प्रेम ही परमेश्वर है

प्रेम का अमृत मधुरतम है

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     प्रेम की पवित्र भावना मनुष्य की आत्मा में अक्षय शान्ति भर देती है। जिस प्रकार निर्झर की धारा स्वयं भी शीतल रहती है और जो उसके पास आता है, उससे सम्पर्क स्थापित करता है उसको भी शीतलता प्रदान करती है, उसी प्रकार प्रेमी हृदय व्यक्ति अपनी आत्मा में तो शीतलता का अनुभव करता है, साथ ही उसके सम्पर्क में जो भी आता है, वह भी आनन्दित हो उठता है।

     सन्त और महात्मा लोग प्रेम के अक्षय भण्डार होते हैं। उनके जीवन में स्थायी शान्ति का निवास रहता है। कोई भी अभाव, कोई भी आपत्ति उनकी मनःशान्ति को प्रभावित नहीं कर पाती। बहुत बार ऐसा संयोग भी आता है कि दुष्ट लोग उन्हें अकारण ही सताया करते हैं। पर हृदय में प्रेम का निवास रहने से वे उनकी दुष्टता को वैसे ही सहन कर लेते हैं, जिस प्रकार पिता अपने बच्चे का उपद्रव सहन कर लेता है। इतना ही क्यों वे उल्टे उसे आशीर्वाद देते हैं, उसकी सद्बुद्धि के लिये परमात्मा से प्रार्थना करने लगते हैं।

     महात्मा ईसा प्रेम के भण्डार थे। वे सारे मनुष्यों को अपने अन्तरात्मा की गहराई से प्रेम करते थे। महात्मा ईसा पर कदाचित संसार में सबसे अधिक अत्याचार किया गया तथापि उनके मन में प्रतिकार की भावना नहीं आई। महात्मा ईसा ने जिस मनुष्य जाति का हित चाहा, जिसकी भलाई के लिये अपना सम्पूर्ण जीवन लगा दिया, उन्हीं मनुष्यों ने उन्हें 'क्रूस' पर ठोंक दिया। उनको विविध प्रकार से शारीरिक यन्त्रणायें दीं। उन्हें कोड़ों से मारा पत्थरों की वर्षा की। पर प्रेम के देवता महात्मा ईसा ने किसी पर क्रोध तक नहीं किया। प्रेम के प्रसाद से उनके हृदय को प्राप्त हुई शीतलता जरा भी नष्ट न हुई। लोग उन्हें क्रूस पर टाँग कर कीलें ठोंक रहे थे और वे रो-रो कर परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे कि हे परमपिता ! तू इन अबोधों पर क्रोध न करना, इनको क्षमा कर देना क्योंकि यह नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं।

     महात्मा महावीर को लोगों ने पागल कहा। उन्हें पत्थरों से मारा। उनके कपड़े फाड़ डाले, गाँव में ठहरने नहीं दिया। उनके पीछे कुत्ते दौड़ाये और जो भी यातना बन पड़ी, दी। पर महात्मा महावीर उस सारे अत्याचार को समान भाव से सहन करते रहे, उन्होंने न तो किसी पर क्रोध किया और न किसी से प्रतिकार लिया। बल्कि वे भी सच्चे हृदय से मनुष्य जाति का हित चाहते और करते रहे। इस प्रकार की सहनशीलता और क्षमा का भाव उस प्रेम का ही प्रसाद था जो उनके हृदय में निवास कर रहा था।

     संसार से त्रस्त और दुःखों से आक्रान्त मनुष्य जब कहीं भी शान्ति नहीं पाता तो किसी महात्मा अथवा सन्त की शरण में जाता है। उनके पास जाते ही उसका सारा शोक सन्तान नष्ट हो जाता है उसका जलता हुआ हृदय शीतल हो उठता है। ऐसा इसलिये होता है कि महात्माओं के हृदय में प्रेम का निवास होता है। जिसके आधार पर वे संत्रस्त प्राणी को सच्ची सहानुभूति और सच्ची संवेदना दे पाते हैं। सहानुभूति तथा संवेदना को ऐसी संजीवनी माना गया है, जो किसी भी प्रकार से दुःखी मनुष्यको आश्वस्त कर देती है। प्रेम एक दिव्य अमृत है, जिसका आदान-प्रदान मनुष्य को देवता के समान बना देता है। 

     प्रेम से शून्य मनुष्य नीरस मरुस्थल के सिवाय और कुछ नहीं होता। प्रेमविहीन व्यक्ति के पास जाकर एक साधारण मनुष्य भी अपनी स्वाभाविक प्रसन्नता खो देता है। तब किसी का दुःख दूर हो सकना तो असम्भव ही है। हरे भरे पत्तों से रहित वृक्ष के पास जाकर किस को छाया मिल सकती है और सूखा जलाशय किस की प्यास बुझा सकता है ?

