नारियों को वेद एवं गायत्री का अधिकार

 
भारतवर्ष में सदा से नारियों का समुचित सम्मान रहा है। उन्हें पुरुषों की अपेक्षा अधिक पवित्र माना जाता रहा है। नारियों को बहुधा ‘देवी’ सम्बोधन से सम्बोधित किया जाता रहा है। नाम के पीछे उनकी जन्मजात उपाधि ‘देवी’ प्राय: जुड़ी रहती है। शान्ति देवी, गंगा देवी, दया देवी आदि ‘देवी’ शब्द पर कन्याओं के नाम रखे जाते हैं। जैसे पुरुष बी० ए०, शास्त्री, साहित्यरत्न आदि उपाधियाँ उत्तीर्ण करने पर अपने नाम के पीछे उस पदवी को लिखते हैं, वैसे ही कन्याएँ अपने जन्म- जात ईश्वर प्रदत्त दैवी गुणों, दैवी विचारों और दिव्य विशेषताओं के कारण अलंकृत होती हैं।


देवताओं और महापुरुषों के साथ उनकी अर्धांगिनियों के नाम भी जुड़े हुए हैं। सीताराम, राधेश्याम, गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण, उमामहेश, माया- ब्रह्म, सावित्री- सत्यवान् आदि नामों से नारी को पहला और नर को दूसरा स्थान प्राप्त है। पतिव्रत, दया, करुणा, सेवा- सहानुभूति, स्नेह, वात्सल्य, उदारता, भक्ति- भावना आदि गुणों में नर की अपेक्षा नारी को सभी विचारवानों ने बढ़ा- चढ़ा माना है।


इसलिये धार्मिक, आध्यात्मिक और ईश्वर प्राप्ति सम्बन्धी कार्यों में नारी का सर्वत्र स्वागत किया गया है और उसे उसकी महत्ता के अनुकूल प्रतिष्ठा दी गयी है। वेदों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट हो जाता है कि वेदों के मन्त्रदृष्टा जिस प्रकार अनेक ऋषि हैं, वैसे ही अनेक ऋषिकाएँ भी हैं। ईश्वरीय ज्ञान वेद महान् आत्मा वाले व्यक्तियों पर प्रकट हुआ है और उनने उन मन्त्रों को प्रकट किया। इस प्रकार जिन पर वेद प्रकट हुए, उन मन्त्रद्रष्टओं को ऋषि कहते हैं। ऋषि केवल पुरुष ही नहीं हुए हैं, वरन् अनेक नारियाँ भी हुई हैं। ईश्वर ने नारियों के अन्त:करण में भी उसी प्रकार वेद- ज्ञान प्रकाशित किया, जैसे कि पुरुषों के अत:करण में; क्योंकि प्रभु के लिये दोनों ही सन्तान समान हैं। महान दयालु, न्यायकारी और निष्पक्ष प्रभु अपनी ही सन्तान में नर- नारी का भेद- भाव कैसे कर सकते हैं?ऋग्वेद १०। ८५ में सम्पूर्ण मन्त्रों की ऋषिका ‘सूर्या- सावित्री’ है। ऋषि का अर्थ निरुक्त में इस प्रकार किया है—‘‘ऋषिर्दर्शनात्। स्तोमान् ददर्शेति (२.११)। ऋषयो मन्त्रद्रष्टर: (२.११ दु. वृ.)।’’ अर्थात् मन्त्रों का द्रष्टा उनके रहस्यों को समझकर प्रचार करने वाला ऋषि होता है।

ऋग्वेद की ऋषिकाओं की सूची बृहद् देवता के दूसरे अध्याय में इस प्रकार है—

                                                              घोषा गोधा विश्ववारा, अपालोपनिषन्निषत्।
                                                              ब्रह्मजाया जुहूर्नाम अगस्त्यस्य स्वसादिति:॥ ८४॥
                                                              इन्द्राणी चेन्द्रमाता च सरमा रोमशोर्वशी।
                                                              लोपामुद्रा च नद्यश्च यमी नारी च शश्वती॥ ८५॥
                                                              श्रीर्लाक्षा सार्पराज्ञी वाक्श्रद्धा मेधा च दक्षिणा।
                                                              रात्री सूर्या च सावित्री ब्रह्मवादिन्य ईरिता:॥ ८६॥

