ध्यान

साधना स्वर्ण जयंती वर्ष में हम आपको गायत्री उपासना के साथ-साथ विशेष रूप से जो शिक्षण देते हैं, वह ध्यान का शिक्षण है। उपासनाएँ दो हैं-नाम और रूप की उपासनाएँ। राम और रूप के बिना उपासना हो नहीं सकती। यह दो यूनीवर्सल उपासनाएँ हैं। किसी भी मजहब में चले जाइए व्यक्ति नाम जरूर ले रहा होगा। मुसलमान तसबीह पर नाम ले रहा होगा। ईसाई पादरियों को आप माला जपते हुए देखेंगे। आर्यसमाजी प्रकाश का ध्यान कर रहे होंगे। अन्य अमुक तरह का ध्यान कर रहे होंगे। नादयोग वाले कान में आने वाली आवाज का ध्यान कर रहे होंगे। बहरहाल ध्यान जरूर करना पड़ता है। ध्यान के बिना गति किसी की नहीं है। इसीलिए हमने कहा है कि जप के साथ-साथ आप ध्यान किया कीजिए। स्थूल ध्यान मूर्तिपूजा के माध्यम से होता है, तसवीरों के माध्यम से होता है, क्योंकि मनुष्य का मानसिक विकास इतना नहीं हो पाया है कि वह बिना किसी फोटोग्राफ के, बिना किसी मूर्ति के किसी चीज का ध्यान कर सके, लेकिन जब वह विषय पक्का हो जाता है, तब फिर मूर्ति की कोई खास जरूरत नहीं रह जाती। तब हम अपने भीतर बैठे हुए भगवान का साक्षात्कार कर सकते हैं। उसका ध्यान कर सकते हैं।
 
ध्यान का क्या मतलब है? ध्यान का मतलब है कि हमारे जीवन के दो पक्ष हैं। एक पक्ष वह है जो बाहर फैला हुआ पड़ा है। बाहर की चीजें हमको दिखाई पड़ती हैं किंतु भीतर की चीजें हमको बिलकुल दिखाई नहीं पड़ती। तो क्या भीतर कोई चीज नहीं है? बेटे असल में जो कुछ भी चीज है, वह भीतर ही है बाहर नहीं है बाहर केवल दिखाई पड़ती हैं, पर असल में हर चीज भीतर है। अपने भीतर झाँकने का नाम ही ध्यान है।
 
ध्यान किसका किया जाता है? स्वयं का या भगवान का? बेटे स्वयं तो क्या और भगवान तो क्या दोनों एक ही हैं। स्वयं का विकसित रूप ही भगवान है। हमारा विकसित रूप जो है-'शिवोहं' है 'सच्चिदानंदोहं' 'तत्त्वमसि' 'अयमात्माब्रह्म' 'प्रज्ञानंब्रह्म' है। वेदांत के यह सारे के सारे महावाक्य यह बताते हैं कि हमारा परिष्कृत रूप भगवान है। हमारा भगवान हमारा परिष्कृत रूप ही है।  अगर हम अपने आप को साफ कर लें तो हम उसको प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए हम प्रकाश का ध्यान करते हैं, भीतर वाले का ध्यान करते हैं। अपने लक्ष्य का ध्यान करते हैं, जीवन का ध्यान करते हैं तो गुरुजी आपने इसीलिए सूरज का ध्यान बता दिया है? हाँ बेटे, वह तो हमने प्रतीक बता दिया है। उसकी चमक देखकर अगर आप यह अंदाजा लगाते हों कि हमारे ध्यान में चमक आ जाती हैं या नहीं आती हैं अथवा आपके ध्यान में गायत्री माता आ जाती हैं, या नहीं आती हैं, तो उससे बनता-बिगड़ता नहीं है। उससे केवल यह बात साबित होती है कि आपके दिमाग की परिपक्व अवस्था आई कि नहीं। प्रकाश से मेरा मतलब वह नहीं है जो आप समझते है। प्रकाश को अध्यात्म में जिस अर्थ में लिया गया है, उस अर्थ से मेरा मतलब है। प्रकाश 'डिवाइन लाइट' लेटेंट लाइट या जान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। यह चमक के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। चमक का अर्थ ज्ञान है। जिस प्रकाश के लिए हमने कहा है, वह है जिसके लिए भगवान से हमने प्रार्थना की है 'तमसो मा ज्योतिर्गमय'। हे भगवान! हमको अंधकार की ओर नहीं प्रकाश की ओर ले चलिए। अध्यात्म में प्रकाश शब्द कहीं भी प्रयुक्त हुआ है, वहाँ ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
 
