यम-नियम क्या है?

कहा जा चुका है कि महर्षि पातंजलि के बताये हुए राजयोग के आठ अंग हैं ।
(1) यम,(2) नियम,(3) आसन,(4) प्राणायाम,(5) प्रत्याहार,(6) धारणा,(7)ध्यान,(8) समाधि । इन आठ में प्रारम्भिक दो अंगों का महत्त्व सबसे अधिक है । इसीलिए उन्हें सबसे प्रथम स्थान दिया गया है । यम और नियम का पालन करने का अर्थ मनुष्यत्व का सवर्तोन्मुखी विकास है । योग का आरम्भ मनुष्यत्व की पूर्णता के साथ आरम्भ होता है । बिना इसके साधना का कुछ प्रयोजन नहीं ।
योग में प्रवेश करने वाले साधक के लिए यह आवश्यक है कि आत्म-कल्याण की साधना पर कदम उठाने के साथ-साथ यम-नियमों की जानकारी प्राप्त करें । उनको समझें, विचारें, मनन करें और उनको अमल में, आचरण में लाने का प्रयत्न करें ।

यम-नियम दोनों की सिद्धियाँ असाधारण हैं । महर्षि पातंजलि ने अपने योग दर्शन में बताया है कि इन दसों की साधना से महत्त्वपूर्ण ऋद्धि-सिद्धियाँ प्राप्त होती है । हमारा निज का अनुभव है कि यम-नियमों की साधना से आत्मा का सच्चा विकास होता है और उसके कारण जीवन सब प्रकार की सुख-शन्ति से परिपूर्ण हो जाता है । यम-नियम का परिपालन एक ऐसे राजमार्ग पर चल पड़ने के समान है जो सीधे गन्तव्य स्थल पर ही पहुँचाकर छोड़ता है ।

'राजमार्ग' का अर्थ है आम-सड़क-वह रास्ता जिस पर होकर हर कोई चल सके, जिस पर चलने में सब प्रकार की सरलता, सुविधा हो, कोई विशेष कठिनाई सामने न आवे । राजयोग का भी ऐसा ही तात्पर्य है । जिस योग की साधना हर कोई कर सके, सरलतापूवर्क उसमें प्रगति कर सके और सफल हो सके, यह राजयोग है । हठयोग, कुण्डलिनी योग, लययोग, तंत्रयोग, शक्तियोग आदि उतने सरल नहीं है और न उनका अधिकार ही हर मनुष्य को है । उनके लिए विशेष तैयारी करनी पड़ती है, और विशेष प्रकार का रहन-सहन बनाना होता है, पर राजयोग में ऐसी शर्तें नहीं हैं, क्योंकि वह मनुष्य मात्र के लिए,स्त्री-पुरुष गृही-विरक्त, बाल-वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित सबके लिए समान रूप से उपयोगी और सरल है ।

योग का अर्थ है-मिलना । जिस साधना द्वारा आत्मा का परमात्मा से मिलना हो सकता है,उसे योग कहा जाता है । जीव की सबसे बड़ी सफलता यह है कि वह ईश्वर को प्राप्त कर ले, छोटे से बड़ा बनने के लिए, अपूर्ण से पूर्ण होने के लिए, बन्ध से मुक्त होने के लिए, वह अतीतकाल से प्रयत्न करता आ रहा है, चौरासी लक्ष योनियों को पार करता हुआ इतना आगे बढ़ा आया है, वह यात्रा ईश्वर से मिलने के लिए है, बिछड़ा हुआ अपनी स्नेहमयी माता को ढूँढ़ रहा है, उसकी गोदी में बैठने के लिए छटपटा रहा है । उस स्वर्गीय मिलन की साधना योग है और उधर बढ़ने का सबसे साफ, सीधा, सरल जो रास्त है, उसी का नाम राजयोग है ।

महर्षि पातंजलि ने इस योग को आठ भागों में विभाजन किया है । योगदर्शन के पाद 2 का 29 वाँ सूत्र है-

यम नियमासन प्राणायाम प्रत्याहार
धारणा ध्यान समाधयोङष्टावंगानि॥

अर्थात-यम, नियम, आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार धारणा और समाधि योग के यह आठ अंग हैं ।

योग-दर्शन के पाद 2 सूत्र 30 में यम के सम्बन्ध में बताया गया है-अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचय्यार्परिग्रहा यमाः । अर्थात अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पाँच यम है । पाठकों को यम शब्द से भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए,मृत्यु के देवता को भी यम कहते हैं, यहाँ उस यम से कोई तात्पर्य नहीं है यहाँ तो उपरोक्त पाँच व्रतों की एक संज्ञा नियत करके उसका नाम यम रखा गया है । यम शब्द से यहाँ उपरोक्त पाँच व्रतों का ही भाव है । आगे क्रमशः प्रत्येक के बारे में कुछ विवेचना की जाती है ।

