ऋषियों का विज्ञान है यह

वैज्ञानिक अध्यात्म के मन्त्रदृष्टा युगऋषि पं० श्रीराम शर्मा आचार्य की चेतना- चिन्तन में निमज्जित थी। यह सन १९४६ ई. के सितम्बर माह की सुबह थी। अभी एक दिन पहले ही उनका शारीरिक जन्म दिन था। इस जन्म दिवस वाले दिन ब्रह्म बेला में उन्हें समाधि के शिखरों पर कुछ संकेत- कुछ सन्देश प्राप्त हुए थे। यूं तो अपनी मार्गदर्शक सत्ता के प्रथम मिलन वाले ब्रह्ममुहूर्त वसंत पर्व १९२६ से प्रत्येक दिन का ब्रह्ममुहूर्त उनके लिए विशिष्ट होता आया था। पर इस दिन इसकी विशिष्टता कुछ खास विशेष थी। हिमालय की ऋषि सत्ताओं एवं सद्गुरुदेव स्वामी सर्वेश्वरानन्द की सूक्ष्म अनुभूतियों की शृंखला के साथ उनके चिदाकाश में- 'वैज्ञानिक अध्यात्म के दो शब्द महामन्त्र की तरह प्रकाशित और ध्वनित हुए थे। यह वैज्ञानिक अध्यात्म के महामन्त्र का प्रथम साक्षात्कार था। ऐसा साक्षात्कार कराने वाली दिव्य अनुभूतियों के बाद हमेशा ही उनके अन्तर्जगत् एवं बाह्य जगत् में घटनाक्रमों का एक क्रम चल पड़ता था।
      अन्तर्जगत् के घटनाक्रम तो उन्हें उस दिन से ही अनुभव हो रहे थे। आज बाह्य जगत् में भी उस पत्र के रूप में उन्हें कुछ संकेत मिल रहे थे, जो इस समय उनके हाथों में था। और जिसने उनकी चेतना को चिन्तन में निमग्र कर दिया था। यह पत्र रामनारायण केडिया का था। केडिया जी पिछले तीन- चार सालों से अखण्ड ज्योति परिवार के सक्रिय सदस्य थे। आचार्य जी से भी उनका गहरा भावनात्मक लगाव था। उनसे मिलने के लिए वर्ष में दो- तीन बार उनका अखण्ड ज्योति कार्यालय मथुरा आना होता रहता था। जहाँ तक पत्र की बात है तो सप्ताह में एक पत्र अवश्य लिखते थे। आज का पत्र भी उनके नियमित पत्रों की कड़ी में से एक था। इस पत्र में उन्होंने लिखा था कि पिछले दिनों उनका शान्ति निकेतन जाना हुआ। केडिया जी कलकत्ता में रहते थे। शान्ति निकेतन उनके निवास से बहुत दूर नहीं था। पहले भी वह कई बार शान्ति निकेतन जा चुके थे। इस बार की विशेष बात उनकी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से भेंट थी।
       द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध विद्वान, समालोचक एवं साहित्यकार थे। सन् १९३० ई. से वह शान्ति निकेतन में हिन्दी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे। हालांकि वह रहने वाले बलिया (उ.प्र.) के थे। अपनी शिक्षा उन्होंने वाराणसी में पूर्ण की थी। पर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के प्रेमपाश ने उन्हें शान्ति निकेतन से बांध रखा था। अब जबकि विश्वकवि इस धरती पर नहीं रहे, उनके पुत्र रथीबाबू के आग्रह के कारण वह यहाँ थे। यद्यपि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय सहित अनेकों ख्याति प्राप्त संस्थाओं से उन्हें आमंत्रण आ रहे थे, परन्तु शान्ति