युग-अवतरण की प्रक्रिया

जिसकी अहंता कुएँ के मेढक या गूलर के फल के भुनगे जैसी हो; जिनके लिए अपना स्वार्थ, विलास और अहंकार ही सब कुछ है, समझना चाहिए कि उनकी केवल काय- संरचना ही मनुष्य जैसी है। पेट और प्रजनन का निर्वाह तो हर कृमि- कीटक को आता है। उसी सीमा में जो आबद्ध है, उसे मनुष्य नाम से भले ही जाना जाए, पर है वह वस्तुतः: कृमि- कीटक या नर- पशु जैसा ही। जब कभी ऐसे लोगों का बाहुल्य होता है, तब समझना चाहिए कि नरक का साम्राज्य छा गया- कलियुग आ गया।

    इन दिनों सुविधा- साधनों की कमी नहीं, पर मनुष्य- शरीर में रहने वाली चेतना का स्तर गया- बीता हो गया है। ऐसा जब कभी होगा, तब समझना चाहिए कि व्यक्ति और समाज पर संकट एवं पतन- पराभव का दौर चढ़ने ही वाला है। इन दिनों जो अगणित समस्याएँ हर क्षेत्र में दीख पड़ती हैं, उनका एक ही कारण है कि मानवीय काया पर श्मशान के प्रेत ने आधिपत्य जमा लिया है; उसने मर्यादाओं का उल्लंघन और वर्जनाओं का अभ्यास आरम्भ कर दिया है। वर्तमान परिस्थितियों में दीनता- हीनता का एक ही कारण है- हम जैसा बोते हैं, वैसा ही काटते भी तो हैं।

    वर्तमान परिस्थितियों का विश्लेषण इस एक वाक्य में ही किया जा सकता है कि जनसमुदाय का एक बड़ा भाग भ्रष्ट- चिन्तन और दुष्ट- आचरण को अपनाने का अभ्यस्त हो गया है। उसे उसी में स्वार्थ सधता दीखता है, जिसमें वासना और तृष्णा की पूर्ति का साधन बनते दीखता है। उस और ध्यान भी नहीं जाता, जिसके लिए यह सुर- दुर्लभ शरीर मिला है। यही है वह उल्टी चाल, जिसे अपनाकर लोग स्वयं भ्रमित होते, कष्ट पाते और दूसरों को गिराने का पापपुँज सिर पर लादते जाते हैं। यह उपक्रम जब तक चलता रहेगा, तब तक तो दुर्गति को भोगना ही पड़ेगा।

    समय बदल रहा है रात्रि का पलायन और प्रभात का उदय हो रहा है। उसका निमित्त कारण एक ही बनने जा रहा है कि लोग अपने को बदलेंगे। स्वभाव में परिवर्तन करेंगे। गिरने और गिराने के स्थान पर उठने और उठाने की रीति- नीति अपनाएँगे और पतन के स्थान पर उत्थान का मार्ग ग्रहण करेंगे। यही नवयुग है; सतयुग है, जो अब निकट से निकटतम आता जा रहा है।

    भगवान् अपना कार्य किन्हीं महामानवों एवं देवदूतों के माध्यम से कराते रहे हैं। इन दिनों भी ऐसा ही हो रहा है। मनुष्य- शरीर में प्रतिभावान देवदूत प्रकट होने जा रहे हैं। इनकी पहचान एक ही होगी कि वे अपने समय का अधिकांश भाग प्रभु की प्रेरणा के लिए लगाएँगे। शरीर कुछ- न कुछ साधन उपार्जन करता है। नर- पशु उसे स्वयं ही खर्चते हैं, पर देवमानवों की प्रकृति यह होती है कि अपने उपार्जन से न्यूनतम अपने लिए खर्च करें और शेष को परमार्थ- प्रयोजनों के लिए लगा दें। नवयुग का प्रधान स्वरूप है- लोकमानस का परिष्कार। यही अपने समय की साधना, पुण्यपरमार्थ और धर्मधारणा है। इसके लिए जो जितना समय और साधन लगाता दीख पड़े, समझना चाहिए कि भगवान् उसी के माध्यम से अपना अभीष्ट पुरुषार्थ पूरा करा रहे हैं।

    नवयुग का आगमन- अवतरण निकट है। उसे स्रष्टा किसके माध्यम से पूरा करने जा रहे हैं, यह जानना हो तो समझना चाहिए कि युग- अवतरण का श्रेय उन्हीं को उपहारस्वरूप भगवान् दे रहे है, जो उनके काम में लगे हैं। ऐसे लोगों को ही बड़भागी और सच्चा भगवद्- भक्त मानना चाहिए।


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