ध्यान के लिए जो हमने यह बताया कि आप प्रकाश का ध्यान किया कीजिए, तो कहाँ-कहाँ प्रकाश का ध्यान किया करें?  हमने आपको तीन जगह ध्यान करने के लिए कहा है। एक आप मस्तिष्क में ध्यान किया कीजिए। दूसरा अंतरात्मा में हृदय स्थान पर और तीसरा नाभि स्थान पर ध्यान किया कीजिए। हमारे तीन शरीर हैं और तीनों शरीरों के ये तीन केंद्र हैं। इन तीनों के भीतर प्रकाश चमकना चाहिए। प्रकाश हमारे तीनों शरीरों के भीतर प्रविष्ट होना चाहिए। इसका क्या अर्थ है? इसका अर्थ यह है कि प्रकाश जब हमारी नसों में आए, नाड़ियों में आए, शरीर में आए तो नाभि में होकर आए। नाभि में से होकर इसलिए कि माता और बच्चे का जो संबंध-सूत्र है, वह नाभि से जुड़ा होता है। इसलिए स्थूलशरीर का केन्द्र नाभि को माना गया है। जिस प्रकार माता के शरीर में से उसका रक्त नाभि से होकर हमारे शरीर में आता था और दोनों का संबंध जुड़ा हुआ था, उसी प्रकार भगवान का प्रकाश नाभि में से होकर हमारे शरीर के भीतर आता है। जब वह प्रकाश आएगा, तब आपकी हड्डियाँ चमकेगी, रक्त चमकेगा, माँस चमकेगा। चमकने से मेरा मकसद यह है कि तब आपके भीतर कर्मनिष्ठा, स्फूर्ति, साहसिकता, श्रम के प्रति प्यार, कर्मों के प्रति प्यार, कर्मयोग के प्रति प्यार, कर्तव्य-परायणता के प्रति प्यार उभरेगा। यह कर्मयोग है। कर्मयोग शरीर का रोग है। प्रकाश का ध्यान करने वाला कभी खाली बैठ नहीं सकता। वह सतत सत्कर्मरत ही रहेगा।

पाँच प्रकार के ध्यान

पहला ध्यान हमने अग्नितत्त्व का बताया है, जिसका माध्यम नेत्र हैं। दूसरा ध्यान है नाद का। ''नादयोग'' किसे कहते हैं? नादयोग के दो हिस्से हैं। एक हिस्सा वह है, जो गाने के माध्यम से, संगीत के माध्यम से करते हैं। जब हम गाना सुनकर कानों को बंद कर लेते हैं तो बाद में कई तरह की आवाजें सुनाई पड़ती हैं। कभी घंटे की आवाज, घड़ियाल की आवाज, कभी अमुक की आवाज, बादल गरजने की आवाज, पानी बरसने की आवाज, शंख बजने की आवाज सुनाई देती है। यह सब नादयोग का हिस्सा है। नादयोग का दूसरा हिस्सा वह है, जिसमें शब्द के साथ-साथ में हम लय हो जाते हैं। इसमें अखण्ड कीर्तन भी शामिल है, संगीत भी शामिल है, ओंकार की ध्वनि भी शामिल है ।

नादयोग कानों के माध्यम से शब्दों को सुनने की एक प्रक्रिया है, जो कबीर पंथ में सिखाई जाती है और कई मतावलम्बियों में सिखाई जाती है। नाथ संप्रदाय में सिखाई जाती हैं। वह तो मैं नहीं सिखाना चाहूँगा, लेकिन शब्द के माध्यम से अपने आप को लय कर देना, मन को, ध्यान को एकाग्र कर देना, यह भी एक तरीका हैं। इसके लिए ओंकार की ध्वनि सबसे श्रेष्ठ माध्यम है। अहमदाबाद में एक योगाश्रम है, जहाँ ओंकार की ध्वनि के साथ आदमी के मन को लय करना सिखाया जाता है। मन को लय करते करते साधक वहाँ पहुँच जाते हे, जहाँ पर हम अपने मन को ले जाना चाहते हैं। इसमें भगवान तक पहुँचने की वह समाधि अवस्था भी आ सकती है, जो हर साधक का लक्ष्य है। अभी मैं आपको इसकी प्रक्रिया सिखाने की व्याख्या कर रहा हूँ, विधियों नहीं सिखा रहा, वरन समझा रहा हूँ। इनमें पाँचों का समन्वय हो सकता है और पाँचों में से एक को लेकर भी आगे बढ़ सकते हैं। यह ध्यानयोग की बात मैं आपको बता रहा हँ ।