निकेतन उन्हें प्रिय था। इन्हीं आचार्य द्विवेदी जी से केडिया जी ने मुलाकात की थी और उन्हें अखण्ड ज्योति मासिक पत्रिका के पिछले अंक सौंपते हुए युगऋषि आचार्य श्री का परिचय दिया था। अखण्ड ज्योति के उद्देश्य, लेखन शैली की नवीनता, भाषा की प्राञ्जलता और अध्यात्म विषय के सर्वथा नवीन प्रस्तुतीकरण ने द्विवेदी जी को बहुत प्रभावित किया था। उन्होंने रामनारायण केडिया से कहा था कि कभी अखण्ड ज्योति पत्रिका के सम्पादक को यहाँ बुलाओ। मैं भी उनसे भेंट करना चाहता हूँ।
      अपने पत्र में केडिया जी ने इन्हीं सब बातों को विस्तार से लिखा था। उनके लिखे हुए इसी विवरण को युगऋषि आचार्य श्री पढ़ रहे थे। यह पत्र पढ़ते हुए पत्र में जो लिखा था, उसके अलावा कुछ विशेष आचार्य श्री की चिन्तन- चेतना में स्पन्दित हुआ। उन्होंने अखण्ड ज्योति कार्यालय के एक व्यक्ति को बुलाकर केडिया जी को अपने कलकत्ता आने का टेलीग्राम करने को कहा। और स्वयं आनन- फानन कलकत्ता की यात्रा की तैयारियाँ करने में जुट गए। यद्यपि वह इसके पहले कई बार कलकत्ता एवं शान्ति निकेतन जा चुके थे। पिछली बार की शान्ति निकेतन यात्रा में उनकी मुलाकात विश्वकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर से हुई थी। तब रवीन्द्र बाबू काफी बीमार चल रहे थे। परन्तु इसे संयोग कहें या दैवयोग उस समय हजारी प्रसाद द्विवेदी कहीं बाहर गए हुए थे।
    इस बार द्विवेदी जी ने स्वयं भेंट- मुलाकात के लिए आग्रह किया था। उनके आग्रह एवं दैवी विधान से प्रेरित हो वह दो दिन की यात्रा पूरी करके केडिया जी के निवास पर पहुँच गए। केडिया जी को तो ऐसा लगा जैसे कि विदुर के घर श्रीकृष्ण आ पहुँचे हों। उन्होंने बड़े भाव विह्वल मन से आतिथ्य किया। और फिर उस दिन शाम को शान्ति निकेतन पहुँचने का कार्यक्रम बना लिया। द्विवेदी जी को उनके आगमन की पूर्व सूचना थी। इन दिनों वह बाणभट्ट की आत्मकथा लिख रहे थे। यह कार्य लगभग समाप्त हो चुका था। रामनारायण केडिया जब युगऋषि आचार्य श्री को लेकर उनसे मिलने पहुँचे तो वह अपने मकान के बाहर वाले उद्यान में टहल रहे थे। उनके साथ आचार्य क्षितिमोहन सेन एवं विधुशेखर शास्त्री भी थे। द्विवेदी जी ने ज्यों ही युगऋषि आचार्य श्री को देखा तो देखते रह गए। गौर वर्ण, तेज पूर्ण नेत्र, तपोदीप्त मुख, उन्होंने संक्षेप में उनका परिचय आचार्य क्षितिमोहन सेन एवं विधुशेखर शास्त्री से कराया।
