उच्चस्तरीय ध्यान

एकान्त स्थान में इस तरह बैठें, जिससे नाड़ियों पर तनाव न पड़े। भावना करें कि मेरी आत्मा यथार्थ में एक स्वतन्त्र पदार्थ है। वह अनन्त बल वाला, अविनाशी और अखण्ड है। वह एक सूर्य है, जिसके इर्द- गिर्द हमारा संसार बराबर घूम रहा है, जैसे सूर्य के चारों ओर नक्षत्र चक्कर हैं। हमसे भी जिन परमाणुओं (मकान, कपड़े, जेवर, धन- दौलत) का काम पड़ेगा, वे स्वभावतः हमारी परिक्रमा करेंगे ; क्योंकि हम चेतना के केन्द्र हैं। वासुदेव जी श्रीकृष्ण को टोकरी में लेकर यमुना जी को पार कर रहे थे। यमुना जी ने कृष्ण जी का चरण धोना चाहा। चरण धोने की इच्छा यमुना जी की हुई, न कि कृष्ण को अपना चरण धुलाने की। इसी तरह हमारी आवश्यकता की सारी चीजें हमारे पास स्वयं आयेंगी। अपने को चेतना का केन्द्र समझने वाला अपने को माया से सम्बन्धित मानता है पर पानी में पड़े हुए कमल के पत्ते की तरह कुछ ऊँचा उठा रहता है, उसमें डूब नहीं जाता।    

आत्मदर्शन के साधन में शीघ्रता होने के लिए, ध्यान की दशा में अपने ही नाम को बार- बार, धीरे- धीरे जपते जायें। ध्यानावस्था में आत्म स्वरूप को देह से अलग करें और क्रमशः आकाश, हवा, अग्नि, पानी, पृथ्वी की परीक्षा में से निकलते हुए देखें। हवा के वेग, अग्नि की ज्वाला का प्रभाव नहीं पड़ता, जल में घुटन नहीं होती, पृथ्वी भी आवागमन में बाधक नहीं बनती।    

अपने शरीर से बाहर निकलकर सूक्ष्म शरीर द्वारा हवा में उड़ते हुए पवित्र सरोवर या नदी में जाएँ। जल के अन्दर ध्यानावस्था में बैठें, कोई घुटन नहीं। पवित्रता की धार अन्दर प्रवेश कर रही है, सारे कषाय- कल्मष धुल रहे हैं। पुनः पृथ्वी को भेदते हुए श्रद्धा के केन्द्र किसी तीर्थ स्थल पर प्रकट हों। वहाँ की ऊर्जा को अपने अन्दर धारण करें। शरीर, मन एवं अन्तःकरण ऊर्जा से ओत- प्रोत। अगला कदम यज्ञशाला या प्रज्वलित अग्रि की ओर बढ़ायें, अग्रि के अन्दर बैठें। चारों तरफ अग्रि की लपटें उठ रही हैं, किन्तु अग्रि हमें नहीं जला रही है। जीवन यज्ञमय हो रहा है। वहाँ से उठकर हवा में उड़ते हुए अखण्ड दीप के पास आयें। दर्शन कर गुरुसत्ता को नमन करें, हवा में ऊपर उठें, आकाश मार्ग से यात्रा करते हुए अपने शरीर में प्रवेश कर जायें। आत्मचिन्तन करें।



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