महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

दशम अवतार और इतिहास कि पुनरावृत्ति

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>
     इतिहास कई बार अपनी पुनरावृत्तियाँ किया करता है। ऋतुयें अपने चक्र पर घूम कूर एक वर्ष बाद जहाँ की तहाँ आ जाती हैं। सूर्य जहाँ आज उदय हुआ था २४ घण्टे बाद फिर वहीं आ उदय होता है। जीव जन्म लेता है, बढ़ता है, और मर जाता है, फिर इसके बाद उसी जन्मने, बढ़ने, मरने के क्रम को दुहराता है। पृथ्वी अपनी धुरी पर एक दिन में एक परिभ्रमण करती है, और वर्ष में एक बार सूर्य की परिक्रमा करती है। यही क्रम वह अनादिकाल से असंख्यों बार दुहराती चली आयी है। युग, मन्वन्तर, कल्प आदि अपने क्रम को दुहराते रहते हैं।

     ग्रह-नक्षत्र अपनी धुरी और परिधि पर बार-बार निर्धारित क्रम से भ्रमण करते हैं। सृष्टि और प्रलय का चक्र भी यथावत् चलता रहता है। समुद्र से बर्षा, वर्षा का जल समुद्र में इसके बाद वही क्रम। बीज से बीज। तात्पर्य यह कि इस संसार में सभी कुछ अपनी नियत क्रम व्यवस्था के अनुसार परिभ्रमण करते हुए बार-बार उसी केन्द्र-बिन्दु पर आ पहुँचता है, जहाँ से कि वह आरम्भ हुआ था। इतिहास का भी यही क्रम है। व्यक्तियों और घटनाओं में हेर-फेर होता रहता है, पर वस्तुत: वही सब होता रहता है जो अनादिकाल में कभी हुआ है। इसी तथ्य को प्रकट करने के लिये किसी पश्चिमी विद्वान ने कहा था कि ‘देयर इज नथिंग न्यू अण्डर दी सन’ ( सूर्य के नीचे ( विश्व में) कभी कोई नवीन बात नहीं होती।)

     जरा-जीर्ण समाज व्यवस्था में बार-बार सुधार और परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव होती है। कपड़ा मैला हो जाता है उसे फिर धोना पड़ता है। बर्तनों की हर दिन सफाई होती है। घर में रोज बुहारी लगती है। दाँत रोज माँजने पड़ते हैं। कारण यह है कि एक बार सफाई कर देने के बाद फिर मैल जमना आरम्भ हो जाता है और कुछ ही समय में मलीनता इतनी बढ़ जाती है कि दुबारा उसकी सफाई अनिवार्य हो जाती है। दिवाली पर हर साल मकान की लिपाई, पुताई, रंगाई, न की जाय तो उसकी सुन्दरता और मजबूती दोनों को ही खतरा पैदा हो जायगा। इमारतें, नहरें, सड़कें, मशीनें, मोटरें सभी अपनी समायिक मरम्मत माँगती हैं। यदि उनकी उपेक्षा की जाय तो वे बहुमूल्य वस्तुयें समय से बहुत पहले ही निकम्मी और बर्बाद हो जाती हैं। अतएव बुद्धिमान लोग जब भी आवश्यकता प्रतीत हुई कि तुरन्त सुधार की प्रक्रिया सम्पन्न करते हैं। यह एक निर्धारित क्रम है उसकी पुनरावृत्ति होती ही रहती है होनी भी चाहिये। जराजीर्ण समाज व्यवस्था की भी समयानुसार मरम्मत होती है। सुधारकों का आवागमन बना रहता है। ? धर्मोपदेशक, समाज सुधारक, मार्ग-दर्शक, देवदूत, सन्त, ऋषि-मुनि समय-समय पर आते हैं और अपने काल की तात्कालिक आवश्यकताओं को देखकर उनके सम्भालने सुधारने का अपने-अपने ढंग से प्रयत्न करते हैं। अब तक हर देश में हर काल में वहीं की भाषा और संस्कृति के आधार पर सुधार कार्य सम्पन्न करने वाली ऐसी अगणित आत्मायें अवतरित हो चुकी हैं आगे भी होगी।

