विचारों का महत्त्व और प्रभुत्व

 शुभ हो या अशुभ, मनुष्य के हर विचार का एक निश्चित मूल्य तथा प्रभाव होता है। यह बात रसायन- शास्त्र के नियमों की तरह प्रामाणिक है। सफलता- असफलता सम्पर्क में आने वाले दूसरे लोगों से मिलने वाले सुख- दुःख का आधार विचार ही माने गये हैं। विचारों को जिस दिशा में उन्मुख किया जाता है उस दिशा के तदनुकूल तत्त्व आकर्षित होकर मानव मस्तिष्क में एकत्रित हो जाते हैं। सारी सृष्टि में एक सर्वव्यापी जीवन- तरंग आन्दोलित हो रही है। प्रत्येक मनुष्य के विचार उस तरंग में सब ओर प्रवाहित होते रहते हैं, जो उस तरंग के समान ही सदाजीवी होते हैं। वह एक तरंग ही समस्त प्राणियों के बीच से होती हुई बहती है। जिस मनुष्य की विचारधारा जिस प्रकार ही होती है, जीवन तरंग में मिले वैसे विचार उसके साथ उसके मानस में निवास बना लेते हैं। मनुष्य का दूषित अथवा निर्दोष विचार सर्वव्यापी जीवन तरंग से अपने अनुरूप अन्य विचारों को आकर्षित कर उन्हें अपने साथ बसा लेगा और इस प्रकार अपनी जाति की वृद्धि कर लेगा।

       मनुष्य का समस्त जीवन उसके विचारों के साँचे में ही ढलता है। सारा जीवन आन्तरिक विचारों के अनुसार ही प्रकट होता है। कारण के अनुरूप कार्य के नियम के समान ही प्रकृति का यह निश्चित नियम है कि मनुष्य जैसा भीतर होता है, वैसा ही बाहर। मनुष्य के भीतर की उच्च अथवा निम्न स्थिति का बहुत कुछ परिचय उसके बाह्य स्वरूप को देखकर पाया जा सकता है। जिसके शरीर पर अस्त- व्यस्त, फटे- चिथड़े और गन्दगी दिखलाई दे, समझ लीजिये कि यह मलीन विचारों वाला व्यक्ति है, इसके मन में पहले से ही अस्त- व्यस्तता जड़ जमाये बैठी है।

       विचार- सूत्र से ही आन्तरिक और बाह्य जीवन का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। विचार जितने परिष्कृत उज्ज्वल और दिव्य होंगे, अन्तर भी उतना ही उज्ज्वल तथा दैवी सम्पदाओं से आलोकित होगा। वही प्रकाश स्कूल कार्यों में प्रकट होगा। जिस कलाकार अथवा साहित्यकार की भावनाएँ जितनी ही प्रखर और उच्चकोटि की होगी, उनकी रचना भी उतनी ही उच्च और उत्तम कोटि की होगी।

          जिस तरह के हमारे विचार होंगे उसी तरह की हमारी सारी क्रियाएँ होंगी और तदनुकूल ही उनका अच्छा- बुरा परिणाम हमें भुगतना पड़ेगा। विचारों के पश्चात् ही हमारे मन में किसी वस्तु या परिस्थिति की चाह उत्पन्न होती है और तब हम उस दिशा में प्रयत्न करने लगते हैं। जितनी हम सच्चे दिल से चाह करते हैं, जिसकी प्राप्ति के लिये अन्तःकरण से अभिलाषा करते हैं, उस पर यदि दृढ़ निश्चय के साथ कार्य किया जाय, तो इष्ट वस्तु की प्राप्ति अवश्यम्भावी है। जिस आदर्श को हमने सच्चे हृदय से अपनाया है, यदि उस पर मनसा- वाचा से चलने को हम कटिबद्ध हैं तो हमारी सफलता निस्सन्देह है।