अर्थात्- घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, उपनिषद्, निषद्, ब्रह्मजाया (जुहू), अगस्त्य की भगिनी, अदिति, इन्द्राणी और इन्द्र की माता, सरमा, रोमशा, उर्वशी, लोपामुद्रा और नदियाँ, यमी, शश्वती, श्री, लाक्षा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, दक्षिणा, रात्री और सूर्या- सावित्री आदि सभी ब्रह्मवादिनी हैं।
ऋ ग्वेद के १०- १३४, १०- ३९, ४०, १०- ९१, १०- ९५, १०- १०७, १०- १०९, १०- १५४, १०- १५९, १०- १८९, ५- २८, ८- ९१ आदि सूक्त को की मन्त्रदृष्टा ये ऋषिकाएँ हैं।

ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनसे स्पष्ट होता है कि स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह यज्ञ करती और कराती थीं। वे यज्ञ- विद्या और ब्रह्म- विद्या में पारंगत थीं। कई नारियाँ तो इस सम्बध में अपने पिता तथा पति का मार्ग दर्शन करती थीं।

‘‘तैत्तिरीय ब्राह्मण’’ में सोम द्वारा ‘सीता- सावित्री’ ऋषिका को तीन वेद देने का वर्णन विस्तारपूर्वक आता है—

                                                              तं त्रयो वेदा अन्वसृज्यन्त। अथ ह सीता सावित्री।
                                                              सोमँ राजानं चकमे। तस्या उ ह त्रीन् वेदान् प्रददौ।          - तैत्तिरीय ब्रा०२/३/१०/१,३

इस मन्त्र में बताया गया है कि किस प्रकार सोम ने सीता- सावित्री को तीन वेद दिये ?

मनु की पुत्री ‘इड़ा’ का वर्णन करते हुए तैत्तिरीय ब्रा० १। १। ४। ४ में उसे ‘यज्ञानुकाशिनी’ बताया है। यज्ञानुकाशिनी का अर्थ शायणाचार्य ने ‘यज्ञ तत्त्व प्रकाशन समर्था’ किया है। इड़ा ने अपने पिता को यज्ञ सम्बन्धी सलाह देते हुए कहा—

साऽब्रवीदिडा मनुम्। तथा वा अहं तवाग्निमाधास्यामि। यथा प्र प्रजया पशुभिर्मिथुनैर्जनिष्यसे। प्रत्यस्मिल्लोके स्थास्यसि। अभि सुवर्गं लोकं जेष्यसीति।     
—    तैत्तिरीय ब्रा० १/१/४/६

अर्थात्  इड़ा ने मनु से कहा- तुम्हारी अग्नि का ऐसा आधान करूँगी जिससे तुम्हें पशु, भोग, प्रतिष्ठा और स्वर्ग प्राप्त हो।

प्राचीन समय में स्त्रियाँ गृहस्थाश्रम चलाने वाली थीं और ब्रह्म- परायण भी। वे दोनों ही अपने- अपने कार्यक्षेत्रों में कार्य करती थीं। जो गृहस्थ का संचालन करती थीं,

                                                               ब्रह्म वाऽऋत्विजाम्भिषक्तम:।   — शतपथ ब्रा० १। ७। ४। १९

अर्थात् ब्रह्मा ऋत्विजों की त्रुटियों को दूर करने वाला होने से सब पुरोहितों से ऊँचा है।

                                                               तस्माद्यो ब्रह्मिष्ठ:स्यात् तं ब्रह्माणं कुर्वीत।  — गोपथ ब्रा० उत्तरार्ध १। ३

अर्थात् जो सबसे अधिक ब्रह्मनिष्ठ (परमेश्वर और ब्रह्म का ज्ञाता) हो, उसे ब्रह्मा बनाना चाहिए।