     परिस्थिति जब अधिक विषम हो जाती है तो उसके लिये महाकाल को अपने शस्त्र सम्भालने पड़ते हैं। छोटे-मोटे मकान, पुल मामूली इन्जीनियर बना लेते हैं पर यदि कोई बहुत बड़ा बाँध बनाना हो तो उसके लिये बड़े इन्जीनियरों की आवश्यकता होती है। कोई भारी बाँध टूट जाय और उसमें भरे हुए पानी से सैकड़ों मील प्रदेश डूब जाने का खतरा उत्पन्न हो जाय तो उस संकट का निवारण फिर मामूली इन्जीनियरों के बस का काम नहीं रहता। फिर उस समस्यों का हल बिशेषज्ञों द्वारा ही खोजा जाता है। समाज में मामूली गड़बड़ियाँ तो बार-बार होती, उठती रहती हैं और उनका सुधार कार्य सामान्य सुधारकों द्वारा सम्पन्न हो जाता है पर जब पाप अपनी सीमा का उल्लंघन कर जाता है मर्यादायें टूट जाती हैं जन-मानस चिकने घड़े की तरह किसी शुभ प्रेरणा और सत् प्रभाव से प्रभावित होने की क्षमता खो बैठता है       तब महासुधारक की आवश्यकता पड़ती है। इस कार्य को महाकाल स्वयं करते हैं, क्योंकि अन्ततः बिगड़ी बेकाबू परिस्थितियों को संतुलन में लाने की जिम्मेदारी उन्हीं की है। अस्पतालों में छोटे आपरेशन ही सहायक डाक्टर करते रहते हैं, पर जब जान जोखिम का ‘मेजर आपरेशन’  करना हो तो उसमें सिविल सर्जन की उपस्थिति अनिवार्य हो जाती है। इन दिनों जन-जीवन किस अनैतिक स्तर पर पहुँच गया है, उसमें अब छोटे सुधार से छोटे सुधारकों से काम चलता नहीं दीखता। अब उसके लिये बहुत बड़ी उलट-पुलट की उथल-पुथल की आवश्यकता अनिवार्य हो गयी है। इस प्रयोजन की पूर्ति भगवान का प्रत्यावर्तन तत्व-महाकाल-करते रहे हैं। अब भी वे ही करने जा रहे हैं। प्राचीनकाल में भी ऐसा ही होता रहा है। अब उसी की पुनरावृत्ति पुन: होने जा रही है।

     आगामी कुछ ही वर्षों में संसार में एक भयानक उथल-पुथल होने जा रही है। इस उथल-पुथल में भौतिक दृष्टि से कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होने की सम्भावना है जिनमें मनुष्य जाति के कष्टों में अभिवृद्धि हो और उस प्रताड़ना से प्रभावित मनुष्य यह विचारने को विवश हो कि उस राह पर नहीं चला गया, जिस पर चलना चाहिये था। अनीति अन्तत हानिकारक होती है इतनी छोटी-सी शिक्षा यदि लोग स्मरण रख सके और अपना सके होते तो प्रकृति को कुपित होकर अपना रुद्र रूप धारण न करना पड़ता, और असंख्यों को जो अगणित कष्ट भोगने के लिये बाध्य होना होता है उसकी आवश्यकता न पड़ती।

