आपके मस्तिष्क में-मन में जब प्रकाश आए, तब आपको ज्ञानयोगी होना चाहिए। कर्मयोगी शरीर से, ज्ञानयोगी मस्तिष्क से। आपके मस्तिष्क के भीतर जो भी विचार आएँ निषेधात्मक नहीं, विधेयात्मक विचार आने चाहिए। अभी तो आप लोगों के मस्तिष्क में विचारों को कितनी भीड़, कितने मक्खी मच्छर, कितनी वे चीजें जो आपके किसी काम की नहीं हैं, कितने विचार, कितनी कल्पनाएँ आती रहती हैं। उनका यदि आप विश्लेषण करें तो देखेंगे कि मस्तिष्क में जाने कितने मक्खी-मच्छरों जैसे विचार भरे पड़े हैं। अभी उनमें से एक तो गुस्से का भरा था, एक कामवासना का विचार करता रहा, एक सिनेमा का विचार करता रहा। एक यह विचार करता रहा कि मैंने लॉटरी के तीन टिकट खरीदे हैं, उसमें से तीन-तीन लाख रुपए तो मिल ही जाएँगे। उन रुपयों से क्या-क्या करूँगा? अमुक काम करूँगा, अमुक बच्चे को, अमुक को दूँगा। आदि बेसिर-पैर की सारी को सारी बातें सारे के सारे ताने-बाने बुन रहा है। इससे आपकी सारी शक्तियाँ निरर्थक होती जा रही हैं। यह सब बेकार की कल्पनाएँ हैं जिनके पीछे न कोई तारतम्य है, न वास्तविकता है और न इनसे आपको कुछ लेना-देना है। इस प्रकार की कल्पनाएँ निरर्थक और अनर्थमूलक ही होती हैं। सार्थक कल्पनाएँ अगर आपके मस्तिष्क में आई होती, क्रमबद्ध रूप से आपने विचार किया होता तो आपमें से अधिकांश व्यक्ति वाल्टेयर हो गए होते, रवीन्द्रनाथ टैगोर हो गए होते अगर आपने अपनी कल्पनाओं को क्रमबद्ध बनाया होता, दिशाबद्ध बनाया होता, उत्कृष्ट और सक्षम बनाया होता। हमारी एक ही विशेषता है कि हम विद्वान हैं। इसलिए विद्वान हैं कि हमने अपने चिंतन की धाराओं को सीमाबद्ध-दिशाबद्ध करके रखा है। हमारा चिंतन अनावश्यक बातों में कभी भी नहीं जाता। जब कभी जाएगा, क्रमबद्ध बातों में जाएगा, दिशाबद्ध बातों में जाएगा, आदर्श बातों में जाएगा और जो संभव है उनमें जाएगा। हमारा मस्तिष्क इतना ताना-बाना बुनता है कि वह एक वास्तविकता और व्यावहारिकता पर टिका रहता है। जो अवास्तविक है, अव्यावहारिक है और जो अनावश्यक है, ऐसे सारे के सारे विचारों को हम बाहर से ही मना कर देते हैं कि-'नो एडमीशन' यहाँ नहीं आ सकते, बाहर जाइए। आपको दाखिला हमारे मस्तिष्क में नहीं मिल सकता।
मित्रो, ज्ञानयोग उस चीज का नाम है, जिसमें कि अपने भीतर चिंतन में जो अवांछनीय तत्त्व घुलते चले जाते हैं, उनको हम हिम्मत के साथ रोकें और जिन चीजों की आवश्यकता है, जो चिंतन हमारे भीतर आना चाहिए उस चिंतन को बुला करके-निमंत्रित करके अपने भीतर स्थिर करें, तो हमारा मस्तिष्क वह हो सकता है जिसे हम ज्ञान का भण्डार कह सकते हैं।
विद्या की दृष्टि से, ज्ञान की दृष्टि से, सुलझाव की दृष्टि से एक से एक बहुमूल्य चीजें इसके भीतर से निकलती हुई चली आ सकती हैं। ज्ञान की गंगा हमले मस्तिष्क में से वैसी ही बह सकती है जैसे कि शंकर जी के मस्तिष्क में से प्रवाहित होती थी। हमारे मस्तिष्क में संतुलन का चंद्रमा उसी तरीके से टँगा रह सकता है जैसे कि शंकर भगवान के मस्तिष्क पर टँगा हुआ था और हमारा तीसरा नेत्र-विवेक का नेत्र, दूरदर्शिता का नेत्र उसी तरीके से खुल सकता है जैसे कि शंकर भगवान के मस्तिष्क पर खुला हुआ था। मित्रो, यह ज्ञानयोग की साधना है। प्रकाश चमकना चाहिए हमारे ज्ञान को और विचारों को संतुलित और सुव्यवस्थित करने के लिए। अगर आपको ऐसा ज्ञान आए तो में समझूँगा कि हमने आपको अनुष्ठान में और साधना स्वर्ण-जयंती वर्ष में सम्मिलित करके जिस ध्यान की बाबत बताया है उसको आपने जान लिया और उसका व्यवहारिक स्वरूप समझ गए। अगर आप उसका व्यावहारिक रूप नहीं जान पाए और कल्पनालोक में ही उड़ते रहे तो फिर ख्वाब ही देखते रहेंगे, सपने ही देखते रहेंगे। अध्यात्म सपना नहीं व्यावहारिक है। यह हमारे इसी जीवन से ताल्लुक रखता है और आज से ताल्लुक रखता है। ख्वाबों का अध्यात्म नहीं है, सपनों का अध्यात्म नहीं है। ख्वाबों का-सपनों का भगवान नहीं है। भगवान है तो वह जो हमारे आज के अभी के जीवन में आना चाहिए और हमारे व्यक्तित्व के रूप में प्रकट होना चाहिए। हमारे भीतर से प्रकट होना चाहिए।
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