जप और ध्यान


नित्य गायत्री जप, उदित होते स्वर्णिम सविता का ध्यान, नित्य यज्ञ, अखण्ड दीप का सान्निध्य, दिव्यनाद की अवधारणा, आत्मदेव की साधना की दिव्य संगम स्थली है- शान्तिकुंज गायत्री तीर्थ।

जप:-


उपासना में जप प्रधान है। जप में वाणी की उच्चारण क्षमता द्वारा मस्तिष्क को प्रभावित किया जाता है। एक ही प्रकार के विचार एक समय में मस्तिष्क में छाये रहें इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक ही प्रकार की शब्दावली को लगातार जपा जाता है। इस पुनरावृत्ति प्रक्रिया को लगातार जारी रखने में मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाह का एक चक्र बन जाता है जिससे चेतना को उस विशेष स्थिति में ढलने का अवसर मिलता है जिसके लिए मंत्र की संरचना हुई है। मंत्र जप के सूक्ष्म माहात्म्य असंख्य है पर मोटी जानकारी के रूप में यह समझा जा सकता है कि चेतना के स्तर को किसी विशेष स्तर का बनाने में मंत्र जप का बहुत महत्त्व है। जप और ध्यान दोनों को मिला देने से एक पूर्ण साधना चक्र बनता है। मुख गह्वर में होने वाली जप श्रम की सार्थकता ध्यान के रूप में मनोयोग का सम्मिश्रण हो जाने से ही बनती है।

गायत्री जप में होठ, कंठ, जिह्वा, तो चलते रहते हैं पर उच्चारण इतना अस्पष्ट होता है कि समीप बैठा व्यक्ति उसकी ध्वनि तो सुने पर साफ तौर से यह न समझ सके कि क्या कहा जा रहा है। माला में तर्जनी उँगली का स्पर्श नहीं किया जाता। अँगूठा, मध्यमा और अनामिका इन तीनों से ही मनके घुमाते रहते हैं। मध्य का बड़ा दाना ‘सुमेरू’ उल्लंघन नहीं किया जाता एक माला पूरी होने पर उसे वापस लौटा लेते हैं।

ध्यान:-

ध्यान में श्रद्धा की प्रमुखता रहती है। श्रद्धा- ईश्वर के प्रति उत्कृष्टता के प्रति इतनी प्रगाढ़ होनी चाहिए कि समीपता भर से काम न चले, परस्पर एकीभूत होने की भावना उभरे। मित्र की समीपता से काम चल सकता है। किन्तु पति- पत्नी के बीच समीपता मात्र पर्याप्त नहीं। उनमें सघन आत्मीयता का स्तर इतना ऊँचा होना चाहिए कि दोनों एक दूसरे के अन्तःकरण में निवास करने लगें। अपनी सत्ता को साथी की सत्ता मे घुला दें। दोनों की आकांक्षायें दिशाधारायें एक बन जायें। स्वार्थों में भिन्नता न रह कर पूर्ण एकता स्थापित हो जाय। अर्धांगिनी की यही स्थिति होनी चाहिए। अर्धनारी नटेश्वर की प्रतिमाओं में आधा अंग शिव का आधा पार्वती का दिखाया गया है, ऐसी प्रतिमायें राधा कृष्ण और सीताराम की भी मिलती हैं जिनमें आधा अंग नर का और आधा नारी का दिखाया गया है। ध्यान योग में इसी आत्म समर्पण की स्थिति तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। मुक्ति के चार स्तर हैं उनमें सालोक्य, सामीप्य, तो मैत्री, स्थिति है। सारूप्य और सायुज्य को समर्पण माना गया है। आत्मा और परमात्मा के बीच इसी स्तर की एकता होनी चाहिए जिसमें भक्त को भिक्षुक और भगवान को दानी बनकर रहना पड़े। दोनों के बीच एकत्व का अद्वैत का भाव विकसित हो। दोनों की आकांक्षाएँ आस्थाएँ और मान्यताएँ एक जैसी हों। मतभेद की गुन्जायश न रहे। यही ध्यान योग का लक्ष्य है।   

आरम्भिक ध्यान माता का है। तदुपरान्त पिता का। गायत्री को माता और सविता को पिता कहा गया है। बालक का प्रथम परिचय माता से होता है और अनुग्रह भी उसी का मिलता है। पिता का परिचय और सहयोग बाद में मिलना आरम्भ होता है। माता स्नेह देती है पिता प्रखर बनाने का उत्तरदायित्व संभालता है। माता की आंख में प्यार भरा रहता है। पिता की में विकास और सुधार। दोनों के समन्वय से ही प्रगति का समानपथ प्रशस्त होता है। अस्तु आरम्भिक साधकों को माता के साकार रूप को और आगे बढ़ चलने पर सविता पिता के निराकार तेजस्वी रूप का ध्यान करना चाहिए। जप के साथ ध्यान की प्रक्रिया चलाते रहने से मन के न लगने पर भागने- फिरने की कठिनाई दूर हो जाती है।

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