Yagyopaveet

Question: Is Yagyopaveet essential for Gayatri worship? What is its significance ?


Ans:

यज्ञोपवीत का मन्तव्य मानव जीवन की सर्वांगपूर्ण उन्नति करना है।

उन उन्नतियों में स्वास्थ्य की उन्नति भी एक है और उसके लिये अन्य नियम पालन करने के साथ- साथ भोजन सम्बन्धी नियमों की सावधानी रखना उचित है। इस दृष्टि से जनेऊधारी के लिये भोजन सम्बन्धी नियमों का पालन करना ठीक है; परन्तु जिस प्रकार प्रत्येक द्विज, जीवन की सर्वांगीण उन्नति के नियमों का पूर्णतया पालन नहीं कर पाता, फिर भी कन्धे पर जनेऊ धारण किये रहता है, उसी प्रकार भोजन सम्बन्धी किसी नियम में यदि त्रुटि रह जाए, तो यह नहीं समझना चाहिये कि त्रुटि के कारण जनेऊ धारण का अधिकार ही छिन जाता है गायत्री के साधकों को यज्ञोपवीत अवश्य धारण करना चाहिये, क्योंकि उपनयन गायत्री का मूर्तिमान प्रतीक है, उसे धारण किये बिना भगवती की साधना का धार्मिक अधिकार नहीं मिलता। है।.

आजकल नये फैशन में जेवरों का रिवाज कम होता जा रहा है, फिर भी गले में कण्ठीमाला किसी न किसी रूप में स्त्री- पुरुष धारण करते हैं। गरीब स्त्रियाँ काँच के मनकों की कण्ठियाँ धारण करती हैं। इन आभूषणों के नाम हार, नेकलेस, जंजीर, माला आदि रखे गये हैं, पर यह वास्तव में कण्ठियों के ही प्रकार हैं। चाहे स्त्रियों के पास कोई अन्य आभूषण हो या न हो, परन्तु इतना निश्चित है कि कण्ठी को गरीब स्त्रियाँ भी किसी न किसी रूप में अवश्य धारण करती हैं। इससे प्रकट है कि भारतीय नारियों ने अपने सहज धर्म- प्रेम को किसी न किसी रूप मंप जीवित रखा है और उपवीत को किसी न किसी प्रकार धारण किया है ।


यज्ञोपवीत के रूप में गायत्री की अवधारणा


मंत्र दीक्षा के रूप में गायत्री का अवधारण करते समय उपनयन संस्कार कराने की भी आवश्यकता पड़ती है। इसी प्रक्रिया को द्विजत्व की, मानवीय गरिमा के अनुरूप जीवन को परिष्कृत करने की अवधारणा भी कहते हैं। जनेऊ पहनना, उसे कन्धे पर धारण करने का तात्पर्य जीवनचर्या को, काय कलेवर को देव मन्दिर-गायत्री देवालय बना लेना माना जाता है। यज्ञोपवीत में नौ धागे होते हैं। इन्हें नौ मानवीय विशिष्टता को उभारने वाले सद्गुण भी कहा जा सकता है। एक गुण को स्मरण रखे रहने के लिए एक धागे का प्रावधान इसीलिए है कि इस अवधारण के साथ-साथ उन नौ सद्गुणों को समुन्नत बनाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाए, जो अनेक विभूतियों और विशेषताओं से मनुष्य को सुसम्पन्न करते हैं।


सौरमण्डल में नौ सदस्य ग्रह हैं। रत्नों की संख्या भी नौ मानी जाती है। अंकों की शृंखला भी नौ पर समाप्त हो जाती है। शरीर में नौ द्वार हैं। इसी प्रकार अनेकानेक सद्गुणों की, धर्म-लक्षणों की गणना में नौ को प्रमुखता दी गई है। वे पास में हों, तो समझना चाहिए कि पुरातनकाल में ‘‘नौ लखा हार’’ की जो प्रतिष्ठा थी वह अपने को भी करतलगत हो गई। ये नौ गुण इस प्रकार हैं:-

(१) श्रमशीलता : समय, श्रम और मनोयोग को किसी उपयुक्त प्रयोजन में निरंतर लगाए रहना। आलस्य-प्रमाद को पास न फटकने देना। समय का एक क्षण भी बरबाद न होने देना। निरंतर कार्य में संलग्न रहना।

(२) शिष्टता : शालीनता, सज्जनता, भलमनसाहत का हर समय परिचय देना। अपनी नम्रता और दूसरों की प्रतिष्ठा का का परिचय देना, दूसरों के साथ वही व्यवहार करना, जो औरों से अपने लिए चाहा जाता है। सभ्यता, सुसंस्कारिता और अनुशासन का निरंतर ध्यान रखना। मर्यादाओं का पालन और वर्जनाओं से बचाव का सतर्कतापूर्वक ध्यान रखना।

(३) मितव्ययिता : ‘सादा जीवन -उच्च विचार’ की अवधारणा। उद्धत-शृंगारिक शेखीखोरी, अमीरी, का अहंकारी प्रदर्शन, अन्य रूढ़ियों-कुरीतियों से जुड़े हुए अपव्यय से बचना सादगी है, जिसमें चित्र-विचित्र फैशन बनाने और कीमती जेवर धारण करने की कोई गुंजाइश नहीं है। अधिक खर्चीले व्यक्ति प्राय: बेईमानी पर उतारू तथा ऋणी देखे जाते हैं। उसमें ओछापन, बचकानापन और अप्रामाणिकता-अदूरदर्शिता का भी आभास मिलता है।

(४) सुव्यवस्था : हर वस्तु को सुव्यवस्थित, सुसज्जित स्थिति में रखना। फूहड़पन और अस्त-व्यस्तता अव्यवस्था का दुर्गुण किसी भी प्रयोजन में झलकने न देना। समय का निर्धारण करते हुए, कसी हुई दिनचर्या बनाना और उसका अनुशासनपूर्वक परिपालन करना। चुस्त- दुरुस्त रहने के ये कुछ आवश्यक उपक्रम हैं। वस्तुएँ यथास्थान न रखने पर वे कूड़ा-कचरा हो जाती हैं। इसी प्रकार अव्यवस्थित व्यक्ति भी असभ्य और असंस्कृत माने जाते हैं।

(५) उदार सहकारिता : मिलजुलकर काम करने में रस लेना। पारस्परिक आदान-प्रदान का स्वभाव बनाना। मिल-बाँटकर खाने और हँसते-हँसाते समय गुजारने की आदत डालना। इसे सामाजिकता एवं सहकारिता भी कहा जाता है। अब तक की प्रगति का यही प्रमुख आधार रहा है और भविष्य भी इसी रीति-नीति को अपनाने पर समुन्नत हो सकेगा। अकेलेेपन की प्रवृत्ति तो, मनुष्य को कुत्सा और कुण्ठाग्रस्त ही रखती है।

उपर्युक्त पाँच गुण पञ्चशील कहलाते हैं, व्यवहार में लाए जाते हैं, स्पष्ट दीख पड़ते हैं, इसलिए इन्हें अनुशासन वर्ग में गिना जाता है। धर्म-धारणा भी इन्हीं को कहते हैं। इनके अतिरिक्त भाव-श्रद्धा से सम्बन्धित उत्कृष्टता के पक्षधर स्वभाव भी हैं, जिन्हें श्रद्धा-विश्वास स्तर पर अन्त:करण की गहराई में सुस्थिर रखा जाता है। इन्हें आध्यात्मिक देव-संपदा भी कह सकते हैं। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का विविध परिचय इन्हीं चार मान्यताओं के आधार पर मिलता है। चार वेदों का सार-निष्कर्ष यही है। चार दिशा-धाराएँ तथा वर्णाश्रम- धर्म के पीछे काम करने वाली मूल मान्यताएँ भी यही हैं।

(६) समझदारी : दूरदर्शी विवेकशीलता। नीर-क्षीर विवेक, औचित्य का ही चयन। परिणामों पर गंभीरतापूर्वक विचार करते हुए कुछ करने का प्रयास। जीवन की बहुमूल्य संपदा के एक-एक क्षण का श्रेष्ठतम उपयोग। दुष्प्रवृत्तियों के साथ जुड़ी हुई दुर्घटनाओं के सम्बन्ध में समुचित सतर्कता का अवगाहन ।

(७) ईमानदारी : आर्थिक और व्यावहारिक क्षेत्र में इस प्रकार का बरताव जिसे देखने वाला सहज सज्जनता का अनुमान लगा सके, विश्वस्त समझ सके और व्यवहार करने में किसी आशंका की गुंजाइश न रहे। भीतर और बाहर को एक समझे। छल, प्रवंचना, अनैतिक आचरण से दृढ़तापूर्वक बचना।

(८) जिम्मेदारी : मनुष्य यों स्वतंत्र समझा जाता है, पर वह जिम्मेदारियों के इतने बंधनों से बँधा हुआ है कि अपने-परायों में से किसी के भी साथ अनाचरण की गुंजाइश नहीं रह जाती। ईश्वर प्रदत्त शरीर, मानस एवं विशेषताओं में से किसी का भी दुरुपयोग न होने पाए। परिवार के सदस्यों से लेकर देश, धर्म, समाज व संस्कृति के प्रति उत्तरदायित्वों का तत्परतापूर्वक निर्वाह। इसमें से किसी में भी अनाचार का प्रवेश न होने देना।

(९) बहादुरी : साहसिकता, शौर्य और पराक्रम की अवधारणा। अनीति के सामने सिर न झुकाना। अनाचार के साथ कोई समझौता न करना। संकट देखकर घबराहट उत्पन्न न होने देना। अपने गुण, कर्म, स्वभाव में प्रवेश करती जाने वाली अवांछनीयता से निरंतर जूझना और उसे निरस्त करना। लोभ, मोह, अहंकार, कुसंग, दुर्व्यसन आदि सभी अनौचित्यों को निरस्त कर सकने योग्य संघर्षशीलता के लिए कटिबद्ध रहना।


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