निराकार ध्यान पिता के रूप में

प्रातःकाल पूर्व दिशा- अरूणिम आकाश- स्वर्णिम सूर्योदय।

  1. -स्वर्णिम सूर्य- सविता। सविता तेजस्वी परब्रह्म।
  2. -सविता ब्रह्म। प्रकाश- ज्ञान सविता वर्चस्। अग्नि- ऊर्जा प्रखरता।
  3. -सविता- ब्रह्म वर्चस्। उपास्य। आराध्य। इष्ट। लक्ष्य।
  4. -साधक पर सविता शक्ति की अनन्त अन्तरिक्ष से शक्ति वर्षा। अमृत वर्षा।
  5. -अमृत वर्षा से आत्म सत्ता- विकसित, पुलकित, उल्लसित।
  6. -संव्याप्त आत्म सत्ता में समर्थता सजगता सरसता।
  7. -साधक का सविता को समर्पण- विसर्जन, विलय, समन्वय, समापन शरणागति।
  8. -सविता शक्ति का आत्मसत्ता में प्रवेश। भावचेतना में प्रखरता की अनुभूति।
  9. -सूक्ष्म शरीर से ओजस्। सूक्ष्म शरीर में तेजस। कारण शरीर में वर्चस् का उभार।
  10. -निष्ठा, प्रज्ञा और श्रद्धा का प्रचंड उद्भव।
  11. -पवित्रता, प्रसन्नता विशिष्टता की दिव्य अनुभूति। प्रकाश पुंज की ओर अनवरत अनुगमन। अदम्य उल्लास का अनुभव।
जप मुद्रा और ध्यान मुद्रा में यत्किंचित् ही अन्तर है। दोनों में कुछ नियम एक जैसे हैं। केवल हाथ रखने का अन्तर पड़ता है। जप में माला की गणना करनी होती है इसलिए दाहिना हाथ उस कार्य में लगा रहता है और बायें हाथ बायें घुटने पर या गोद में रखा जा सकता है। यदि जप मानसिक हो अथवा न हो केवल ध्यान ही करना हो तो दोनों हाथ गोद में रखने पड़ते हैं। बायां नीचे दाहिना ऊपर।

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