जीवन साधना करें, देवता बनें

देवता होने के लिए थोड़े से प्रयास करने पड़ेंगे और उस प्रयास का नाम है- जीवन- साधना। साधना किसे कहते हैं? अनगढ़ चीजों को सुगढ़ बना लेने का नाम साधना है। मसलन सरकस के लोग शेरों को, हाथियों को, कुत्तों को सुधार करके ठीक कर लेते हैं और वे कैसे- कैसे तमाशे दिखाते हैं, ढेरों पैसा कमा लाते हैं। लोग रीछों को सिखा लेते हैं, साध लेते हैं। बंदरों को, साँपों को साध लेते हैं और साध लेने की वजह से वे सब कैसे- कैसे कमाल दिखाते हैं, कैसी- कैसी करामात दिखाते हैं? उनके कमाल और करामात की वजह से बाजीगर अपना गुजारा कर लेते हैं, अपना पेट पाल लेते हैं। मित्रो! अगर रीछ को, बंदर को, साँप को, शेर को साध लेना संभव है तो अपने जीवन को साध लेना क्या संभव नहीं है? जीवन को साध लेने का नाम ही साधना है।

जीवन को सुसंस्कृत बना देना एक बहुत बड़ा काम है। हमारा व्यवहार और हमारा चिंतन बदले। हमारे चिंतन में संस्कृति और व्यवहार में सभ्यता आए। व्यवहार में जब हम सभ्यता ले आते हैं तो हम सुसंस्कृत हो जाते हैं। हमारे व्यवहार में शालीनता, शिष्टता और अच्छाई जब समाविष्ट हो जाती है तो उसको सभ्यता कहते हैं। सभ्यता से हम जीवन को परिष्कृत करते हैं। संस्कृति किसे कहते हैं? संस्कृति कहते हैं -विचार करने की शैली को, चिंतन को, भावना को और दृष्टिकोण को। जब हमारा दृष्टिकोण परिष्कृत होता हुआ चला जाता है तो फिर मजा आ जाता है।

गुणों को साधिए

देवता कौन- कौन से हैं? देवता का नाम है- हमारे गुण, हमारी हिम्मत। अगर हमारे भीतर हिम्मत हो तो हमारे सामान्य शरीर कितने बड़े, कितने समर्थ हो सकते हैं और क्या से क्या करते चले जा सकते हैं। नेपोलियन एक जरा सा आदमी था और आल्पस पहाड़ को चेलेंज करने लगा कि हमको रास्ता दीजिए नहीं तो पैरों के नीचे रौंदकर फेंक देंगे। उसने कहा कि हम रास्ता देंगे। जिसने किसी को रास्ता नहीं दिया, उस आल्पस ने रास्ता दिया।

नियमित साधना- स्वाध्याय

अपनी दुनिया अलग बसा लें

पहला वाला शिक्षण यह है कि आप अपनी एक दुनिया अलग बसा लीजिए। उसी में मौज से रहा कीजिए। छावनी में रहा कीजिए मोरचे पर लड़ने जाया कीजिए और फिर छावनी में आ जाया कीजिए। गुफा में रहा कीजिए जंगल में लकड़ी काटने जाया कीजिए और फिर गुफा में आ जाया कीजिए। यदि ऐसी गुफा बना लें तो आपके लिए संभव है कि आप आध्यात्मिक जीवन जिएँ कोई महत्त्वपूर्ण निश्चय- निर्णय करें। कोई महत्त्वपूर्ण कदम उठाएँ अन्यथा आपको कोरी कल्पनाएँ आती रहेंगी कि मैं संत बनूँगा, ऐसा करूँगा, ये करूँगा, पर आप कुछ नहीं कर सकेंगे। आप जिस दुनिया में रहते हैं, उसके रिवाज, कायदे, नियम, उसके ढर्रे, उसके स्वभाव आपको इतने ज्यादा प्रभावित करते रहेंगे कि आपको एक कदम भी नहीं बढ़ने देंगे।

इच्छाओं, आकांक्षाओं को बदलिए

नंबर दो -मित्रो! एक बात मैं आपसे यह कहूँगा कि जीवन की दिशाएँ- धाराएँ जिस चीज से और जहाँ से प्रारंभ होती हैं, उस चीज का नाम है- मनुष्य की इच्छाएँ- आकांक्षाएँ। अक्ल की खराबी नहीं है। इंद्रियों की शिकायत करना बेकार है। नहीं साहब! हमारी इंद्रियाँ नहीं मानतीं। इंद्रियाँ भी कोई मानने जैसी चीज हैं क्या? इंद्रियाँ क्या होती हैं, कुछ भी नहीं होतीं? जो हमारी निष्ठाएँ हमारी आकांक्षाएँ हमारी इच्छाएँ हैं, वहाँ तू चल। इच्छाएँ हमारी क्या हैं? इस समय में हमारी भौतिक इच्छाएँ तीन हैं- वासना, तृष्णा, अहंता। हमने अपने आप को भूत मान लिया है। कौन हैं आप? हम तो भूत हैं। अरे तृ तो अभी जिंदा है। नहीं महाराज जी! भूत हूँ। भूत कैसा होता है? जिसकी इच्छाएँ वस्तुओं और पदार्थों के साथ जुड़ी हुई हैं।

हमारा शरीर मिट्टी का बना हुआ है। इसकी इच्छा भी मिट्टी की चीजों की है। क्या खाना चाहता है? जलेबी, पकौड़े, मिर्च का अचार खाना चाहता है। मिर्च क्या होती है? मिट्टी। नीबू क्या होता हैं ?मिट्टी। जलेबी क्या होती है? मिट्टी। खाना कौन चाहता है? मिट्टी। ये क्या हैं? ये हमारी भौतिक इच्छाएँ हैं। हमारी जीभ की मिट्टी मिर्च की मिट्टी को खाना चाहती है। मित्रो! ये वासना है। हमारी जितनी भी इंद्रियाँ  हैं, ये मिट्टी की बनी हुई हैं और मिट्टी की चीजें माँगती हैं। काम- वासना के अंग मिट्टी के बने हुए हैं। क्या चाहते हैं? मिट्टी का संपर्क मिट्टी का सहयोग चाहते हैं। हमारी वासनाएँ तृष्णाएँ भौतिक हैं। क्या चाहते हैं आप? बेटा चाहते हैं, मकान और रुपया- पैसा चाहते हैं, और क्या चाहते हैं? बस, ये ही चीजें चाहते हैं। मिट्टी चाहते हैं न? हों साहब! मिट्टी चाहते हैं।

तीसरी आकांक्षा क्या है? अहं। एक आदमी का अहं, मेरा बड़प्पन, मेरा यश, मेरा नाम, मेरा गौरव, मेरा श्रेय। अरे साहब! मेरे बेटे का ब्याह हुआ, मैंने ५० हजार रुपया खरच किया और मैंने बेटे की बहू को ८१ तोले  सोना चढ़ाया और मेरी लड़की की बरात में २५० बराती आए। मैं- मैं.....। सारे दिन मैं ही मैं चिल्लाता रहता है। मेरा अपमान हो गया, मेरा ये हुआ। मित्रो! ये ही तीन चीजें हैं, जिनके लिए हमारी सारी इच्छाएँ  नियोजित हैं। अगर हम अपनी इच्छाओं का दायरा बदल दें तो वे इच्छाएँ जो कभी पूरी नहीं हो पाती हैं, पूरी होनी शुरू हो जाएँ। हमारा दृष्टिकोण यदि ऐसा हो जाए कि इन वस्तुओं के स्थान पर हम सिद्धांत और आदर्श अपनाएँ, सत्य पर चलना चाहें, ईमानदारी से रहना चाहें तो इसमें कोई कठिन ता नहीं आती।

शांति भरा सुगम जीवन

हमारा जीवन सुगम है, अगर हम अपनी आकांक्षाएँ सत्य पर, न्याय पर टिका दें, सादगी और सिद्धांतों के ऊपर टिका दें तो इसमें कोई कठिनाई नहीं आ सकती। फिर हम शांति से जीवन जी सकते हैं। हमारी इच्छाएँ सेकण्डों में पूरी होनी संभव हैं। आप आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा करने तक सीमित हो जाएँ तो आपकी ८० फीसदी समस्याएँ खतम हो जाएँगी। भौतिक आवश्यकताएँ हर आदमी के पास कामचलाऊ हैं, अगर आदमी उधर से संतोष कर ले और अपने सिद्धांतों को, आदर्शों को पूरा करने के लिए अपनी अक्ल और समय लगा दे तो जो समय और शक्ति हमारी निरर्थक खरच होती चली जाती है, उसे हम  बचा सकते हैं और उस बची हुई शक्ति से ज्ञान का प्रसाद और भगवान की भक्ति इकट्ठा कर सकते हैं। अभी तो आपके पास न तो बचती है अक्ल, न बचता है मन, न बचता है समय और न बचता है श्रम। ये कौन ले जाता है? ये तीन चुडैलें जोर से पकड़ लेती हैं- एक हथकड़ी के रूप में, एक बेड़ी के रूप में और एक कमर के रस्से के रूप में। इनके बंधन ढीले करें तो आप श्रेष्ठता की, आदर्शों की, उत्कृष्टता की दिशा में कदम बढ़ा सकते हैं।

एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण जीवन बदलने वाला यह है कि हम अपनी इच्छाओं को परिष्कृत करें। घटिया, छोटी, नगण्य और बेकार इच्छाएँ जिनके बिना हमारा न कोई काम हर्ज हो रहा है और न जिनको प्राप्त करने से कोई उद्देश्य पूरा होता है। मित्रो! अगर आप अपने दृष्टिकोण में हेर फेर कर पाएँ तो जीवन की दिशा बदलने की ओर, महान कार्य करने की ओर, भगवान को प्राप्त करने, आत्मशक्ति का विकास करने और  देवत्व की ओर चलने के लिए आप समय, श्रद्धा, आस्था सब चीजें पा सकते हैं।

कर्मयोगी बनिए वर्तमान में रहिए

तीसरा वाला शिक्षण यह है कि आप अपने कर्तव्य को समझना शुरू कीजिए कर्मयोगी बनिए, फर्ज, कर्तव्य पूरा करिए बस, परिणाम? परिणाम हम नहीं जानते  हमने खूब अच्छी तरह से पढ़ा, खूब मेहनत की, लेकिन जिस दिन परीक्षा देने का समय आया, आ गया बुखार और फेल हो गए। क्यों साहब! ये क्या हो गया? कर्म करना हमारे हाथ में है, फेल या पास होना हम नहीं जानते। भविष्य का अध्ययन करना छोड़ दीजिए; भविष्य का विचार छोड़ने का मतलब यह नहीं है कि आप यह विचार भी न करें कि हम किसी का भला करने जा रहे हैं या बुरा करने जा रहे हैं। आप तय कर लीजिए कि हमको ये काम करना है- जैसे हमें पढ़ना है, दुकान करनी है, खेती करनी है। पूरे परिश्रम, पूरी ईमानदारी के साथ काम कीजिए। पूरे परिश्रम, मेहनत से खेती की है, लेकिन बरसात न हो, अधिक वर्षा हो, टिड्डी आ जाए कीड़े लग जाएँ तब! हम नहीं जानते कि कल क्या होने वाला है। कल की कल्पनाओं, कल की आकांक्षाओं में बेकार दिमाग न खराब करें। ये सोचें कि हम किसान हैं, पूरी मेहनत के साथ खेती करनी है,फसल बोनी है, अनाज उगाना है, खाद- पानी लगाना है बस, चूकि हमने ईमानदारी से खाद लगाया, ईमानदारी से पसीना बहाया, ईमानदारी से रखवाली की, इतना ही संतोष करना हमारे लिए काफी है।

कर्मयोगी वह है, जो वर्तमान पर दृष्टि रखता है। अपनी सारी समझ, अक्ल, बुद्धि,मेहनत और मनोयोग अपने कर्तव्य को, कर्म को अच्छा बनाने के लिए लगाता है। '' वर्क इज वर्शिप '' अर्थात काम को भगवान की पूजा इसलिए बताया गया है कि आदमी अपने काम को ईमानदारी से, जिम्मेदारी से करे। काम का मतलब केवल मशक्कत, केवल श्रम नहीं है। काम के साथ में ईमानदारी, एक- जिम्मेदारी, दो- सुरुचि- खूबसूरती, तीन- तन्मयता, तत्परता, उत्साह, जोश, बारीकी मिली हो प्यार मिला हो, चार- काम को हम ऐसे ढंग से करें कि सामान्य होकर भी असामान्य हो जाए। ऐसे असामान्य कार्यों को हम कर्मयोग  कहते हैं। हमको और आपको कर्मयोगी बनना चाहिए अगर हम कर्मयोगी बनते हैं और अपने दिमाग को संतुलित बनाए रखते हैं तो हमारी जिंदगी में आनंद आ जाता है।

समय का महत्त्व समझिए

हमको अपनी सामर्थ्य को सार्थक, रचनात्मक कार्यों, सृजनात्मक और विकासोन्मुख कामों में लगाना चाहिए। जिसमें हमारा, हमारे घर वालों का, हमारे पड़ोसियों का, समाज का और देश का विकास होता हो, दूसरों की भलाई होती हो। अपनी सामर्थ्य का हम इस तरीके से नियोजन करने में समर्थ हो सकें। हम व्यर्थ, अनर्थ कार्यों और दुष्टता से बचें तो आप देखेंगे कि हमारे पास ढेरों की ढेरों शक्ति सामर्थ्य, बुद्धि, अक्ल, भावनाएँ बाकी बच जाती हैं। हम उनको अगर सार्थक सृजनात्मक कामों में लगाना शुरू करें तो आप देखेंगे कि कैसा चमत्कार होता है आपके जीवन में। आपको ऊँचा उठने का आपकी उन्नति के लिए कैसे रास्ता खुलता है? आप जो भी लक्ष्य बना करके चलेंगे, उसमें विद्वान बनते हुए चले जाएँगे। स्वास्थ्य- संवर्द्धन का मन हो तो आप पहलवान बन सकते हैं। भगवान का भक्त बनने का अगर मन हो तो वही अक्ल, वही समझ, वही शक्ति वही साधन और पैसा आपको भगवान की ओर बढ़ाता हुआ चला जाता है। आत्म- निरीक्षण कीजिए अपने को देखिए समझिए।

शरीर व जीवात्मा दोनों का ध्यान रखें


अगर आपको श्रेष्ठ जीवन जीना है, देवत्व की दिशा में बढ़ना है तब, एक काम जरूर करना।

हमारे जीवन की दुकान में भी दो हिस्सेदार हैं। कौन- कौन हिस्सेदार हैं? एक हमारा शरीर और एक हमारी जीवात्मा। एक हमारा कलेवर और एक हमारा प्राण। इसका जो मुनाफा होता हो, दोनों को बराबर- बराबर दें। शरीर की देख- भाल कर, मैं ये थोड़े ही कहता हूँ कि शरीर को खाना, कपड़ा मत दे। शरीर की व्यवस्था भी कर, लेकिन सारा का सारा यदि शरीर को चला गया और जीवात्मा को नहीं तो जीवात्मा हमारी भूखी, तड़पती रही, व्याकुल रही, उसके लिए कुछ न कर सका। सारी जिंदगी जीवात्मा ने पुकारा कि हमें भी कुछ मिलना चाहिए। अच्छा, तुम्हें भी मिलना चाहिए। मित्रो! जब बच्चा रोया करता है तो उसकी माँ दूध में अफीम घोलकर पिला देती है और बच्चा सो जाता है। हमारी जीवात्मा भी जब रोई, चिल्लाई तो अफीम की गोली घोल- घोलकर इसको पिला दी।

माला और भलाई


मनुष्य को जीवन अमानत के रूप में दिया है। ये ऐसे कामों के लिए दिया है कि इस दुनिया के, भगवान के उद्यान में हम माली के तरीके से काम करें। उसे सुव्यवस्थित, समुन्नत और श्रेष्ठ बनाएँ।

भगवान तेरा श्रम माँगता है, तेरा पसीना माँगता है, तेरा समय, तेरा वक्त माँगता है। तेरा ईमान, तेरी भावना और तेरी श्रद्धा माँगता है। मित्रो! जीवात्मा परमात्मा के लिए और शरीर यात्रा दोनों के लिए हमारा संतुलित विभाजन होना चाहिए। संतुलित विभाजन का मैंने नाम रखा है- अंशदान। अंशदान के लिए मैंने कहा था कि आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश अंशदान के बिना संभव नहीं है। हमारी दो संपदाएँ हैं- एक भगवान की दी हुई, एक मनुष्य की दी हुई। भगवान की दी हुई संपदा का नाम है -समय। समय को जहाँ भी आप खरच करे, उसी के बदले में ये नोट रुपए हैं। आप इनको बाजार में ले जाइए और चाहे जो खरीद  लाइए। समय के बदले में आपको पैसा, स्वास्थ्य, विद्या, लोक परलोक कुछ भी खरीद लीजिए। ये भगवान की संपत्ति है और मनुष्य की कमाई है- पैसा। ये दोनों ही साधन हमारे पास हैं, इन दोनों साधनों का  उपयोग आप विभाजित रूप से किया कीजिए।