     प्रेम के प्रसाद से मनुष्य अजातशत्रु की स्थिति में पहुँच जाता है। वह तो किसी से शत्रुता नहीं रखता, साथ ही दूसरे लोग भी उससे बैर नहीं मानते। माना कि प्रेमी हृदय सन्त लोग जब किसी के प्रति बैर भाव नहीं रखते तो दूसरा उनसे क्यों बैर मानेगा ? किन्तु यह प्रतिक्रिया हिंस्त्र जीवों में तो नहीं होती। वे तो नैसर्गिक रूप से जीवों के शत्रु होते हैं। कोई जीव उनसे बैर माने या न माने पर वे पाते ही उनको मार तक डालते हैं। ऐसे स्वाभाविक हिंस्त्र जन्तु भी वनवासियों, ऋषि-मुनियों के समीप जाकर उनके सच्चे प्रेम से प्रभावित होकर हिरनों और गायों के साथ मित्र भाव से विहार करने लगते थे। प्रेम ऐसा चमत्कार है, ऐसा जादू है जो अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहता।

     चोर-डाकू अपने से बैर न मानने वालों की भी सम्पत्ति हरण कर लिया करते हैं। किन्तु उनकी भी दुष्ट वृत्ति प्रेम के अमृत से शीतल हृदय वाले महात्माओं के पास पहुँच कर बदल जाती है और वे उनके प्रभाव से सज्जन बन जाते हैं। महात्मा नारद के सम्पर्क में आकर डाकू रत्नाकर, बाल्मीकि बन गये, महात्मा बुद्ध के सम्पर्क में आकर अँगुलिमाल धर्म प्रचारक बन गया और तुलसी की कुटिया में चोरी करने वाले चोर लौट कर उनके पैरों गिरे और सदा के लिये अच्छे आदमी बन गये।

     प्रेम में मनुष्य की जीवन धारा बदल देने की शक्ति होती है। अम्बपाली एक प्रसिद्ध वेश्या थी। वह अपना शरीर बेचती थी। शानशौकत से रहती थी और दिनरात पाप ही कमाया करती थी। किन्तु जिस दिन वह भगवान् तथागत के विश्वप्रेम से प्रभावित हुई सारा वैभव और सारा भोगविलास छोड़कर महान् भिक्षुणी बनकर कृतार्थ हो गई। सूर और तुलसी अपने जीवन में बड़े ही कामुक तथा स्त्रीलम्पट रहे, पर ज्यों ही उन्हें भगवत्प्रेम की अनुभूति हुई, वे परम वैष्णव भगवान श्रीकृष्ण और राम के भक्त बन गये। सम्राट-अशोक की जीवन गाथा का प्रारंभिक भाग अत्याचारी के रूप में अङ्कित है, पर जब उसे कलिंग के युद्ध में विनाश की विभीषिका की प्रतिक्रिया से मानवता के प्रति प्रेम की अनुभूति हुई, वह अशोक महान् के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

     अपने अनन्तर जीवन में उसने मनुष्य की भलाई के लिये बडे़-बडे़ काम किये। लोगों को सन्मार्ग पर लाने के लिये अजस्र प्रयत्न किया। धर्म प्रचार के लिये अपने पुत्र और पुत्री को भिक्षु तथा भिक्षुणी बनाकर देशान्तर में भेज दिया। प्रेम परमात्मा का सबसे श्रेष्ठ और सबसे पवित्र प्रसाद है। अपने अन्तर में इसका विश्वास करना अपनी आत्मा के लिये कल्याण का पथ प्रशस्त करना है।

     आत्मा से प्रेम का विकास मनुष्य को साधारण से असाधारण बना देता है। प्रेम से धैर्य, सहिष्णुता, क्षमा, दया, करुणा, त्याग और दृढ़ता की उपलब्धि होती है। प्रेम के आधार पर निर्भीक बना मनुष्य कहीं भी विहार कर सकता है। उसके लिये कहीं भी कोई भय नहीं रहता। वह अधिकांशत: निरापद ही रहता है। फिर भी यदि संयोग अथवा पूर्व परिपाक के कारण उस पर कोई आपत्ति आ भी जाती है तो वह उसको प्रेम के सहजन्य गुणों के आधार पर सहन कर लेता है, उसके पार उतर जाता है।

     किन्तु यह गुण यह विशेषताएँ उसी प्रेम में होती हैं, जो सत्य, सार्वकालिक और सार्वभौतिक होने के साथ-साथ स्थिर, निःस्वार्थ तथा असंदिग्ध होता है। सामयिक, एक देशीय अथवा संदिग्ध प्रेम में यह विशेषताएँ नहीं होती है। यदि एक मनुष्य अपनी पत्नि को प्यार करता है और वह उसके आधार पर अन्य से वैर शमन की आशा करता है, तो उसे निराश ही होना पड़ेगा। इससे आगे बढ़ कर भी यदि वह सारे संसार को क्यों न प्रेम करता हो, किन्तु अपने विरोधी से द्वेष मानता हो तब भी वह इतने व्यापक प्रेम के कारण ही निरापद अथवा अजातशत्रु नहीं हो सकता है।