     भगवान् का किसी से द्वेष नहीं। वे तो परम कारुणिक और परम मंगलमय हैं। इसी से तो उन्हें शिवशंकर कहते हैं। भोला भी उन्हीं का नाम है।
     भोला का अर्थ हैं-सरल, सौम्य, सज्जन। जो इस प्रकार की प्रवृत्ति का है वह भला दूसरों को कष्ट देने में मोद मनाने की नृशंसता क्यों करेगा ? विवशता ही इसके लिये उन्हें बाध्य कर देती है। मनुष्य जब अत्यधिक दुराग्रही, अहंकारी और ढीठ हो जाता है सज्जनता को रीति-नीति को बेतरह तोड़ता है और दुष्टता पर उद्धततापूर्वक उतारू हो जाता है तभी उन्हें ऐसा कुछ करना पड़ता है जो कष्टकर और भयंकर दीखे। यद्यपि सड़ा फोड़ा चीरने के लिये माता द्वारा अस्पताल ले पहुँचना और डाक्टर द्वारा वहाँ फाड़-चीड़ करना दोनों के हो काम निर्ममतापूर्ण दीखते हैं पर उससे रोगी का हित ही लक्ष्य में रहता है। दोनों ही यह चाहते हैं कि कष्ट पीड़ित का कष्ट मिटे और वह रोज-रोज की व्यथा वेदना से मुक्ति पाकर सुख-शान्ति का जीवन बिताये, भले ही कुछ क्षण इसके लिये उसे कष्ट उठाना पड़े। आज का मानव समाज भी विष व्रण से ग्रस्त रोगी की तरह है। उसके कल्याण का इन परिस्थितियों में यही मार्ग दीखता है कि फोड़ा चीर दिया जाय ताकि सड़ा मवाद जो हर समय वेदना उत्पन्न करता है निकल कर दूर हो जाय।

     अवतारों का यही प्रयोजन सदा से रहा है। वे इस प्रकार की हलचल पैदा करते आ रहे हैं, जिससे अशान्ति का अन्त होकर शान्ति की स्थापना हो। महाकाल समय पर इस प्रयोजन के लिये एक भावनात्मक प्रवाह उन्न्त करते हैं। इस प्रवाह में जन-मानस उद्वेलित होता है और उसमें से कितने ही ऐसे योद्धा निकल पड़ते हैं जो इस दैवी पुण्य-प्रयोजन की पूर्ति के लिये असाधारण पुरुषार्थ कर दिखायें, अभीष्ट प्रयोजन को एक व्यक्ति नहीं वरन् अनेक मिलकर सम्पन्न करते हैं। भले ही उस अभियान के नेताओं में से किसी एक को विशेष: ख्याति मिल जाय पर वस्तुत: होता वह भावनात्मक प्रवाह ही है, जो सहज ही अनेक साथी सहयोगी बना कर खडे़ कर देता है और कष्ट-साध्य दीखने वाली परिवर्तन प्रक्रिया देखते-देखते सरल हो जाती है। आश्चर्यचकित लोग सूक्ष्म जगत् की प्रभु प्रेरित विधि व्यवस्था को तो देख नहीं पाते, बाहर जो सबसे प्रमुख व्यक्ति दीखता है उसी के सिर श्रेय का सेहरा बाँध देते हैं। अवतारी या विजेता कोई एक घोषित किया जाता है-यह मनुष्य की स्थूल दृष्टि की भूल भरी परख है। तत्वदर्शी जानते हैं कि एक व्यक्ति कितना ही बड़ा या समर्थ क्यों न हो ? वह अगणित मनुष्यों के सहयोग विना कुछ नहीं कर सकता और यह सामूहिक संघर्ष असहयोग की प्रवृत्ति समय-समय पर महाकाल भड़काते हैं। वे निराकार हैं इसलिये उनका कार्य क्षेत्र भी सूक्ष्म जगत ही होता है। वे भाव-स्वरूप चेतना हैं।

     इसलिये विश्व व्यापी चेतन तत्व में उनकी आकांक्षा सक्रिय होती है। उसकी स्फुरणा से प्रबुद्ध व्यक्ति बड़े-बड़े काम करने लगते हैं। उन्हें सहयोग श्रेय और साफल्य उपलब्ध होता है। इसलिये लोग उन्ही को प्रयोजनपूर्ण कर्त्ता, विजयी उद्धारक, अवतार मानते हैं। वस्तुत: होता कुछ और ही है। इन कठपुतलियों को नचाने वाला सूत्रधार पर्दे के पीछे छिपा बैठा रहता है उसे चमड़े की आँखें देख कहाँ पाती हैं ?

