युग निर्माण
योजना का प्रधान उद्देश्य है -- विचार क्रान्ति ।। मूढ़ता और रूढ़ियों से
ग्रस्त अनुपयोगी विचारों का ही आज सर्वत्र प्राधान्य है ।। आवश्यकता इस बात
की है कि (१) सत्य (२) प्रेम (३) न्याय पर आधारित विवेक और तर्क से
प्रभावित हमारी विचार पद्धति हो ।। आदर्शों को प्रधानता दी जाए और उत्कृष्ट
जीवन जीने की, समाज को अधिक सुखी बनाने के लिए अधिक त्याग, बलिदान करने की
स्वस्थ प्रतियोगिता एवं प्रतिस्पर्धा चल पड़े ।। वैयक्तिक जीवन में
शुचिता- पवित्रता, सच्चरित्रता, ममता, उदारता, सहकारिता आए ।। सामाजिक जीवन
में एकता और समता की स्थापना हो ।। इस संसार में एक राष्ट्र, एक धर्म, एक
भाषा, एक आचार रहे; जाति और लिंग के आधार पर मनुष्य- मनुष्य के बीच कोई
भेदभाव न रहे ।। हर व्यक्ति को योग्यता के अनुसार काम करना पड़े;
आवश्यकतानुसार गुजारा मिले ।। धनी और निर्धन के बीच की खाई पूरी तरह पट जाए
।। न केवल मनुष्य मात्र को वरन् अन्य प्राणियों को भी न्याय का संरक्षण
मिले ।। दूसरे के अधिकारों को तथा अपने कर्तव्यों को प्राथमिकता देने की
प्रवृत्ति हर किसी में उगती रहे सज्जनता और सहृदयता का वातावरण विकसित होता
चला जाए, ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करने में युग निर्माण योजना प्राणपण से
प्रयत्नशील है ।।
हमारी सारी शक्ति हमारे विचारों में समाहित है। - पूज्य गुरुदेव मनुष्य के शरीर में दो चीजें हैं- एक उसकी
रचना अर्थात् काया और दूसरी
चेतना। मनुष्य के पास जो कुछ भी विशेषता और महत्ता है, जिसके कारण वह स्वयं उन्नति करता जाता है और समाज को ऊँचा उठा ले जाता है वह उसके अंतर की विचारधारा है। जिसको हम चेतना कहते हैं, अंतरात्मा कहते हैं, विचारणा कहते हैं। यही एक चीज है, जो मनुष्य को ऊँचा उठा सकती है और महान बना सकती है। शांति दे सकती है और समाज के लिए उसे उपयोगी बना सकती है। मनुष्य की चेतना, जिसको हम विचारणा कह सकते हैं, किस आदमी का विचार करने का क्रम कैसा है? बस, असल में वही उसका स्वरूप है। आदमी लंबाई-चौड़ाई के हिसाब से छोटा नहीं होता, वरन जिस आदमी के मानसिक स्तर की ऊँचाई कम है, वह आदमी ऊँचे सिद्धांत और ऊँचे आदर्शों को नहीं सुन सकता। जो व्यक्ति सिर्फ पेट तक और संतान पैदा करने तक सीमाबद्ध रहता है, वह छोटा आदमी है। उसे अगर एक इंच का आदमी कहें तो कोई अचंभे की बात नहीं है। उसकी तुलना कुएँ के मेंढक से करें, तो कोई अचंभे की बात नहीं है। कीड़े-मकोड़ों में उसकी गिनती करें तो कोई बात नहीं है।
पिछले दिनों जब हमारे देश के नागरिकों की विचारणा का स्तर बहुत ऊँचा था, तब शिक्षा के माध्यम से और अन्य वातावरणों के माध्यम से, धर्म और अध्यात्म के माध्यम से यह प्रयत्न किया जाता था कि आदमी ऊँचे किस्म का सोचने वाला हो एवं उसके विचार, उसकी इच्छा, आकांक्षा और महत्त्वाकांक्षाएँ नीच श्रेणी के जानवरों जैसी न होकर महापुरुषों जैसी हों। जब ये प्रयास किए जाते थे तो अपना देश कितना ऊँचा था! यहाँ के नागरिक देवताओं की श्रेणी में गिने जाते थे और यह राष्ट्र दुनिया के लोगों की आँखों में स्वर्ग जैसा दिखाई पड़ता था। इस महानता और विशेषता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए धर्म और अध्यात्म का सारा ढाँचा खड़ा किया गया है।
प्रकारान्तर से यही है, महान् परिवर्तन प्रस्तुत कर सकने वाली
विचार क्रान्ति की रूप-रेखा। लोक-मानस के परिष्कार नाम से भी इसी का उल्लेख होता है। अवांछनीय मान्यताओं, गतिविधियों की रोक-थाम के लिए यह अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इसे सम्पन्न करने के लिए हमें आपत्तिकालीन स्थिति से निपटने जैसी उदार साहसिकता का परिचय देना चाहिए। पड़ोस में हो रहे अग्निकाण्ड के समय मूकदर्शक बने रहना किसी को भी शोभा नहीं देता; विशेषतया उनको, जिनके पास फायर ब्रिगेड जैसे साधन हैं। विवेकशीलता और उदारता से सम्पन्न लोगों के लिए यह अशोभनीय है कि विश्व संकट का समाधान समझते हुए भी, उस संदर्भ में जो सहज ही अपने से बन पड़ सकता था, उससे उपेक्षा दिखाए, अन्यमनस्कता जैसी निष्ठुरता अपनाये।
दानों में सबसे बड़ा दान एक ही है, कि व्यक्ति की प्रस्तुत मानसिकता को झकझोर कर जागृत बनाया जाय। अपनी भूलें सुधारने और अपने भाग्य का निर्माण करने के लिए-साहसिकता अपनाने के लिए सहमत किया जाय। विचार-क्रान्ति में यही किया जाता है, कि भटकाव के दुष्परिणामों की मान्यताओं को इतनी गहराई तक पहुँचाया जाय, अवांछनीयता अपनाए रहने की स्थिति से पीछा छुड़ा सकने की बात बन पड़े। सुखद संभावनाओं के निकट तक जा पहुँचने के लिए चल पड़ने वाला पौरुष अपनाने के लिए कटिबद्ध होने का उत्साह जगाया जाय।