योगाभ्यास सामान्य जीवन के साथ भी हो सकता है

आज्ञा चक्र के जागरण की भौतिक और आत्मिक सिद्धियों के अतिरिक्त लक्ष्य प्राप्ति का उच्चस्तरीय उद्देश्य भी इस साधना से प्राप्त होता है। पर ब्रह्म का अन्तर्जगत् में प्रकाश पुँज सविता के रूप में दर्शन करना यह गायत्री मंत्र की प्राण चेतना का ही साक्षात्कार है। समीपता बढ़ने से ज्योति से ज्योति मिलाकर साधक परम ज्योति बनता है। ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ सूत्र में आत्मा की परम यात्रा का लक्ष्य परम प्रकाश की प्राप्ति को ही बताया गया है। त्राटक अन्तरंग हो और बहिरंग यह साधक की स्थिति पर निर्भर है। दोनों से ही अन्धकार से छूटने और परम प्रकाश को पाने का उद्देश्य पूरा होता है।

ध्यान नाद और त्राटक के उपरान्त योग साधना का चौथा चरण प्राणायाम और पाँचवा मुद्रा है। प्राणायाम में नासिका द्वारा विशेष विधि और विशेष क्रम से साँस खींचने और निकालने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। साथ ही संकल्प शक्ति का उपयोग भी किया जाता है। इससे वायुमण्डल में संव्याप्त प्राण तत्त्व खींचकर शरीर में प्रवेश करता है और स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर में प्राण शक्ति की प्रखरता का संचार सम्वर्धन करता है। कई व्यक्ति हवा में मिले ऑक्सीजन भाग में प्राण मानते हैं, पर बात ऐसी नहीं है ऑक्सीजन मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक तत्त्व हैं। वायु में घुला रहने के कारण वह प्रचुर मात्रा में सर्वसुलभ भी है। इतने पर भी वह मात्र पदार्थ है। प्राण चेतन तत्त्व है। जो ईश्वर तत्त्व की तरह ही अदृश्य रहते हुए भी सर्वत्र संव्याप्त है। साँस के साथ मात्र हवा और उसके साथ घुली हुई गैसें ही शरीर में प्रवेश करती है। संकल्प शक्ति चेतन है।

सका चुम्बकत्व ही आकाश में भरे हुए जीवन तत्त्व को (प्राण को) अपनी सामर्थ्य के अनुरूप खींचता है। प्राणायाम में श्वाँस लेने की विशेष विधि और विशेष प्रकार की संकल्प शक्ति का समन्वय ही वैसा अनुकूलन उत्पन्न करता है जिससे साधकों को अधिक से अधिक प्राणवान बनने का अवसर मिलता चला जाय। प्राण शक्ति का परिचय शरीर में जीवनी शक्ति के- बलिष्ठता, दृढ़ता, प्रतिकूलताओं सहन करने की क्षमता के रूप में मिलता है। मन में प्राण की मात्रा का आभास साहस, स्फूर्ति, पराक्रम, पुरुषार्थ, धैर्य, सन्तुलन जैसे गुणों के रूप में मिलता है। अंतःकरण में प्राणशक्ति को श्रद्धा, निष्ठा, प्रज्ञा के सुनिश्चित दृष्टिकोण एवं प्रचंड संकल्प शक्ति के रूप में पाया जाता है।

इन विशेषताओं के कारण व्यक्तित्व हर दृष्टि से निखरता और सुसम्पन्न होता है। सर्वतोन्मुखी प्रगति के पथ पर चल सकना इन्हीं विभूतियों के सहारे संभव होता है। बाहरी साधनों एवं परिस्थितियों की भी अपनी उपयोगिता है किन्तु व्यक्तित्व जिस अधार पर अन्तः प्रतिभा से सुसम्पन्न होते और उच्चस्तरीय प्रयोजन पूरे करते हैं उन्हें प्राण शक्ति के रूप में ही जाना जाता है। इस तत्त्व का जो जितना संचय कर सके समझना चाहिए कि उसने उतनी ही मात्रा में वास्तविक समर्थता का सम्पादन कर लिया। प्राणायामों में उच्चस्तरीय प्राण विनियोग सोऽहम् साधना है। इसे हंस योग के नाम से जाना जाता है।

