योग का स्वरूप

योग कहते हैं जोड़ने को, दो और दो मिलकर चार होते हैं । यह योग है । आत्मा और परमात्मा में एकता स्थापित करना योग का उद्देश्य है । सामान्यतया दोनों के बीच भारी मनमुटाव और मतभेद रहता है । एक दूसरे की उपेक्षा भी करते हैं और रुष्ट भी रहते हैं । ईश्वर चाहता है कि मनुष्य जीवन के अनुपम अनुदान का श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जाय । अनुकरणीय पद्धति अपनाकर जन-साधारण को अनुगमन की प्रेरणा दी जाय । इसी अवसर का लाभ उठाकर पूर्णता का महान लाभ प्राप्त कर लिया जाय । संसार को सुसंस्कृत समुन्नत बनाने में हाथ बँटाया जाय ।

महत्त्वकांक्षाओं को मानवी गरिमा के अनुरूप बनाया जाय किन्तु देखा जाता है कि मनुष्य इसके ठीक विपरीत आचरण करता है । पेट और प्रजनन की पशु प्रवृत्तियों से ऊँचा नहीं उठना चाहता । वासना, तृष्णा और अहं की पूर्ति के अतिरिक्त चिन्तन और कर्तव्य का अन्य कोई विषय नहीं रहता । ईश्वर भक्ति की विडम्बना भी मनुष्य निकृष्ट मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए ही रचता रहता है । ईश्वर को इस प्रकार की जीवन पद्धति में मानव जीवन की असाधरण अनुदान की अवमानना दिखती है । इसलिए वह खींचता है । वह असीम और अनावश्यक भोग साधना माँगता है । वे अभीष्ट मात्रा में नहीं मिलते तो अभाव अनुभव होता रहता है। दूसरे दुष्प्रवृत्तियों की परिणति आये दिन की विपत्ति बन कर सामने आती रहती है । इसमें वह अपना नहीं ईश्वर का दोष मानता है फलतः उसकी भी अश्रद्धा एवं उपेक्षा बनी रहती है । किसी का किसी से प्रेम नहीं । इस असहयोग में मनुष्य ही घाटे में रहता है । ईश्वरीय अनुग्रह से जो लौकिक वैभव और आत्मिक वर्चस्व मिलता है उससे वह प्रायः वंचित ही बना रहता है ।

इस असमंजस भरी स्थिति को हटाने का उपाय योग है । इस प्रक्रिया के द्वारा साधक की मनःस्थिति को ईश्वर की ओर मोड़ा-मरोड़ा जाता है उसे ईश्वरीय निर्देशों के अनुरूप ढलने एवं चलने की प्रेरणा मिलती है । दोनों की दिशा धारा एक हो जाने से परस्पर घनिष्ठता उत्पन्न होती है-और आदान-प्रदान का द्वार खुलता है । जीव और ब्रह्म की आकांक्षाएँ एक हो जाने से उनके बीच समुचित तालमेल बैठता है और इस आधार पर विकसित व्यक्तित्व में ऋषि तत्वों की, देव तत्वों की मात्रा दिन-दिन बढ़ती चली जाती है दर्पण पर सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ने से उसमें से भी वैसी ही चमक प्रादुर्भूत होती है । योगी का अन्तःकरण कषाय कल्मषों से मुक्त हो जाने के कारण इतना स्वच्छ हो जाता है कि उस पर ईश्वर का प्रतिबिम्ब चमकता हुआ प्रत्यक्ष दिखाई देने लगे । ऐसे व्यक्तियों का भावनात्मक स्तर दिव्य मान्यताओं से, दिव्य आकांक्षाओं से, दिव्य योजनाओं से उमगता रहता है, फलतः उसका चिन्तन और क्रिया-कलाप वैसा आदर्श होता है जैसा कि ईश्वर भक्तों का-योगियों का होना चाहिए ।

स्पष्ट है कि ऐसे व्यक्तियों में क्षमताएँ एवं विभूतियाँ भी उच्च स्तरीय ही पायी जाती है । वह सामान्य मनुष्यों की तुलना में निश्चित ही उतने समर्थ और उत्कृष्ट होते हैं कि उनकी प्रतिभा एवं क्षमता को बिना संकोच के चमत्कारी कहा जा सकेगा । व्यक्तित्व की पूर्णता ही मानव जीवन की सबसे बड़ी सफलता है । अस्तु योगियों के सिद्धपुरुष होने की मान्यता सच ही होती है । महापुरुष सिद्धपुरुष आदि नामों से किसी को स्त्री-पुरुष के लोक भेद का भ्रम नहीं करना चाहिए । अध्यात्म क्षेत्र में पुरुषार्थियों को पराक्रमियों को पुरुष कहा जाता है । इस अर्थ में नर और नारी दोनों के ही योगी एवं चमत्कारी सिद्ध हो सकने की बात स्पष्ट हो जाती है ।



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