अगला योग हमारी नासिका से संबंधित है। तीसरी इंद्रिय है-नाक। नाक से हमें क्या करना पड़ता है? नाक से जब हम साँस अंदर खींचते हैं तो सामान्य प्राणायाम करना पड़ता है और प्राणायाम में ध्यान करना पड़ता है। प्राणायाम क्या है? एक ध्यान है। प्राणायाम में पाँच तत्त्वों में ध्यान ही ध्यान करते रहिए। जब हम साँस भीतर खींचते हैं तो ध्यान करते हैं कि साँस भीतर जा रही है, अब यह यहाँ तक पहुँच गई, इतनी देर तक रुकी रही, इतनी देर तक बाहर निकली, यह सब ध्यान का हिस्सा है। बाहर कितनी देर तक रुकी हुई है, यह सब ध्यान का हिस्सा है। जब हम प्राणायाम के माध्यम से ध्यान करते हैं तो साँस माध्यम बनती है। इससे मन का निग्रह करते हैं, मन को भागने से रोकते हैं, काबू में लाते हैं, मन को एक काम में लगा देते हैं। तब क्या हो जाता है, प्राणयोग होता है ।

बिंदुयोग हो गया, प्राणयोग हो गया, नादयोग हो गया। अब अगला योग आता है, जो हमारी जीभ का है। जीभ का क्या है? बेटे, जीभ का जो ध्यान है, वह जप है। जप किससे होता है? शब्द से। और शब्द कहाँ से निकलता है? हमारी वाणी से निकलता है। इसे जपयोग कहते हैं। जप के भी दो भाग हैं-जिह्वा का एक भाग उच्चारण करता है तो दूसरा भाग स्वाद चखता है। जिह्वा का जो भाग स्वाद चखता है, उसके लिए दूसरा अभ्यास कराते हैं और उसका नाम है-'खेचरी मुद्रा'। इस तरह जीभ का उच्चारण वाला अभ्यास है-जपयोग एवं स्वाद वाला अभ्यास है-खेचरी मुद्रा। खेचरी मुद्रा वाले अभ्यास से रसानुभूति होती है। रस के माध्यम से हम ध्यान को एकाग्र करते हैं। मन के एकाग्र होने के पश्चात हमारे पास इतना बड़ा हथियार आ जाता है कि उसकी तुलना में और कोई हथियार नहीं है। ये सारे के सारे पाँच ध्यान हैं, पाँच योग हैं, जो पाँचों इंद्रियों के माध्यम से हम आपको यहाँ सिखाते हैं। ये गायत्री की पंचकोशीय साधना से आसान हैं, जिनको हम सिखाते हैं।

मित्रो! हमने आपकी उपासना में इन्हें कैसे समन्वय किया हुआ है और समन्वय के साथ-साथ इसकी कैसे वृद्धि होनी चाहिए यह सब आगे अच्छी तरह से समझाने की कोशिश करेंगे। अभी तो हम इसकी भूमिका बता रहे हैं, कल से मैं आपको बताऊँगा कि इन पाँचों योगों का सम्मिश्रण हमने किस तरह से किया हुआ है? गायत्री उपासना में ध्यान के द्वारा मन को एकाग्र करने के लिए जो पहला उसूल आता है, उसको हमने आपको पहले भी बताया है, उसे आप न भूले होंगे। ध्यान के लिए गीता में जो उपाय बताए गए हैं, यदि उन्हें आप अपनाएँ तो आपका ध्यान सार्थक हो जाए। गीता में अर्जुन पूछता है कि से भगवान! यह मन तो हवा की तरह है, भाग जाता है, काबू में नहीं आता, रोकने से भी नहीं रुकता। इसको कैसे रोकें? तो उन्होंने जो उपाय बताए उनके नाम हैं-वैराग्य और अभ्यास ।
 
 
यह ध्यान जो हम आपको बताते हैं-मेडिटेशन कराते हैं और कहते हैं कि अपने मन का बिखराव-फैलाव रोकिए। फैलाव के कारण न आपका विद्या पढ़ने में मन लगता है, न स्वास्थ्य संवर्द्धन में कभी मन लगता है। हर समय बिखराव ही बिखराव। यह जो मन की अस्त-व्यस्त स्थिति है, इसको आप इकट्ठा कीजिए भगवान के माध्यम से, जप के माध्यम से, ध्यान के माध्यम से और प्रत्येक काम को जब करना हो तो इतना तीखा अभ्यास डालिए कि जब जो काम करना पड़े उसी में तन्मय हो जाएँ। सांसारिक कार्य में भी और भगवान के कार्य में भी। यह एकाग्रता अध्यात्मिकता का गुण है। आप जब भी जो भी काम करें उसमें इतने तन्मय हो जाएँ कि 'वर्क इन वर्क', 'प्ले इन प्ले' अर्थात जब आप खेलें तो इस कदर खेलें कि खेल के अतिरिक्त और कोई चीज ध्यान में ही न रहे और जब आप काम करें तो इस मुस्तैदी से काम करें कि काम के अलावा आपको कोई दूसरी चीज दिखाई ही न पड़े। इस तरह की तन्मयता के साथ किए गए काम सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचा देते हैं।  यह एकाग्रता का चमत्कार है। आपको एकाग्रता केवल भजन में ही नहीं लानी है, वरन हर काम में इसका अभ्यास करना है।
 



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