     परिपूर्ण पात्र की विशेषता को एक छोटा-सा छिद्र भी व्यर्थ बना देता है। प्रेम यदि परिपूर्ण है तो पूर्ण शक्तिशाली है। उसमें रंच न्यूनता भी उसकी किसी विशेषता को प्रभावशील न बनने देगी। जिस प्रकार परमात्मा की प्राप्ति होती है तो पूर्णरूप से होती है अथवा होती ही नहीं, उसी प्रकार से प्रेम की सिद्धि होती है तो पूर्ण रूप से होती है या होती ही नहीं। 

     तथापि जिस प्रकार परमात्मा की प्राप्ति के लिये यत्किंचित् प्रयत्न भी श्लाध्य है, उसी प्रकार प्रेम की सिद्धि के लिये भी जितना अणु कण बन सके, प्रेम की साधना करते ही रहना चाहिये। जिस प्रकार बूँद-बूँद का संचय एक दिन घट भर देता है, जन्म-जन्म का प्रयत्न किसी जन्म में परमात्मा की प्राप्ति करा देता है, उसी प्रकार की थोड़ी-थोड़ी साधना भी एक दिन आत्मा को प्रेम स्वरूप बना देती है।

     प्रेम की परिधि सीमित नहीं है और न उसका कोई प्रकार ही होता है। प्रेम का जन्म एक ही हृदय से एक जैसी ही अनुभूति के साथ होता है। प्रेम, प्रेम है फिर चाहे वह नारी के प्रति हो, पुत्र के प्रति हो, समाज, देश अथवा सम्पूर्ण संसार के प्रति हो। उसका परिपाक आध्यात्मिक प्रेम में होता है और उसका फल भी एक ही है, आत्म कल्याण। शर्त केवल यह कि प्रेम जिसे किया जाये सम्पूर्ण मन प्राणों से किया जाये। उसमें न तो कोई स्वार्थ और न कोई छिद्र शेष रक्खा जाये। सच्चा और पूर्ण स्थिति का प्रेम अन्त में परमात्मा की भक्ति का रूप बन जाया करता है। शीरी-फरहाद, सोनी-महीवाल, सूर-तुलसी आदि का प्रेम नारी के प्रति लौकिक रूप से प्रारम्भ होकर अन्त में अनन्त एवं आध्यात्मिक प्रेम में बदल गया, जिसके बल पर उन्होंने शरीरान्त में कल्याण का वरण किया।

     उनका लौकिक प्रेम पारलौकिक प्रेम बन गया। दशरथ का पुत्र प्रेम उनके कल्याण का साधक सिद्ध हुआ। लक्ष्मण और भरत भ्रातृ प्रेम के आधार पर उन्नत स्थिति के अधिकारी बने। संयमराय, भामाशाह और बाजी प्रभु देशपाण्डे स्वामी के प्रति प्रेम के कारण महानता के अधिकरी बने। इसी प्रकार भगतसिंह, रामप्रसाद, तिलक और गोखले जैसे देशभक्तों ने देश के प्रति प्रेम के आधार पर भवबन्धन से छुटकारा पाया। ईसा, बुद्ध, महावीर और महात्मा गाँधी जैसी आत्मायें मानवता के प्रति असंध प्रेम के आधार पर मुक्त हुई हैं।

     सच्चे प्रेमियों पर उनकी आस्था की परीक्षा लेने के लिये एक नहीं हजारों संकट आते हैं। जो उन संकटों को हँसता हुआ सहता और अपने प्रेम मार्ग पर अविचलित रूप से चलता रहता है, वही वस्तुत: सच्चा प्रेमी होता है और वह ही उसके आधार पर निर्माण का अधिकारी बन पाता है। मीरा ने कृष्ण से प्रेम किया उसके लिये पति तथा परिवार का कोप सहा, लोकापवाद की यातना सहन की, अपने चरित्र पर लगाये गये लाँछन की आग सही किन्तु अपना प्रेम न छोड़ा। उसे राजरानी के पद से च्युत कर दिया गया, जाति से बहिष्कृत कर दिया गया, पर वह अपने प्रेम के पवित्र मार्ग पर ही रही।

     मीरा को जमुना में फेंका गया। पिटारी में उसके पास साँप भेजा गया और हलाहल का प्याला पीने को दिया गया, पर उसका असंदिग्ध प्रेम घटने अथवा विचलित होने के स्थान पर निरन्तर बढ़ता ही चला गया। यहाँ तक कि यमुना की साँवली धारा उसे कन्हैया की गोद लगी। काला सर्प पिटारी में शालिग्राम के स्वरूप में दिखाई दिया और हलाहल के श्याम रंग में उस कृष्ण प्रेम की मदमाती को साक्षात् श्याम सलोने के ही दर्शन हो गए। यही तो असंध तथा सम्पूर्ण प्रेम का लक्षण है कि मीरा के लिए संसार का अणु कण ही उसके प्रियतम का प्रतिबिम्ब ही नहीं बन गया बल्कि वह स्वयं भी श्याम रूप होकर एक दिन भगवान् श्यामसुन्दर में मिल गई।

     प्रेम, प्रेम है वह लौकिक हो अथवा आध्यात्मिक किन्तु हो पूर्ण, असंध, असंदिग्ध तथा निःस्वार्थ, तो निश्चय ही चमत्कारिक, शक्तिशाली और भवबन्धन से मुक्ति का साधन होगा।
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