                                                               अथ केन ब्रह्माणं क्रियत इति त्रय्या विद्ययेति ब्रूयात्।  — ऐतरेय ब्रा० ५। ३३

अर्थात्  ज्ञान, कर्म, उपासना तीनों विद्याओं के प्रतिपादक वेदों के पूर्ण ज्ञान से ही मनुष्य ब्रह्मा बन सकता है।

                                                               अथ केन ब्रह्मत्वं इत्यनया, त्रय्या विद्ययेति ह ब्रूयात्।  — शतपथ ब्रा० ११। ५। ८। ७

अर्थात्  वेदों के पूर्ण ज्ञान (त्रिविध विद्या) से ही मनुष्य ब्रह्मा पद के योग्य बनता है।

व्याकरण शास्त्र के कतिपय स्थलों पर ऐसे उल्लेख हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि वेद का अध्ययन- अध्यापन भी स्त्रियों का कार्यक्षेत्र रहा है। देखिए—
‘इडश्च’ ३। ३। २१ के महाभाष्य में लिखा है—
                                                              ‘उपेत्याधीयतेऽस्या उपाध्यायी उपाध्याया’

अर्थात् जिनके पास आकर कन्याएँ वेद के एक भाग तथा वेदांगों का अध्ययन करें, वह उपाध्यायी या उपाध्याया कहलाती है।

मनु ने भी उपाध्याय के लक्षण यही बताए हैं—
                                                               एकदेशं तु वेदस्य वेदांगान्यपि वा पुन:।
                                                               योऽध्यापयति वृत्त्यर्थम् उपाध्याय: स उच्यते॥  — मनु० २। १४१

अर्थात्  जो वेद के एक देश या वेदांगों को पढ़ाता है, वह उपाध्याय कहा जाता है।

                                                               आचार्यादणत्वं।  — अष्टाध्यायी ४। १। ४९

इस सूत्र पर सिद्धान्त कौमुदी में कहा गया है—
                                                              आचार्यस्य स्त्री आचार्यानी पुंयोग इत्येवं आचार्या स्वयं व्याख्यात्री।

अर्थात् जो स्त्री वेदों का प्रवचन करने वाली हो, उसे आचार्या कहते हैं।

आचार्या के लक्षण मनुजी ने इस प्रकार बतलाए हैं—

                                                              उपनीयं तु य: शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विज:।
                                                              सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते॥  — मनु २। १४०

अर्थात्  जो शिष्य का यज्ञोपवीत संस्कार करके कल्प सहित, रहस्य सहित वेद पढ़ाता है, उसे आचार्य कहते हैं।

स्वर्गीय महामहोपाध्याय पं० शिवदत्त शर्मा ने सिद्धान्त कौमुदी का सम्पादन करते हुए इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए लिखा है—

                                                            ‘‘इति वचनेनापि स्त्रीणां वेदाध्ययनाधिकारो ध्वनित:।’’

अर्थात्- इससे स्त्रियों को वेद पढऩे का अधिकार सूचित होता है।

उपर्युक्त प्रमाणों को देखते हुए पाठक यह विचार करें कि ‘स्त्रियों को गायत्री का अधिकार नहीं’ कहना कहाँ तक उचित है?


मालवीय जी द्वारा निर्णय ।

हिन्दूधर्म वैज्ञानिक धर्म है, विश्व धर्म है। इसमें ऐसी विचारधारा के लिये कोई स्थान नहीं है, जो स्त्रियों को धर्म, ईश्वर, वेद विद्या आदि के उत्तम मार्ग से रोककर उन्हें अवनत अवस्था में पड़ी रहने के लिए विवश करे। प्राणीमात्र पर अनन्त दया एवं करुणा रखने वाले ऋषि- मुनि ऐसे निष्ठुर नहीं हो सकते, जो ईश्वरीय ज्ञान वेद से स्त्रियों को वंचित रखकर उन्हें आत्मकल्याण के मार्ग पर चलने से रोकें। हिन्दूधर्म अत्यधिक उदार है, विशेषत: स्त्रियों के लिए तो उसमें बहुत ही आदर, श्रद्धा एवं उच्च स्थान है। ऐसी दशा में यह कैसे हो सकता है कि गायत्री उपासना जैसे उत्तम कार्य के लिए उन्हें अयोग्य घोषित किया जाए?



प्रतिष्ठित गणमान्य विद्वानों की भी ऐसी ही सम्मति है। साधना और योग की प्राचीन परम्पराओं के जानकार महात्माओं का कथन भी यही है कि स्त्रियाँ सदा से ही गायत्री की अधिकारिणी रही हैं। स्वर्गीय मालवीय जी सनातन धर्म के प्राण थे। पहले उनके हिन्दू विश्वविद्यालय में स्त्रियों को वेद पढऩे की रोक थी, पर जब उन्होंने विशेष रूप से पण्डित मण्डली के सहयोग से इस सम्बन्ध में स्वयं खोज की तो वे भी इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि शास्त्रों में स्त्रियों के लिए कोई प्रतिबन्ध नहीं है।  हम स्वयं भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। हमारा ऐसी पचासों स्त्रियों से परिचय है जिनने श्रद्धापूर्वक वेदमाता गायत्री की उपासना की है और पुरुषों के ही समान सन्तोषजनक सफलता प्राप्त किए हैं। कई बार तो उन्हें पुरुषों से भी अधिक एवं शीघ्र सफलताएँ मिलीं।  आत्मिक प्रकाश प्राप्त करने के लिए जैसे पुरुष को किसी गुरु या पथ- प्रदर्शक की आवश्यकता होती है, वैसे ही स्त्री को भी होती है। तात्पर्य यह है कि साधना क्षेत्र में पुरुष- स्त्री का भेद नहीं। साधक ‘आत्मा’ है, उन्हें अपने को पुरुष- स्त्री न समझ कर आत्मा समझना चाहिए। साधना क्षेत्र में सभी आत्माएँ समान हैं। पर स्त्रियों का कार्यक्षेत्र बड़ा सरल, सीधा और सात्त्विक है। घर में जो कार्य करना पड़ता है, उसमें सेवा की मात्रा अधिक रहती है। वे आत्मनिग्रह करती हैं, कष्ट सहती हैं, पर बच्चों के प्रति, पतिदेव के प्रति, सास- ससुर, देवर- जेठ आदि सभी के प्रति अपने व्यवहार को सौम्य, सहृदय, सेवापूर्ण, उदार, शिष्ट एवं सहिष्णु रखती हैं। उनकी दिनचर्या सतोगुणी होती है, जिसके कारण उनकी अन्तरात्मा पुरुषों की अपेक्षा अधिक पवित्र रहती है। चोरी, हत्या, ठगी, धूर्तता, शोषण, निष्ठुरता, व्यसन, अहंकार, असंयम, असत्य आदि दुर्गुण पुरुष में ही प्रधानतया पाये जाते हैं। स्त्रियों में इस प्रकार के पाप बहुत कम देखने को मिलते हैं।

हमने भली प्रकार खोज विचार, मनन और अन्वेषण करके यह पूरी तरह विश्वास कर लिया है कि स्त्रियों को पुरुषों की भाँति ही गायत्री का अधिकार है। वे भी पुरुषों की भाँति ही माता की गोदी में चढऩे की, उसका आँचल पकडऩे की, उसका पय:पान करने की पूर्ण अधिकारिणी हैं। उन्हें सब प्रकार का संकोच छोडक़र प्रसन्नतापूर्वक गायत्री की उपासना करनी चाहिए। इससे उनके भव- बन्धन कटेंगे, जन्म- मरण की फाँसी से छूटेंगी, जीवन- मुक्ति और स्वर्गीय शान्ति की अधिकारिणी बनेंगी, साथ ही अपने पुण्य प्रताप से अपने परिजनों के स्वास्थ्य, सौभाग्य, वैभव एवं सुख- शान्ति की दिन- दिन वृद्धि करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग दे सकेंगी। गायत्री को अपनाने वाली देवियाँ सच्चे अर्थों में देवी बनती हैं। उनके दिव्य गुणों का प्रकाश होता है, तदनुसार वे सर्वत्र उसी आदर को प्राप्त करती हैं जो उनका ईश्वर प्रदत्त जन्मजात अधिकार है।



अपने सुझाव लिखे: