सभी मानसिक स्फुरणाएँ विचार नहीं

किन्तु मनुष्य की सभी मानसिक तथा बौद्धिक स्फुरणाएँ विचार ही नहीं होते। उनसे से कुछ विचार और कुछ मनोविकार तथा बौद्धिक विलास भी होता है। दुष्टता, अपराध तथा ईर्ष्या- द्वेष के मनोभाव, विकार तथा मनोरंजन, हास- विलास तथा क्रीड़ा आदि की स्फुरणाएँ बौद्धिक विलास मानी गई है। केवल मानसिक स्फुरणाएँ ही विचारणीय होती हैं, जिनके पीछे किसी सृजन, किसी उपकार अथवा किसी उन्नति की प्रेरणा क्रियाशील रहती है। साधारण तथा सामान्य गतिविधि के संकल्प- विकल्प अथवा मानसिक प्रेरणाएँ विचार की कोटि में नहीं आती हैं। वे तो मनुष्य की स्वाभाविक वृत्तियाँ होती हैं, जो मस्तिष्क में निरन्तर आती रहती हैं।
      यों तो सामान्यतया विचारों में कोई विशेष स्थायित्व नहीं होता। वे जल तरंगों की भाँति मानस में उठते और विलीन होते रहते हैं। दिन में न जाने कितने विचार मानव- मस्तिष्क में उठते और मिटते रहते हैं। चेतन होने के कारण मानव मस्तिष्क की यह प्राकृतिक प्रक्रिया है।। विचार वे ही स्थायी बनते हैं, जिनसे मनुष्य का रागात्मक सम्बन्ध हो जाता है। बहुत से विचारों में से एक- दो विचार ऐसे होते हैं, जो मनुष्य को सबसे ज्यादा प्यारे होते हैं। वह उन्हें छोड़ने की बात तो दूर उनको छोड़ने की कल्पना तक नहीं कर सकता।

      यही नहीं, किसी विचार अथवा विचारों के प्रति मनुष्य का रागात्मक झुकाव विचार को न केवल स्थायी अपितु अधिक प्रखर- तेजस्वी बना देता है।। इन विचारों की छाप मनुष्य के व्यक्तित्व तथा कर्तृत्व पर गहराई के साथ पड़ती है। रागात्मक विचार निरन्तर मथित अथवा चिन्तित होकर इतने दृढ़ और अपरिवर्तनशील हो जाते हैं कि वे मनुष्य के विषय व्यक्तित्व के अभिन्न अंग की भाँति दूर से ही झलकने लगते हैं। प्रत्येक विचार जो इस सम्बन्ध में साकार बन जाता है, वह उसकी क्रियाओं में अनायास ही अभिव्यक्त होने लगता है।

        अतएव आवश्यक है कि किसी विचार से रचनात्मक सम्बन्ध स्थापित करने से पूर्व इस बात की पूरी परख कर लेनी चाहिये कि जिसे हम विचार समझकर अपने व्यक्तित्व का अंग बनाये ले रहे हैं, वह वास्तव में विचार है भी या नहीं है। कहीं ऐसा न हो कि वह आपका कोई मनोविकार हो और तब आपका व्यक्तित्व उसके कारण दोषपूर्ण बन जाय। प्रत्येक शुभ तथा सृजनात्मक विचार व्यक्तित्व को उभारने और विकसित करने वाला होता है और प्रत्येक अशुभ तथा ध्वंसात्मक विचार मनुष्य का जीवन गिरा देने वाला है।

     किसी भी शक्ति का उपयोग रचनात्मक एवं ध्वंसात्मक दोनों ही रास्तों से होता है। विज्ञान की शक्ति से मनुष्य के जीवन में असाधारण परिवर्तन हुआ। असम्भव को सम्भव बनाया विज्ञान ने। किन्तु आज विज्ञान के विनाशकारी स्वरूप को देखकर मानवता का भविष्य ही अंधकारमय दिखाई देता है। जनमानस में बहुत बड़ा भय व्याप्त है। ठीक इसी तरह विचारों की शक्ति भी है। उनके पुरोगामी होने से मनुष्य के उज्ज्वल भविष्य का द्वार खुल जाता है और प्रतिगामी होने पर वही शक्ति उसके विनाश का कारण बन जाती है। गीताकार ने इसी सत्य का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- ‘‘आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन’’ विचारों का केन्द्र मन ही मनुष्य का बन्धु है और वही शत्रु भी।

       आवश्यकता इस बात की है कि विचारों को निम्न भूमि से हटाकर उन्हें ऊर्ध्वगामी बनाया जाय जिससे मनुष्य दीन- हीन, क्लेश एवं दुखों से भरे नारकीय जीवन से छुटकारा पाकर इसी धरती पर स्वर्गीय जीवन का उपाय कर सके। वस्तुतः सद्विचार ही स्वर्ग की और कुविचार ही नरक की एक परिभाषा है। अधोगामी विचार मन को चंचल, क्षुब्ध, असन्तुलित बनाते हैं उन्हीं के अनुसार दुष्कर्म होने लगते हैं और उन्हीं में फँसा हुआ व्यक्ति नारकीय यन्त्रणाओं का अनुभव करता है। जबकि सद्विचारों में डूबे हुए मनुष्य को धरती स्वर्ग जैसी लगती है। विपरीतताओं में भी वह सनातन सत्य के आनन्द का अनुभव करता है। साधन सम्पत्ति के अभाव, जीवन के कटु क्षणों में भी वह स्थिर और शान्त रहता है। शुद्ध विचारों के अवलम्बन से ही सच्चा सुख मिलता है।

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