 शरीर में श्वाँस के प्रवेश के साथ ‘सो’ की और निकालने के साथ ‘हम’ की सूक्ष्म ध्वनी होती है। श्वास- प्रश्वास क्रिया के साथ अनायास ही चलने वाले इस ध्वनि प्रवास पर मन को केंद्रित करके उस दिव्य ध्वनि को श्रवण करने का अवसर मिलता है जो जीव और ब्रह्म के संयोग समन्वय से उत्पन्न होती हे। प्रकृति और ब्रह्म के मिलन केन्द्र के ओंकार की ध्वनि निस्रत होती है। उसी समागम से उत्पन्न महत्त्व से यह सारा सृष्टि संचार (प्रपंच) चल रहा है। जीव और ब्रह्म के मिलन संयोग में सोऽहम् का संचार होता है। इन दोनों ही ध्वनि प्रवाहों के सहारे ब्रह्मतत्त्व तक पहुँच सकना सम्भव हो सकता है। सांस के साथ शरीर में प्राण प्रवेश के साथ ‘सो’ शब्द का श्रवण प्रयत्न इस भावना के साथ करते हैं के ‘स’- वह परमात्मा इस कलेवर में प्रवेश करके साँस के साथ- साथ कण- कण को प्रभावित परिपोषित करता है। साँस छोड़ते समय ‘हम्’ ध्वनि की अनुभूति की जाती है और निष्ठा जमाई जाती है कि अहम् अहंकार (मैं पन) बाहर निकल रहा है बहिष्कृत हो रहा है। अहंता का विसर्जन दिव्यता का संस्थापन- यही है वह प्रत्यावर्तन जिसके आधार पर मानवी काया में देवत्व का दर्शन होता है। सोऽहम् प्राण साधना को अजपा गायत्री भी कहते हैं। इसकी महिमा योगाभ्यासों की पंक्ति में बहुत ही उच्चस्तरीय गिनाई गयी है।

 सामान्य प्राणायामों में सूर्य वेदना लोम विलोम, प्राणाकर्षण भस्त्रिका, भ्रामरी, शीतली, शीत्कारी, उज्जायी आदि ८४ प्रमुख प्राणायामों की गणना है। उन्हें शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य सम्वर्धन के लिए (विभूतियों के निराकरण के लिए) चिकित्सा उपचार की तरह प्रयोग किया जाता है। प्राण विद्या का अपना स्वतन्त्र विज्ञान है। योगाभ्यास के आध्यात्म प्रयोजनों उसकी उच्चस्तरीय विधियों का ही प्रयोग होता है। योग साधना का पाँचवाँ सोपान है मुद्रा। बन्ध और मुद्राओं का विस्तृत उल्लेख ‘‘घेरण्ड संहिता’’, ‘‘शिव संहिता’’, ‘‘गोरक्ष पद्धति’’, आदि साधना ग्रन्थों में विस्तार पूरक मिलता है।‘‘मूल बन्ध’’, ‘‘जालन्धर बन्ध’’, ‘‘उड्डियान बन्ध’’ प्रमुख हैं। महाबन्ध और त्रिबन्ध इन्हीं के संयोग से बनते हैं। शक्ति चालिनी मुद्रा, महामुद्रा, शांभवी मुद्रा, उन्मनी मुद्रा, आश्विनी मुद्रा, योनि मुद्रा अथवा चेतनी मुद्रा, खेचरी मुद्रा आदि के नाम मुद्रा प्रकरण में विषेश रूप से उल्लेखनीय हैं। मुद्रा और बन्धों का युग्म है। दोनो की गणना एक ही प्रकरण में होती है।

 मुद्राओं में खेचरी मुद्रा को गायत्री उपासना की उच्चस्तरीय साधना में प्रमुखता दी गयी है। जिह्वा को पलट कर तालु से लगाना। जीभ की नोंक से तालु को धीरे- धीरे सहलाना उस सहलाने से रसानुभूति का अनुभव करना, संक्षेप में यही खेचरी मुद्रा का मोटा रूप है। सिर शीर्ष को ब्रह्याण्ड की उपमा दी गयी है। उसकी पोल में भरे हुए द्रव को क्षीर सागर कहते हैं। इसके मध्य में अवस्थित सहस्त्रार चक्र को सहस्त्र फन वाला शेष कहा सर्प गया है जिस पर विष्णु भगवान सोये हुए हें।

