अनुष्ठान की विधि

अनुष्ठान किसी भी मास में किया जा सकता है। तिथियों में पन्चमी, एकादशी, पूर्णमासी शुभ मानी गयी हैं। पन्चमी को दुर्गा, एकादशी को सरस्वती, पूर्णमासी को लक्ष्मी तत्त्व की प्रधानता रहती है। शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष दोनों में से किसी का निषेध नहीं है, किन्तु कृष्णपक्ष की अपेक्षा शुक्लपक्ष अधिक शुभ है।

अनुष्ठान आरम्भ करते हुए नित्य गायत्री का आवाहन करें और अन्त करते हुए विसर्जन करना चाहिए। इस प्रतिष्ठा में भावना और निवेदन प्रधान है। श्रद्धापूर्वक ‘भगवती, जगज्जननी, भक्तवत्सला माँ गायत्री यहाँ प्रतिष्ठित होने का अनुग्रह कीजिए’ ऐसी प्रार्थना संस्कृत या मातृभाषा में करनी चाहिए। विश्वास करना चाहिए कि प्रार्थना को स्वीकार करके वे कृपापूर्वक पधार गयी हैं। विसर्जन करते समय प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘आदिशक्ति, भयहारिणी, शक्तिदायिनी, तरणतारिणी मातृके! अब आप विसर्जित हों’। इस भावना को भी संस्कृत में या अपनी मातृभाषा में कह सकते हैं। इस प्रार्थना के साथ- साथ यह विश्वास करना चाहिए कि प्रार्थना स्वीकार करके वे विसर्जित हो गयी हैं।

कई ग्रन्थों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि जप से दसवाँ भाग हवन, हवन से दसवाँ भाग तर्पण, तर्पण से दसवाँ भाग ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए। यह नियम तन्त्रोक्त रीति से किये गये पुरश्चरण के लिए है। इन पंक्तियों में वेदोक्त योगविधि की दक्षिणमार्गी साधना बताई जा रही है। इसके अनुसार तर्पण की आवश्यकता नहीं है। अनुष्ठान के अन्त में १०८ आहुति का हवन तो कम से कम होना आवश्यक है। अधिक सामर्थ्य और सुविधा के अनुसार है। इसी प्रकार त्रिपदा गायत्री के लिए कम से कम तीन ब्राह्मणों का भोजन भी होना ही चाहिए। दान के लिए इस प्रकार की कोई मर्यादा नहीं बाँधी जा सकती। यह साधक की श्रद्धा का विषय है, पर अन्त में दान अवश्य करना चाहिए।

किसी छोटी चौकी, चबूतरी या आसन पर फूलों का एक छोटा सुन्दर- सा आसन बनाना चाहिए और उस पर गायत्री की प्रतिष्ठा होने की भावना करनी चाहिए। साकार उपासना के समर्थक भगवती का कोई सुन्दर- सा चित्र अथवा प्रतिमा को उन फूलों पर स्थापित कर सकते हैं। निराकार के उपासक निराकार भगवती की शक्ति पूजा का एक स्फुल्लिंग वहाँ प्रतिष्ठित होने की भावना कर सकते हैं। कोई- कोई साधक धूपबत्ती, दीपक की अग्रिशिखा में भगवती की चैतन्य ज्वाला का दर्शन करते हैं और उसी दीपक या धूपबत्ती को फूलों पर प्रतिष्ठित करके अपनी आराध्य शक्ति की उपस्थिति अनुभव करते हैं। विसर्जन के समय प्रतिमा को हटाकर शयन करा देना चाहिए, पुष्पों को जलाशय या पवित्र स्थान में विसर्जित कर देना चाहिए। अधजली धूपबत्ती या रुई बत्ती को बुझाकर उसे भी पुष्पों के साथ विसर्जित कर देना चाहिए। दूसरे दिन जली हुई बत्ती का प्रयोग फिर से न होना चाहिए।

गायत्री पूजन के लिए पाँच वस्तुएँ प्रधान रूप से मांगलिक मानी गयी हैं। इन पूजा पदार्थों में वह प्राण है, जो गायत्री के अनुकूल पड़ता है। इसलिए पुष्प आसन पर प्रतिष्ठित गायत्री के सम्मुख धूप जलाना, दीपक स्थापित करना, नैवेद्य चढ़ाना, चन्दन लगाना तथा अक्षतों की वृष्टि करनी चाहिए। अगर दीपक और धूप को गायत्री की स्थापना में रखा गया है, तो उसके स्थान पर जल का अघ्र्य देकर पाँचवें पूजा पदार्थ की पूर्ति करनी चाहिए।