अहिंसा
साधारण रीति से दुःख न देने को अहिंसा कहते हैं । अहिंसा का अर्थ है मारना,दुःख देना । आ अर्थ है रहित । इस प्रकार अहिंसा का अर्थ हुआ, न मारना,न सताना, दुःख न देना । ऐसे कार्य जिनके द्वारा किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचता हो हिंसा कहलाते हैं, इसलिए उनका करना अहिंसा व्रत पालन करने वाले के लिए त्याज्य है । महात्मा गाँधी के मतानुसार-कुविचार मात्र हिंसा है, उतावलापन हिंसा है, मिथ्याभाषण हिंसा है,द्वेष हिंसा है, किसी का बुरा चाहना हिंसा है, जिसकी दुनिया को जरूरत है उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है, इसके अतिरिक्त किसी को मारना,कटुवचन बोलना, दिल दुःखाना, कष्ट देना तो हिंसा है ही इन सबसे बचना अहिंसा पालन कहा जायेगा ।

सामान्य प्रकार से उपरोक्त पंक्तियों में अहिंसा का विवेचन हो गया पर यह अधूरा और असमाधान कारक है । कोई व्यक्ति लोगों के सम्पर्क से बिल्कुल दूर रहे और बैठे-बैठे भोजन वस्त्र की पूरी सुविधाएँ प्राप्त करता रहे तो शायद किसी हद तक ऐसी अहिंसा का पालन कर सके, पूर्ण रीति से तो तब भी नहीं कर सकता क्योंकि साँस लेने में अनेक जीव मरेंगे, पानी पीने में सूक्ष्म जल-जन्तुओं की हत्या होगी,पैर रखने में, लेटने में कुछ न कुछ जीव कुचलेंगे, शरीर और वस्त्र शुद्ध रखने में जुयें आदि मरेंगे, पेट में कभी-कभी कृमि पड़ जाते हैं, मल त्यागने पर उनकी मृत्यु हो जायेगी । स्थूल हिंसा से कुछ हद तक बच जाने पर भी उस एकान्त सेवी से पूरी अहिंसा का पालन नहीं हो सकता । तक क्या किया जाय? क्या आत्म हत्या कर लें? या योग मार्ग की पहली ही सीढ़ी पर चढ़ना असम्भव समझ कर निराश हो बैठें?
    
केवल शब्दार्थ से ही अहिंसा का भाव नहीं ढूँढ़ा जा सकता, इसके लिए योगिराज कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी हुई व्यवहारिक शिक्षा का आश्रय लेना पड़ेगा । अर्जुन देखता है कि युद्ध में इतनी अपार सेना की हत्या होगी, इतने मनुष्य मारे जायेंगे, यह हिंसा है इससे मुझे भारी पातक लगेगा, वह धनुष बाण रख कर रथ के पिछले भाग में जा बैठता है और कहता है कि, हे अच्युत! मैं थोड़े से राज्य लोभ के लिए इतना बड़ा पाप न करूँगा, इस युद्ध में मैं प्रवृति न होऊँगा । भगवान कृष्ण ने अर्जुन की इस शंका का समाधान करते हुए गीता के अठारह अध्यायों में योग का उपदेश दिया, उन्होंने अनेक तर्क,प्रमाण, सिद्धान्त और दृष्टिकोणों से उसे यह भली प्रकार समझा दिया कि कष्ट न देने मात्र को अहिंसा नहीं कहते, दुष्टों, दुराचारियों, अन्यायी, अत्याचारियों को, पापी और पाजियों को मार डालना भी अहिंसा है । जिस हिंसा से अहिंसा का जन्म होता, जिस लड़ाई से शान्ति की स्थापना होती है, जिस पाप से पुण्य का उद्भव होता है, उसमें कुछ भी अनुचित या अधर्म नहीं है ।

कृष्ण ने अर्जुन से कहा इस मोटी बुद्धि को छोड़ और सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर, अहिंसा की प्रतिष्ठा इसलिए नहीं है कि उससे किसी जीव का कष्ट कम होता है, कष्ट होना न होना कोई विशेष महत्त्व की बात नहीं है, क्योंकि शरीरों का तो नित्य ही नाश होता है और आत्मा अमर है, इसलिए मारने न मारने में हिंसा-अहिंसा नहीं है । अहिंसा का तात्पर्य है द्वेष रहित होना । निजी राग द्वेष से प्रेरित होकर संसार के हित-अनहित का विचार किए बिना जो कार्य किए जाते हैं वे पूर्ण हैं । यदि लोक कल्याण के लिए, धर्म की वृद्धि के लिए किसी को मारना पड़े या हिंसा करनी पड़े तो उसमें दोष नहीं हैं । अर्जुन ने भगवान के वचनों का भली प्रकार मनन किया और जब उसकी समझ में अहिंसा का वास्तविक तात्पर्य आ गया तो महाभारत में जुट पड़ा । अठारह अक्षौहिणी सेना का संहार हुआ तो भी अर्जुन को कुछ पाप न लगा ।

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