        जब हम विचार द्वारा किसी वस्तु या परिस्थिति का चित्र मन पर अंकित कर उसके लिये प्रयत्नशील होते हैं, तो उस पर दृढ़ निश्चय के साथ हमारा सम्बन्ध जुड़ना आरम्भ हो जाता है। यदि हम चाहते हैं कि हम दीर्घ काल तक नवयुवा बने रहें तो हमें चाहिये कि हम सदा अपने मन को यौवन के सुखद विचारों के आनन्द- सागर में लहराते रहें। यदि हम चाहते हैं कि हम सदा सुन्दर बने रहें, हमारे मुख- मण्डल पर सौंदर्य का दिव्य प्रकाश हमेशा झलका करे तो हमें चाहिए कि हम अपनी आत्मा को सौन्दर्य के सुमधुर सरोवर में नित्य स्नान कराते रहें।

       यदि आपको संसार ने महापुरुष बनकर यश प्राप्त करना है, तो आप जिस महापुरुष के सदृश होने की अभिलाषा रखते हैं, उनका आदर्श सदा अपने सामने रक्खें। आप अपने मन में यह दृढ़ विश्वास जमा लें कि आपमें अपने आदर्श की पूर्णता और कार्य सम्पादन शक्ति पर्याप्त मात्रा में मौजूद है। आप अपने मन से सब प्रकार की हीन भावना को हटा दें और मन में कभी निर्बलता, न्यूनता, असमर्थता और असफलता के विचारों को न आने दें। आप अपने आदर्श की पूर्ति हेतु मन, वचन, कर्म से पूर्ण दृढ़तापूर्वक प्रयत्न करें और विश्वास रक्खें कि आपके प्रयत्न अन्ततः सफल होकर रहेंगे।
       कुँए में मुँह करके आवाज देने पर वैसी ही प्रतिध्वनि उत्पन्न होती है। संसार भी इस कुँए की आवाज की तरह ही है। मनुष्य जैसा सोचता है, विचारता है वैसी ही प्रतिक्रिया वातावरण में होती है। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही उसके आसपास का वातावरण बन जाता है। मनुष्य के विचार शक्तिशाली चुम्बक की तरह हैं जो अपने समानधर्मी विचारों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। एक ही तरह के विचारों के घनीभूत होने पर वैसी ही क्रिया होती है और वैसे ही स्थूल परिणाम प्राप्त होते हैं।

         विचार की प्रचण्ड शक्ति असीम, अमर्यादित, अणुशक्ति से भी प्रबल है। विचार जब घनीभूत होकर संकल्प का रूप धारण कर लेता हैं तो स्वयं प्रकृति अपने नियमों का व्यतिरेक करके भी उसको मार्ग देती है। इतना ही नहीं उसके अनुकूल बन जाती है। मनुष्य जिस तरह के विचारों को प्रश्रय देता है, उसके वैसे ही आदर्श, हाव- भाव, रहन- सहन ही नहीं, शरीर में तेज, मुद्रा आदि भी वैसे ही बन जाते हैं। जहाँ सद्विचार की प्रचुरता होगी वहाँ वैसा ही वातावरण बन जायेगा। ऋषियों के अहिंसा, सत्य, प्रेम, न्याय के विचारों से प्रभावित क्षेत्र में हिंसक पशु भी अपनी हिंसा छोड़कर अहिंसक पशुओं के साथ विचरण करते थे।

      जहाँ घृणा, द्वेष, क्रोध आदि से सम्बन्धित विचारों का निवास होगा वहाँ नारकीय परिस्थितियों का निर्माण होना स्वाभाविक है। मनुष्य में यदि इस तरह के विचार घर कर जायें कि मैं अभागा हूँ, दुखी हूँ, दीन हीन हूँ उसका अपकर्ष कोई भी शक्ति रोक नहीं सकेगी। वह सदैव दीन- हीन परिस्थितियों में ही पड़ा रहेगा। इसके विपरीत मनुष्य में सामर्थ्य, उत्साह, आत्म- विश्वास, गौरवयुक्त विचार होंगे तो प्रगति- उन्नति स्वयं ही अपना द्वार खोल देगी। सद्विचारों की सृजनात्मक शक्ति का उपयोग ही व्यक्ति को सर्वतोमुखी सफलता प्रदान करता है।


अपने सुझाव लिखे: