विश्वास और चिकित्सा

आपाधापी से भरे इस युग में निदान एवं चिकित्सा के आधुनिकतम साधन होने के बावजूद रोगों में कहीं कमी नजर आती दिखती नहीं। अधिक और अधिक पाने की होड़, वैभव-सुख साधनों की लालसा इतनी तीव्र है कि व्याधिग्रस्त काया, संक्षोभ-विक्षोभग्रस्त मस्तिष्क एवं अशांति-उद्विग्नता की कीमत पर भी वह यह दौड़ छोड़ना नहीं चाहता। आध्यात्मिक चिकित्सा के प्रतिपादनकर्त्ताओं ने एक महत्वपूर्ण तथ्य यह निकाला है कि प्रज्ञापराध ही सभी रोगों को जन्म देता है। चिन्तन एवं आस्था की विकृतियों से जन्मे रोग बाह्योपचार से ठीक नहीं हो सकते।

“अन्डरस्टेण्डिंग ह्यूमन बिहेवियर” नामक विश्वकोश में रोगों के कारण व उपचार पर एक शोध अध्ययन प्रस्तुत किया गया है कि कई रोगियों पर प्रयोगों के उपरान्त पाया गया है कि उन्हें दवाओं की नहीं उनकी राम कहानी सुने जाने की आवश्यकता होती है। चिकित्सक जब रोगी का विश्वास हासिल कर लेता है तो वह जो भी देगा, चाहे वह रंग-बिरंगा साधारण जल हो अथवा विटामिन बी काम्पलेक्स की या खड़िया मिट्टी की गोलियाँ, रोग मिट जाता है। वस्तुतः रोगी की सुनने के लिए आज किसी के पास समय नहीं है। निदान हेतु मूत्र, रक्त परीक्षण से लेकर, एक्सरे, ई.सी.जी. इत्यादि अनेक जाँचे अनावश्यक रूप से नित्य लाखों व्यक्तियों की की जाती है। एक बड़ा पुलिन्दा रोगी के पास इकट्ठा होता जाता है व उसे सहज ही रोग की गंभीरता का सम्मोहन देता रहता है। जितनी ज्यादा जाँच जिस किसी भी रोगी की हुई हो, वह उतना ही गंभीर, असाध्य एवं जाँच करवाने वाला चिकित्सक सबसे बड़ा विशेषज्ञ माना जाता है।

इस प्रकार के उच्चतम डिग्रीधारी चिकित्सकों को नीम हकीम कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। “स्वीट नथिंग्स” शीर्षक से डॉ. ए. जे. क्रोनिन ने अपने अनुभवों के आधार पर एक ग्रन्थ लिखा है। उसमें उन्होंने लिखा है कि “मैं मूर्धन्य चिकित्सक इसलिए माना जाता था कि मैंने जनमानस का अध्ययन काफी गहराई से कर समय की मांग एवं रोगी की मनोवृत्ति के अनुरूप औषधियाँ दीं। ये औषधियाँ खड़िया मिट्टी की रंग बिरंगी गोलियाँ मात्र थीं। किन्तु इन्हें देते समय रोगी को कई प्रकार के परामर्श एवं उसके दुःख में सहभागी बनकर जो विश्वास मुझे उनका अर्जित होता था, वह राम बाण का काम करता था।”

वर्तमान चिकित्सा पद्धति, चिकित्सकों की कार्यप्रणाली एवं रोगियों की मानसिकता पर व्यापक सर्वेक्षण करने के उपरान्त हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के प्रोफेसर हेनरी के. बीचर ने लिखा है कि किसी भी रोग की निदान के बाद चिकित्सा के पूर्व यदि रोगी की मनःस्थिति की पढ़कर “प्लेसिबो” औषधियां दी जायँ तो काफी सीमा तक उस औषधि प्रदूषण से बचा जा सकता है जो शरीर संस्थान में इन घातक ड्रग्स के कारण पैदा होता है। आज व्याधियों में आएट्रोजेनिक रोगों का बाहुल्य है। ये वे रोग हैं जो चिकित्सक महोदय द्वारा रोगी पर प्रयोग हेतु दी गई विभिन्न औषधियों के शरीर रूपी समर क्षेत्र में हुए युद्ध के फलस्वरूप जन्म लेते हैं। जुकाम, दमा, पेप्टिक, अल्सर, सिर दर्द, मानसिक तनाव, अनिद्रा,उच्च रक्तचाप, अपच, इरीटेबल बॉवेल इत्यादि अनेक रोग ऐसे हैं, जिन्हें मात्र “प्लेसिबो” चिकित्सा से ठीक किया जा सकता है। प्लेसिबो वे औषधियां हैं जो शरीर पर कोई घातक प्रभाव नहीं डालतीं व गुर्दे-मल मार्ग द्वारा बाहर निकाल दी जाती हैं। इनका रंग-बिरंगा होना व चिकित्सक द्वारा इनका महात्म्य बताकर दिया जाना ही रोग को मुक्त करने में सहायक सिद्ध होता है। चुम्बक चिकित्सा, जड़ी बूटी उपचार, क्रोमोपैथी एवं यहाँ तक कि होम्योपैथी भी एक प्रकार से “फेथ हिलींग” ही हैं।

वस्तुतः रोग, चिन्तन की अस्त-व्यस्तता के परिणाम स्वरूप जन्मते हैं। यदि आत्म निरीक्षण की आटोसजेशन पद्धति अपनायी जाय तो न केवल रोग से मुक्ति मिल सकती है अपितु विद्यमान क्षमताओं का परिपूर्ण सदुपयोग भी हो सकता है।



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