केवल पवित्रता एवं हितैषिता की भावनाओं को स्थान दो।

निष्कंटक जीवन के मनोभाव-


मन में पवित्रता, आनन्द एवं स्वास्थ्य के मनोभावों को ही स्थान दीजिए। मैं अधिकाधिक बलवान हो रहा हूँ, मेरी स्मरण शक्ति दिन प्रतिदिन तीव्रतर हो रही है। मैं सुखी, समृद्ध एवं तेजस्वी बन रहा हूँ, मैं शान्त, स्वस्थ गंभीर हूँ-ऐसे मनोभावों में आत्मा को स्मरण करने से आनन्दमय जीवन बन जायेगा। सब प्रकार की दुर्बलताओं एवं दुर्व्यसनों का नाश होगा।

अतः मन में पूर्ण आरोग्य स्वरूप होने का प्रयत्न करो। मन में अपना ऐसा भावी मनः चित्र तैयार करो जो सब प्रकार से परिपूर्ण हो, सामर्थ्य शाली हो। मन में सामर्थ्य स्वरूप एवं बल स्वरूप होने की दृढ़ इच्छा करो। मन में शान्त और विशुद्ध होने के मनोभावों को ही स्थान दो, सुखी एवं विश्व प्रेमी होने की कल्पना में ही विचरण करो। जो तुम अपने आप से करवाना चाहते हो, मन में उसी प्रकार के मनोभावों को दृढ़ता से जमाओ।

विशुद्ध, पवित्र, हितैषी मनोभावों में रमण करने वाला कर्मयोगी बड़े सुख एवं आनन्द से जीवन व्यतीत करता है। बुद्धि बल से वह घृणा, द्वेष, शोक संताप की समस्त भूमिकाओं का परित्याग करता है तथा प्रेम शुद्ध शान्ति एवं पवित्रता के मार्ग का अवलम्बन करता है।

निकृष्ट मनोभावों से पतन -

पुण्यस्य फल मिच्छन्तं पापं करोति” सुख समृद्धि युक्त रसीले फल चखने के लिए प्रत्येक व्यक्ति लालायित रहता है किन्तु शोक! महाशोक ! जरा-जरा सी प्रतिकूलता में वह नित्यप्रति दुःख विषाद के कड़वे बीज मनोभूमि में बोता रहता है। नीम के कड़ुवे बीज बोकर मीठे आम कैसे प्राप्त हो सकते हैं।

भय, चिंता, शंका, दुःख, निराशा आदि के मनोभावों को हृदय में स्थान देकर हम सुख की आशा कैसे कर सकते हैं? यदि मनोभाव विषम हैं तो उसका विष शरीर के प्रत्येक अवयव में प्रवेश कर जायगा एवं अंगों को शिथिल कर देगा। अतः समस्त जीवन क्रम निताँत दुःखमय, असंयमी, आत्मघातक बन जायगा। यदि भावना स्वार्थ पूर्ण है तो संसार भी वैसा ही है।

जीवन की सर्वोत्तम विधि-


मन में आप अपनी दुनिया अमृतमयी या विषैली बना रहे हैं। उत्थान एवं पतन का कार्य-क्रम निरंतर मनः प्रदेश में चल रहा है। अनजाने में आप कहीं अपना सर्वनाश न कर लें, यह ध्यान रहे।

अपने अन्तःकरण में सात्विक प्रेम के, माधुर्य परोपकार के भावों का बीजारोपण एवं संवर्द्धन कीजिए। शरीर, स्वास्थ्य, बल का यही मूल स्रोत है। अन्तःकरण में स्वास्थ्य मय उत्साह एवं मस्ती की भावना स्थित रखने से तुम्हारी देह पर उसका प्रतिबिंब परिलक्षित होगा, किन्तु उसमें कुछ समय की आवश्यकता है। ज्यों-ज्यों प्रेम, परोपकार, स्वास्थ्य, के मनोभाव अन्तःकरण में स्थायी बनेंगे त्यों-त्यों मुख मंडल तेजस्वी और देह सुन्दर बनती जायगी।


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