योग:
योग का तात्पर्य है–सीमित को असीम के साथ–क्षुद्र को महान के साथ–नर को नारायण के साथ– कामना को भावना के साथ–स्वार्थ को परमार्थ के साथ जोड़ देना। योगाभ्यास का समूचा परिकर साधक को उसी आस्था का अभ्यस्त बनाने के लिए सृजा गया है।

जीवत्म परमात्म संयोगो योगःकहकर भगवान याज्ञवल्क्य ने जिस योग की विवेचना की वह केवल कल्पना नहीं, अपितु हमारे दैनिक जीवन की एक अनुभूत साधना है और एक ऐसा उपाय है जिसके द्वारा हम अपने साधारण मानसिक क्लेशों एवं जीवन की अन्यान्य कठिनाइयों का बहुत सुविधापूर्वक निराकरण कर सकते हैं । हमारे अन्दर मृग के कस्तूरी के समान रहने वाली जीवात्मा एक ओर मन की चंचल चित्तवृत्तियों द्वारा उसे ओर खींची जाती है और दूसरी ओर परमात्मा उसे अपनी ओर बुलाता है । इन्हीं दोनों रज्जुओं से बँध कर निरन्तर काल के झूले में झूलने वाली जीवात्मा चिर काल तक कर्म कलापों में रत रहती है । यह जानते हुए भी कि जीवात्मा दोनों को एक साथ नहीं पा सकती और एक को खोकर ही दूसरे को पा सकना सम्भव है वह दोनों की ही खींचतान की द्विविधा में पड़ी रहती है । इसी द्विविधा द्वारा उत्पन्न संघर्षो को संकलन समाज और समाजों का सम्पादन विश्व कहलाता है ।

जिस डर से सब जग डरे, मेरे मन आनन्द ।
कब भारिहों कब पाइहों पूरन परमानन्द ॥


मन को वश में करने की मुक्ति ही योग है । महर्षि पातंजलि ने कहा भी है- "योगश्चित्त वृत्ति निरोधः" । चित्तवृत्ति के निरोध से ही योग की उत्पत्ति की उत्पत्ति होती है और इसी की प्राप्ति ही योग का लक्ष्य है । गीता में भगवान कृष्ण ने योग की महत्ता बतलाते हुए कहा है कि यद्यपि मन चंचल है फिर भी योगाभ्यास तथा उसके द्वारा उत्पन्न वैराग्य द्वारा उसे वश में किया जा सकता है ।

ध्यान:

ध्यान का मोटा स्वरूप एकाग्रता है। एकाग्रता किसी भी प्रयोजन के लिए क्यों न की जाय, उसका लाभ तत्काल प्रकट होता है।ध्यान का सामान्य रूप मानसिक क्षमता के बिखराव को रोककर एक केन्द्र पर नियोजित करना है। सरकस के अचम्भे में डालने वाले खेलों में से अधिकाँश एकाग्रता पर अवलम्बित हैं।

ध्यान वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके अनुसार किसी वस्तु की स्थापना अपने मनःक्षेत्र में की जाती है। मानसिक क्षेत्र में स्थापित की हुई वस्तु हमारे आकर्षण का प्रधान केन्द्र बनती है। उस आकर्षण की ओर मस्तिष्क की अधिकांश शक्तियाँ खिंच जाती हैं, फलस्वरूप एक स्थान पर उनका केन्द्रीयकरण होने लगता है। चुम्बक पत्थर अपने चारों ओर बिखरे हुए लौहकणों को सब दिशाओं से खींचकर अपने पास जमा कर लेता है। इसी प्रकार ध्यान द्वारा मन सब ओर से खिंचकर एक केन्द्रबिन्दु पर एकाग्र होता है, बिखरी हुई चित्त- प्रवृत्तियाँ एक जगह सिमट जाती हैं।

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