ब्रह्म लोक की प्रतिकृति ब्रह्मरन्ध्र को (मस्तिष्कीय गह्वर को) माना गया है। तीनों देवताओं के लोक भी इसी गह्वर को अपनी निष्ठा के अनुरूप अनुभवी आचार्यों ने इसी क्षेत्र को बताया है। ब्रह्मा जी का नील जल- सहस्त्रदल कमल इसी क्षेत्र में है। जहाँ उन्होंने तप किया और सृष्टि रची। मानसरोवर, कैलाश सहित शिव लोक के रूप में ही इस क्षेत्र का वर्णन है। ब्रह्मलोक का आधार- तल ही तालु है। इसमें तालु तल की कितनी ही उपमाएँ दी गयी हैं। आकाश में टँगे तारकों की तरह इसके छोटे कोष्टकों को बताया गया है। यह मधुछच्छन्न भी है जिसमें से मधु टपकते रहने की बात कही गयी है। तालु कोष्टकों को इन्द्र की सहस्त्र आँखें एवं सहस्त्र योनियाँ बताया गया है और उनसे सोम रस टपकते रहने की बात कही गयी है। काकचंचु को कामधेनु गौ का स्तन बताया गया है।

अमृत कलश इसी शीर्ष भाग को कहते हैं। अमृत वर्षा की बूँदें यहीं से टपकती हैं। ऐसे- ऐसे अनेकों प्रतिपादन, विभिन्न साधना विज्ञानियों ने अपने- अपने तर्क प्रमाण और अनुभवों को साक्षी देते हुए प्रस्तुत प्रस्तुत किए हैं। खेचरी मुद्रा के सहारे- तालु संस्थान के साथ जिह्वा के अग्रभाग का समन्वय होता है तो क्रमशः कई प्रकार की मधुर संवेदनाएँ उभरती हैं। तन्त्र ग्रन्थों में इसे प्रतिक्रिया के समतुल्य सरस बताया गया है। उसका एक नाम आत्म रति भी मिलता है। माता के स्तन से दूध पीते समय बालक को जैसी तुष्टि, पुष्टि और संतुष्टि का आनन्द मिलता है वैसी ही खेचरी मुद्रा के अभ्यास से भी कही गयी है। ‘खे’ कहते हैं आकाश को ‘चर’ कहते हैं विचरण करने को। आकाश में विचरण करने वाले पक्षियों एवं ग्रह नक्षत्रों को ‘खेचर’ कहते हैं।

स्वच्छ आकाश में परिभ्रमण करने वाली मनःस्थिति को खेचरी कहा गया है। जिस प्रकार पिंजरे से निकल कर पक्षी आकाश में उड़ता है। उसी प्रकार इस साधना के सहारे भव- बन्धनों से मुक्त होकर स्वच्छंदतापूर्वक अभीष्ट दिशा में उड़ चलने का अवसर जिस स्थिति में मिले उसे खेचरी मुद्रा नाम दिया गया है। इस साधना में सफलता मिलने पर साधक को जीवन मुक्त स्थिति में पहुँचने का लाभ मिलता है।

  • ब्रह्म लोक शिव लोक, विष्णु लोक, शिव लोक अपने काय कलेवर में विद्यमान हैं। ब्रह्म गह्वर उनका केन्द्र है। तालु को उसका प्रवेश द्वार माना गया है। द्वार खटखटाने पर खोलने वाले उसे खोल देते हैं। तालु और जिह्वा के अग्रभाग का समागम एक प्रकार के परब्रह्म का द्वार खटखटाना ही है। उस अनुरोध पर प्रवेश की सम्भावना बढ़ती है। बच्चा स्तनपान करता है तो उसे दूध भी मिलने लगता है। खेचरी मुद्रा के अभ्यास को इन्हीं प्रयोजनों से मिलती- जुलती प्रक्रिया समझा जाना चाहिए। योगाभ्यास के पाँच प्रकरणों में खेचरी मुद्रा अन्तिम है किन्तु उसका प्रभाव ध्यान, नाद, त्राटक, प्राणायाम को पूर्व चरणों की किसी भी प्रकार कम नहीं है। इनमें से कौन किसे, किस तरह, कितनी मात्रा में सम्पन्न करे यह अपनी स्थिति का उचित पर्यवेक्षण करते हुए किसी अनुभवी साधक से ही निर्णय निर्धारण कराया जाना चाहिए।


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