ध्यान विधि


ध्यान द्वारा मन को एकाग्र करने की, वश में करने की विधि बताना मात्र है। इसके लिए कुछ ध्यान नीचे दिये जाते हैं-

१-  चिकने पत्थर की या धातु की सुन्दर-सी गायत्री प्रतिमा लीजिए। उसे एक सुसज्जित आसन पर स्थापित कीजिए। प्रतिदिन उसका जल, धूप, दीप, गन्ध, नैवेद्य, अक्षत, पुष्प आदि मांगलिक द्रव्यों पूजन कीजिए। इस प्रकार नित्य-प्रति पूजन आरम्भिक साधकों के लिए श्रद्धा बढ़ाने वाला मन की प्रवृत्तियों को इस ओर झुकाने वाला होता है। साधक में अरुचि को हटाकर रुचि उत्पन्न करने का प्रथम सोपान, यह पार्थिव पूजन ही है। मन्दिरों में मूर्ति पूजा का आधार यह प्राथमिक शिक्षा के रूप में साधना का आरम्भ करना ही है।

२-  शुद्ध होकर पूर्व को ओर मुँह करके, कुश के आसन पर पद्मासन लगाकर बैठिए। सामने गायत्री का चित्र रख लीजिए। विशेष मनोयोगपूर्वक उसकी मुखाकृति या अंग-प्रत्यंगों को देखिये। फिर नेत्र बन्द कर लीजिए। ध्यान द्वारा उस चित्र की बारीकियाँ भी ध्यानावस्था में भली-भाँति परिलक्षित होने लगेंगी। इस प्रतिमा को मानसिक साष्टाग प्रणाम कीजिए और अनुभव कीजिए कि उत्तर में आपको आर्शीर्वाद प्राप्त हो रहा है।

३-  एकान्त स्थान में सुस्थिर होकर बैठिए। ध्यान कीजिए कि निखिल नील आकाश में और कोई वस्तु नहीं है, केवल एक स्वर्णिम वर्ण का सूर्य दिशा में चमक रहा है। उस सूर्य को ध्यानावस्था में मनोयोगपूर्वक देखिए। उसके बीच में हंसाख्य माता गायत्री की धुँधली-सी छवि दृष्टिगोचर होगी, अभ्यास से धीरे-धीरे यह छवि स्पष्ट दीखने लगेगी।

४-   भावना कीजिए कि इस गायत्री-सूर्य की स्वर्णिम किरणें मेरे नग्न शरीर पर पड़ रही हैं और वे रोमकूपों में होकर प्रवेश हुई आभा से देह के समस्त स्थूल एवं सूक्ष्म अंगों को अपने प्रकाश से पूरित कर रही हैं।

५-   दिव्य तेजयुक्त, अत्यन्त सुन्दर, इतनी जितनी कि आप अधिक-से-अधिक कल्पना कर सकते हों। आकाश में दिव्य वस्त्रों, आभूषणों से सुसज्जित माता का ध्यान कीजिए। किसी सुन्दर चित्र के आधार पर ऐसा ध्यान करने की होती है। माता के एक-एक अंग को विशेष मोनोयोगपूर्वक देखिए। उसकी मुखाकृति, चितवन, मुसकान, भाव-भंगिमा पर विशेष ध्यान दीजिए। माता अपनी अस्पष्ट वाणी, चेष्टा तथासकेतों द्वारा आपके मन:क्षेत्र में नवीन भावों का संचार करेंगी।

६-   शरीर को बिल्कुल ढीला कर दीजिए। आराम कुर्सी, मसनद या दीवार का सहारा लेकर, शरीर की नस-नाडि़यों को निर्जीव की भाँति शिथिल कर दीजिए। भावना कीजिए कि सुन्दर आकाश में अत्यधिक ऊँचाई पर अवस्थित ध्रुव तारे से निकल कर एक नीलवर्ण की शुभ्र किरण सुधा धारा की तरह अपनी ओर चली आ रही है और अपने मस्तिष्क या हृदय में ऋतुम्भरा बुद्धि के रूप में तरणतारिणी प्रज्ञा के रूप में प्रवेश कर रही है। उस परम दिव्य परम प्रेरक शक्ति को पाकर अपने हृदय में सद्भाव और मस्तिष्क में सद्विचार उसी प्रकार उमड़ रहें है जैसे समुद्र में ज्वार-भाटा उमड़ते हैं। वह ध्रुव तारा जो इस धारा में प्रेरक है सत् लोकवासिनी गायत्री माता ही है। भावना कीजिए कि जैसे बालक अपनी माता की गोद में खेलता और क्रीड़ा करता है वैसे ही आप भी गायत्री माता की गोद में खेल और क्रीड़ा कर रहे हैं।

७-   मेरुदण्ड को सीधा करके पद्मासन से बैठिए। नेत्र बन्द कर लीजिए। भू-मध्य भाग (भृकुटी) में शुभ्र वर्ण दीपक की लौ के समान दिव्य ज्योति का ध्यान कीजिए। यह ज्योति विद्युत की भांति क्रियाशील होकर अपनी शक्ति से मस्तिष्क क्षेत्र में बिखरी हुई अनेक शक्तियों का पोषक एवं जागरण कर रही है ऐसा विश्वास कीजिए।

८-   भावना कीजिए कि आपका शरीर एक सुन्दर रथ है। उसमें मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार रूपी घोड़े जुते हैं। इस रथ में दिव्य तेजोमयी माता विराजमान हैं और घोड़ों की लगाम उसने अपने हाथ में थाम रखी है। जो घोड़ा बिचकता है वह चाबुक से उसका अनुशासन करती है और लगाम झटककर उसको सीधे मार्ग पर ठीक रीति से चलने में सफल पथ-प्रदर्शन करती है। घोड़े भी माता से आतंकित होकर उसके अंकुश को स्वीकार करते हैं।

९-   हृदय स्थान के निकट, सूर्य चक्र में सूर्य जैसे छोटे प्रकाश की ध्यान कीजिए यह आत्मा का प्रकाश है। इसमें माता की शक्ति मिलती है और प्रकाश बढ़ता है। इस बढ़े हुए प्रकाश में आत्मा से वस्तु स्वरूप की झाँकी होती है। आत्मा साक्षात्कार का केन्द्र यह सूर्य चक्र है।

१०- ध्यान कीजिए कि चारों ओर अन्धकार है। उसमें होली की तरह पृथ्वी से लेकर आकाश तक प्रचण्ड तेज जाज्वल्यमान हो रहा है। उसमें प्रवेश करने से अपने शरीर का प्रत्येक अंग, मन: क्षेत्र से उस परम तेज के समान अग्निमय हो गया है अपने समस्त पाप-ताप, विकार-संस्कार जल गये हैं और शुद्ध सच्चिदानन्द शेष रह गया है।

ऊपर कुछ सुगम एवं सर्वोपरि ध्यान बताते गए हैं। यह सरल हैं और प्रतिबन्ध रहित। इनके लिए किन्हीं विशेष नियमों के पालन की आवश्यकता नहीं होती। शुद्ध होकर साधना के समय उनका करना उत्तम है। वैसे अवकाश में अन्य समयों में भी जब चित्त शान्त हो तो, इन ध्यानों में से, अपनी रुचि के अनुकूल ध्यान किया जा सकता है। इन ध्यानों में मन को संयत, एकाग्र करने की बड़ी शक्ति है। साथ ही उपासना का आध्यात्मिक लाभ भी मिलने से यह ध्यान दुहरा हित साधन करते हैं।



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