योग का तत्व दर्शन और प्रतिफल

 सामान्यता मनुष्य का चिन्तन पेट−प्रजनन में लगा रहता है। वासना, तृष्णा, और अहंता के भव−बन्धनों में जकड़ा हुआ इन्हीं ललक लिप्साओं की पूर्ति में कोल्हू का बैल बना रहता है। इस स्थिति को उलटकर अन्तःकरण की भावनाएँ और मनःसंस्थान की विचारणाओं की उत्कृष्ट आध्यात्मिकता के साथ जोड़ देने के सुयोग को योग कहते हैं। साधारणतया स्वभाव संस्कार इसे करने नहीं देते। ऊँचा चढ़ने की इच्छा को पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति रोकती है और बलपूर्वक नीचे घसीटती है। ऊपर चढ़ना, खींचना या उछालना अभीष्ट हो तो फिर साधन एवं सामर्थ्य जुटाने की आवश्यकता पड़ती है। आत्मा जब परमात्मा तक पहुँचने के लिए प्रयत्न करता है तो संचित कुसंस्कार इस मार्ग में अनेकानेक अड़चनें उत्पन्न करते हैं। उनके जूझने के लिए जो सरंजाम जुटाना है। इसी को योग साधना कहा जाता है।

योगाभ्यास के नाम से बताई−अपनाई जाने वाली विभिन्न आकार−प्रकार की क्रिया−प्रक्रियाओं के मूल में एक ही उद्देश्य सन्निहित है कि अन्तरात्मा को पशु−प्रवृत्तियों से विरत करके महान् की विशालता के साथ जोड़ दिया जाय। योग का अर्थ है–जोड़ना। किसे किसके साथ जोड़ा जाय? इस प्रश्न का एक ही उत्तर है–आत्मा को परमात्मा के साथ। यहाँ आत्मा से अभिप्राय जीव की उस स्थिति से है जिसमें वह संचित कुसंस्कारों की दलदल में फँसा हुआ हेय प्रयोजनों में रस लेता और उन्हीं में प्रवृत्त रहकर जीवन सम्पदा को समाप्त करता है। यहाँ परमात्मा से तात्पर्य ब्रह्म चेतना की उस तरंग से है जो जब भी मनुष्य से मिलेगी, आदर्शवादी उत्कृष्टता अपनाने की प्रेरणा अन्तःकरण में उत्पन्न करेगी। विशालता उसका स्वरूप है। यह आत्मीयता की व्यापकता है–जिसकी उदार सेवा साधना से ही तृप्ति होती है। पक्षी सुविस्तृत आकाश में उड़ने पर व्यापक अन्तरिक्ष को अपना कार्यक्षेत्र पाता है। परमात्मा की परिधि में प्रवेश करने वाले साधक को भी सर्वत्र अपना ही आपा दीखता है। वसुधैव कुटुम्बकम् की रीति−नीति अपनाने वाला दृष्टि कोण एवं कार्यक्रम ही वरण करना होता है।

योग की सिद्धियों का शास्त्रों में विशद वर्णन मिलता है। उसे किसी क्रिया−प्रक्रिया का प्रतिफल नहीं व्यक्ति की उस आस्था की प्रतिक्रिया कहना चाहिए जो साधक को महान के प्रति आत्मसमर्पण करने के लिए विवश करती है। इसी को एकात्म या अद्वैत की स्थिति कहते हैं। इस क्षेत्र में प्रवेश करने वाले अपने को देवत्व के लिए समर्पित करता है और बदले में दैवी सम्पदाओं का अधिष्ठाता, सिद्ध पुरुष बनता है।


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