      इसी के साथ उन्होंने आकाश की ओर एक दृष्टिं डाली और कहा- बड़ा सुन्दर सुयोग है जो आज आप पधारे। अभी थोड़ी देर में यहाँ व्याख्यान भवन में प्रो. सी.वी. रमन का व्याख्यान होने वाला है। वह आज ही यहाँ पधारे हैं। जब से प्रो. रमन को भौतिकी का नोबुल पुरस्कार मिला है उनसे सभी सुपरिचित हो गए हैं। आज की विशेष बात यह है कि वह अपना आज का व्याख्यान भौतिक विज्ञान या रमन प्रभाव पर नहीं, बल्कि विज्ञान को अध्यात्म की आवश्यकता पर देने वाले हैं। द्विवेदी जी की ये बातें सुनकर युगऋषि आचार्य बोले कुछ नहीं बस हल्के से मुस्करा कर उनके साथ चल दिए। थोड़ी देर बाद वह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, आचार्य क्षितिमोहन सेन, विधुशेखर शास्त्री एवं रामनारायण केडिया के साथ सभागार पहुँच गए। जहाँ व्याख्यान थोड़ी ही देर पहले शुरू हो चुका था।
     प्रो. सी.वी. रमन लम्बा काला गाउन पहने खड़े थे और बोल रहे थे- बीसवीं सदी विज्ञान की सदी बन चुकी है। कोई देश इसके चमत्कारों के प्रसार से अछूता नहीं है। जो आज हैं भी वे कल नहीं रहेंगे। परन्तु विज्ञान का प्रयोग मानव हित में हो, यह चुनौती न केवल समूचे विज्ञान जगत् के सामने, बल्कि समूची मानवता के सामने है। वैज्ञानिकता, विज्ञान एवं वैज्ञानिकों को हृदयहीन व संवेदनहीन नहीं होना चाहिए। वे हृदयवान हों, संवेदनशील हों इसके लिए उन्हें अध्यात्म का सहचर्य चाहिए। प्रो. सी.वी. रमन का प्रत्येक शब्द दिल में उतरने वाला था। थोड़ी देर बाद जब उनका व्याख्यान समाप्त हो गया तो द्विवेदी जी ने आचार्य श्री से आग्रह किया चलिए आपको प्रो. रमन से मिलाते हैं। प्रो. रमन पहले भी कई बार शान्ति निकेतन आ चुके थे, इसलिए द्विवेदी जी से उनका सहज परिचय था। इस समय वह अतिथि भवन में ठहरे थे।
      आचार्य द्विवेदी इन सभी के साथ उनके कक्ष में पहुँचे। इस समय वह टहल रहे थे। विश्वकवि के सुपुत्र रथीबाबू उनके कक्ष से बाहर निकल रहे थे। अभिवादन के आदान- प्रदान एवं संक्षिप्त परिचय के साथ सभी ने प्रो. रमन को उनकी उत्तम वक्तृता के लिए आभार दिया। इस पर वह बोले- बात आभार की नहीं, बात क्रियान्वयन की है। इस पर आचार्य श्री बोले- ''क्रियान्वयन तो अध्यात्म क्षेत्र में भी होना है। उसे भी विज्ञान का सहचर्य चाहिए। विज्ञान के प्रयोग ही उसे मूढ़ताओं, भ्रान्तियों एवं अन्ध परम्पराओं से मुक्त करेंगे | तरुण, तपोनिष्ठ आचार्य श्री की इस बात का सभी ने समवेत समर्थन किया। और तब प्रो. रमन ने कहा- ''बीसवीं सदी भले ही विज्ञान की सदी हो, पर इक्कीसवीं सदी वैज्ञानिक अध्यात्म की सदी होगी। 'वैज्ञानिक अध्यात्म इसी का साक्षात्कार तो तरूण तपोनिष्ठ आचार्य श्री ने अपने समाधि शिखरों पर किया था। उस दिन इस पर सभी मनीषियों की व्यापक परिचर्चा हुई। और वहाँ से वापस आने पर वैज्ञानिक अध्यात्म के मन्त्रदृष्टा आचार्य श्री ने जनवरी सन् १९४७ ई. में वैज्ञानिक अध्यात्म पर एक विशेषांक प्रकाशित किया। जिसके प्रथम पृष्ठ की अन्तिम पंक्ति में लिखा- अखण्ड ज्योति के पाठकों! स्मरण रखो, सबसे पहले जिसे पढऩे और हृदयंगम करने की आवश्यकता है, वह वैज्ञानिक अध्यात्मवाद ही है।   



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