पूर्व वर्णित विधि से प्रात:काल पूर्वाभिमुख होकर शुद्ध भूमि पर शुद्ध होकर कुश के आसन पर बैठें। जल का पात्र समीप रख लें। धूप और दीपक जप के समय जलते रहने चाहिए। बूझ जाय तो उस बत्ती को हटाकर नई बत्ती डालकर पुन: जलाना चाहिए। दीपक या उसमें पड़े हुए घृत को हटाने की आवश्यकता नहीं है।
पुष्प आसन पर गायत्री की प्रतिष्ठा और पूजा के अनन्तर जप प्रारम्भ कर देना चाहिए। नित्य यही क्रम रहे। प्रतिष्ठा और पूजा अनुष्ठान काल में नित्य होती रहनी चाहिए। मन चारों ओर न दौड़े, इसलिए पूर्व वर्णित ध्यान भावना के अनुसार गायत्री का ध्यान करते हुए जप करना चाहिए। साधना के इस आवश्यक अङ्ग के ध्यान में मन लगा देने से वह एक कार्य में उलझा रहता है और जगह- जगह नहीं भागता। भागे तो उसे रोक- रोककर बार- बार ध्यान भावना पर लगाना चाहिए। इस विधि से एकाग्रता की दिन- दिन वृद्धि होती चलती है।

सवा लाख जप को चालीस दिन में पूरा करने का क्रम पूर्वकाल से चला आ रहा है। पर निर्बल अथवा कम समय तक साधना कर सकने वाले साधक उसे दो मास में भी समाप्त कर सकते हैं। प्रतिदिन जप की संख्या बराबर होनी चाहिए। किसी दिन ज्यादा, किसी दिन कम, ऐसा क्रम ठीक नहीं। यदि चालीस दिन में अनुष्ठान पूरा करना हो, तो १२५०००/४०=३१२५ मन्त्र नित्य जपने चाहिए। माला में १०८ दाने होते हैं, इतने मन्त्रों की ३१२५/१०८=२९, इस प्रकार उन्तीस मालाएँ नित्य जपनी चाहिए। यदि दो मास में जप करना हो तो १२५०००/६०=२०८० मन्त्र प्रतिदिन जपने चाहिए। इन मन्त्रों की मालाएँ २०८०/१०८=२० मालाएँ प्रतिदिन जपी जानी चाहिए। माला की गिनती याद रखने के लिए खडिय़ा मिट्टी को गंगाजल में सान कर छोटी- छोटी गोली बना लेनी चाहिए और एक माला जपने पर एक गोली एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख लेनी चाहिए। इस प्रकार जब सब गोलियाँ इधर से उधर हो जाएँ, तो जप समाप्त कर देना चाहिए। इस क्रम से जप- संख्या में भूल नहीं पड़ती।

गायत्री आवाहन का मन्त्र—

                                                          ॐ आयातु   वरदे   देवि !   त्र्यक्षरे   ब्रह्मवादिनि।
                                                           गायत्रिच्छन्दसां   मात:  ब्रह्मयोने   नमोऽस्तुते॥

गायत्री विसर्जन का मन्त्र—

                                                           उत्तमे  शिखरे  देवि !  भूम्यां  पर्वतमूर्धनि।
                                                           ब्राह्मणेभ्यो ह्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम्॥

अनुष्ठान के अन्त में हवन करना चाहिए, तदनन्तर शक्ति के अनुसार दान और ब्रह्मभोज करना चाहिए। ब्रह्मभोज उन्हीं ब्राह्मणों को कराना चाहिए जो वास्तव में ब्राह्मण हैं, वास्तव में ब्रह्मपरायण हैं। कुपात्रों को दिया हुआ दान और कराया हुआ भोजन निष्फल जाता है, इसलिए निकटस्थ या दूरस्थ सच्चे ब्राह्मणों को ही भोजन कराना चाहिए। हवन की विधि नीचे लिखते हैं।


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