तत्वदर्शी मनीषियों ने अब से लेकर सन् 2000 तक के समय को युग संधि की प्रभात बेला कहा है। इसमें तमिस्रा का समापन और नव-जीवन का प्रकाश, ऊर्जा का व्यापक-विस्तार होना है। मनुष्य ने अवांछनीयता को अपनाकर वातावरण को हर दृष्टि से विषाक्त कर दिया है। असीम प्रजनन, वायु प्रदूषण, युद्धोन्माद, अनीति का प्रचलन जैसे अनेक कारणों ने मनुष्य के समक्ष सामूहिक आत्महत्या जैसी परिस्थितियां खड़ी कर दी हैं। व्यक्ति और समाज को अगणित समस्याओं विपदाओं विभीषिकाओं में, साधन-सुविधाओं की कमी न होने पर भी ऐसे दल-दल में फंसा दिया है, जिससे त्राण दिखता नहीं। ऐसे समय में स्रष्टा ही बागडोर अपने हाथ में संभालते और ‘‘यदा-यदा हि धर्मस्य......’’ वाला कथन पूरा करते हैं। इन दिनों ठीक वही समय है। प्रस्तुत आस्था संकट को निरस्त एवं उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण करने के लिए स्रष्टा की गलाई-ढलाई प्रक्रिया बहुत तेजी से चल पड़ी है। इसी अदृश्य युगान्तरीय चेतना का नाम प्रज्ञा अभियान है। अदूरदर्शी अवांछनीयता के इस माहौल को महा प्रज्ञा ही हटा सकेगी। उसी को परोक्ष से प्रत्यक्ष होते इन दिनों देखा जा सकता है। युग परिवर्तन की प्रक्रिया ‘प्रज्ञावतार’ के रूप में सम्पन्न होगी।
अवतार अदृश्य प्रवाह को कहते हैं। उसे दृश्य प्रत्यक्ष कर दिखाने में अग्रदूत की भूमिका प्रमुख होती हैं। वे आंधी में उमड़ने वाले, तिनके-पत्तों की तरह नगण्य होते हुए भी आकाश चूमते और घुड़-दौड़ जैसी उड़ान भरते दिखते हैं। रीछ-वानर, ग्वाल-बाल, बौद्ध-भिक्षु, सत्याग्रही ऐसी ही भूमिका निभाते हैं। इन दिनों प्रज्ञा-पुत्रों का एक विशालकाय समुदाय उसी निर्धारण में निरत हैं। प्रगति आशातीत हो रही है। युग अवतरण का लक्ष्य पूरा होने की सुनिश्चित सम्भावना है। गंगा धरती पर उतरने का निश्चय कर चुकी हैं। भागीरथों को श्रेय मिल रहा है। हनुमान, अर्जुन जैसी भूमिका, युगधर्म पहचानने वाले अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर निभा रहे हैं। संक्षेप में यही है— युगान्तरीय चेतना की परोक्ष प्रक्रिया जिसे प्रज्ञा अभियान द्वारा प्रत्यक्ष कर दिखाया जा रहा है।
इन दिनों अवांछनीय की तमिस्रा के विनाश और सर्वतोमुखी शालीनता के अभिवर्धन का दुहरा कार्य साथ-साथ सम्पन्न होगा। लोक मानस के परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन की गतिविधियां तीव्र होने जा रही है। नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्रान्ति की तैयारी चल रही है। व्यक्ति, परिवार और समाज को सतयुगी ढांचे में ढालने के लिए सशक्त प्रयोग चल रहे हैं। अगले दिन समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी के होंगे। एकता, समता और सुव्यवस्था के आदर्श अपनाये जायेंगे।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और
‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ की नीति अपनाने के लिए जन-जन को बोधित करने वाला प्रज्ञा युग अब दूर नहीं है। इस बीच ध्वंस और निर्माण की दोनों ही प्रवृत्तियां अपने चरम पराक्रम का परिचय देंगी। अनौचित्य पद दलित होगा और विवेक को सिंहासनारूढ़ होते देखा जायेगा।
प्रज्ञा अभियान एक अदृश्य प्रवाह है, उसके सूत्र संचालन का उत्तरदायित्व प्रज्ञा परिवार वहन कर रहा है। युगशक्ति- आद्यशक्ति महाप्रज्ञा गायत्री की जन-जन का मन हुलसाने वाली सामयिक भूमिका कोई भी विचारवान् आंखें खोलकर देख सकता है। उदाहरण के लिए उसके सूत्र संचालक का व्यक्तित्व, कर्तृत्व, प्रभाव और प्रयास का स्तर देखते हुए यह समझा जा सकता है कि हनुमान ने किस आधार पर पर्वत उखाड़ा और समुद्र लांघा था।
माता जी और
गुरुदेव का युग्म इन दिनों
वशिष्ठ-
अरुन्धती,
मनु-
शतरूपा,
रामकृष्ण-
शारदा माता जैसी भूमिका निभा रहा है। उन्हें
प्रखर प्रज्ञा और
सजल श्रद्धा का समन्वय माना जाता है। जो उनके जितना निकट आता है, वह उतना ही अधिक प्रभावित होता जाता है। यही कारण है कि प्रायः बीस लाख व्यक्ति उनके संकेत निर्देशों का अनुगमन कर रहे हैं, और लाखों के एक घण्टा समय तथा दस पैसा अनुदान के इस प्रयास को अग्रगामी बनाने में आश्चर्य-जनक योगदान दिया है। लोक चेतना को उच्चस्तरीय प्रवाह में नियोजित करने का यह अपने ढंग का अनोखा प्रयोग है। उसे निर्धारणों और फलितार्थों की दृष्टि से अद्भुत, अनुपम और अभूतपूर्व कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी।
प्रज्ञा अभियान के तीन पक्ष हैं—
(1) धर्म तंत्र से लोक-शिक्षण
(2) तीर्थ-परम्परा का पुनर्जीवन
(3) अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय।
इन तीनों को त्रिवेणी संगम की तरह समझा जा सकता है, जिसके अवगाहन करने से संसार को कायाकल्प जैसा लाभ मिलने कि सुनिश्चित संभावना है।