ईमानदार बनिए -हिस्सेदारी में

भौतिक जीवन के लिए हमारे समय का कितना हिस्सा लगना है और आध्यात्मिक जीवन के लिए परमार्थ जीवन के लिए कितना समय लगाना है, विभाजित कीजिए और साफ साफ बताइए कि कितना हिस्सा देना चाहते हैं एक नहीं साहब! हम तो जीवात्मा को रुपया में दो आने देंगे और शरीर को मुनाफे में से चौदह आने देंगे, चल कुछ तो दे। महाराज जी! मैं तो कुछ भी नहीं दूँगा, बेटे! जीवात्मा को भगवान को अँगूठा मत दिखा। नहीं चावल चढ़ा दूँगा, रोली चढ़ा दूँगा। भगवान को तू बहकाए मत कि चावल- रोली चढ़ा दूँगा, धूपबत्ती चढ़ा दूँगा। अच्छा तू अपने शरीर को ही धूपबत्ती दिखा दिया कर। नहीं महाराज जी! शरीर का तो धूपबत्ती से काम नहीं चलेगा तो फिर भगवान का कैसे काम चल जाएगा? भगवान जी पर चंदन चढाऊँगा, अच्छा तो तू चंदन अपने ऊपर चढ़ा ले। नहीं महाराज जी चंदन से मेरा काम नहीं चलेगा तो भगवान का काम कैसे चलेगा? इसलिए मित्रो! जो हमारी संपदाएँ हैं, उनके बारे में हमें ईमानदार होना चाहिए और नेक होना चाहिए। हमको कुछ इस तरह से विभाजन करना चाहिए कि हमारे समय का इतना हिस्सा शारीरिक जीवन के लिए और इतना परमात्म जीवन के लिए। इतना लोकमंगल के लिए और इतना हमारे लिए।

समाज का ऋण चुकाएँ

आध्यात्मिक जीवन आपसे यह कहता है कि आप समाज के ऋणी हैं। समाज ने आपको ज्ञानवान बनाया है। समाज का लाभ लेकर के आपको अनाज मिलता है। समाज का लाभ लेकर के आप कपड़े पहनते हैं । समाज का लाभ लेकर के आपने शिक्षा पाई है। समाज का लाभ लेकर के आपको सवारियाँ मिली हैं। समाज का लाभ लेकर के आपकी दवा- दारू का इंतजाम हुआ है। समाज का लाभ लेकर के आपका विवाह हुआ हैं। नहीं साहब! तो कहाँ से हुआ है तेरा विवाह? किसी और की पैदा की हुई बेटी को साथ लिए फिरता है और ऊपर से ये कहता है कि समाज का कोई ऋण नहीं है। तेरे ऊपर ऋण है, तू समाज का ऋणी  है। इस ऋण को चुकाने के लिए जो हमारे पास है, उसका एक मुनासिब हिस्सा निकालने के लिए हमको कोशिश करनी चाहिए।

आप आध्यात्मिक जीवन जीना चाहते हैं तो सचाई पर आइए वास्तविकता पर आइए। इस कठोर सचाई को, वास्तविकता को समझिए, अगर आप वास्तविक अध्यात्म को पाना चाहते हैं, वास्तविक भगवान को पाना चाहते हैं, वास्तविक उन्नति करना चाहते हैं, वास्तविक प्रतिभा को चाहते हैं, वास्तविक देवत्व चाहते हैं तो उसकी वास्तविक कीमत चुकाइए।

पंचशीलों की साधना- पंचाग्नि विद्या


ये आध्यात्मिकता के पंचशील हैं तो कठोर और कठिन। कठोर इसलिए कि हमारे स्वभाव में नहीं आते और हमको भय मालूम पड़ता है। अरे साहब! ये करें तो आफत आ जाएगी और ये कैसे होगा? इसका  जो भय है, वास्तव में वही दिक्कत का कारण है। अगर आप आध्यात्मिक जीवन पर चलें, पंचशील का जीवन जिएँ? जीवात्मा की, आत्मदेव की पूजा पंचोपचार के ढंग से करें तो आपको मालूम पड़ेगा कि पंचशील कितने सरल हैं, सरस हैं। वर्तमान जीवन, स्वार्थी जीवन, घटिया- नारकीय जीवन, पापी- पतित जीवन की अपेक्षा वह जीवन सरल है, शांतिमय है और सुखद है। वही आदमी समुन्नत है और उसकी सिद्धियाँ प्रत्यक्ष हैं। मित्रो! मैं चाहता था कि आप देवत्व की ओर बढ़ते, देवत्व के पंचतप करते, पंचाग्नि विद्या को अपनाते। नचिकेता के तरीके से पंचाग्नि विद्या में अपने आप को तपाते। पंचशीलों को ग्रहण करते और अपने व्यक्तित्व को उभारते और श्रेष्ठ बनाते, व्यक्तित्व को समुन्नत बनाते। उसके बदले में वे सिद्धियाँ पाते जो महापुरुषों ने पाई, ज्ञानियों ने पाईं, तपस्वियों ने पाई, देवमानवों ने पाईं। उन सिद्धियों से आप इसी जीवन में संपन्न हो जाते, अगर आप जीवन देवता की, आत्मदेव की साधना करने की हिम्मत इकट्ठी कर सकते तब।


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