     युग परिवर्तन की आशा पूर्ण करने के लिये अतीतकाल में अनेक अवतार हुए हैं। कहीं दस का कहीं चौबीस का वर्णन मिलता है। इन सबकी सामयिक परिस्थितियाँ अलग थी, अस्तु उन्हें कार्यक्रम, स्वरूप एवं साधन भी अपने ढंग के अलग जुटाने पड़े, पर उद्देश्य सभी का एक था-

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।।

इसी को रामायण में इन शब्दों में कहा गया है- 
जब जब होहि धरम की हानी। 
बाढ़हिं अधम असुर अभिमानी।। 
तब तब प्रभु धरि मनुज शरीरा। 
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

     अनीति और अवांछनीयता को हटाकर उसके स्थान पर औचित्य एवं विवेक को प्रतिष्ठापित करने का दैवी प्रयोजन समय-समय पर अनेक हस्तियाँ सम्पन्न करती और यशस्वी होती रही हैं। महत्वपूर्ण अवसरों पर यह अवतरण प्रक्रिया अनादिकाल से उपस्थित होती रही है। ठीक वैसी ही परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाने पर उसी प्रकरण की पुनरावृत्ति फिर हो रही है।

     प्राचीन काल में उत्पादन और वैभव ठप्प हो गया था, सभी देव असुर आलस और नैराश्य में ग्रसित मानस बैठे थे। तब महाकाल ने समुद्र मंथन के लिये प्रेरणा उत्पन्न की। देवता और असुरों का सम्मिलित सहयोग सम्भव हो गया। समुद्र में से ऐसे १४ रत्न निकले जिन्हें पाकर विश्व वसुधा की समृद्धि असंख्य गुनी बढ़ गयी। समुद्र मंथन के आधार की आवश्यकता पड़ी, मन्दराचल पर्वत की रई तो बन गयी, पर इतना भारी पर्वत कहाँ जाय ? उसका भार कौन सम्हाले ? तब कच्छप अवतार आगे आया। उसने आधार बनना स्वीकार किया। उसी की पीठ पर समुद्र  मंथन हुआ। कच्छप अवतार की जय बोली गयी। क्योंकि उनने एक बड़ा उत्तरदायित्व वहन किया था। फिर भी वे समुद्र मन्धन की सारी प्रक्रिया को सम्पन्न करने वाले नहीं कहे जा सकते। जिस समय सर्प की रस्सी बनायी गयी थी, जैसे जिन देवताओं और असुरों ने लम्बी अवधि तक श्रम किया था, जिस समुद्र ने अपने गर्भ से निकाल कर वे रत्न दिये उन सभी का सहयोग असामान्य था। वस्तुत: सभी की सम्मिलित विजय थी। तात्विक दृष्टि से देखा जाय तो इस उपलब्धि का श्रेय उस भावनात्मक प्रवाह को है जिसने लोक-मानस में एक विशेष प्रकार की हलचल उत्पन्न की और जिसने अप्रत्यक्ष रूप से उसके साधन-उपकरण जुटाने का असम्भव कार्य सम्भव बना दिया। तो भी इतिहासकार उस उपलब्धि का श्रेय कच्छप अवतार को देते हैं। इसमें कोई बड़ा दोष भी नहीं है। पूरी न सही एक महत्वपूर्ण भूमिका तो आखिर उनकी भी थी ही।        
     
     हर अवतार में उसी तथ्य की पुनरावृत्ति होती रही है। मत्स्य, कूर्म, बराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, कृष्ण, राम, बुद्ध के चरित्रों पर व्यापक दृष्टि डालने से यही तथ्य उभर कर ऊपर आ जाता है। अवतारी युग पुरुष बडे़-बडे़ अद्भुत काम कर दिखाते हैं वे आश्चर्यजनक होते हैं और अनुपम भी पर दो बातें हर अवतार में एक-सी रहती हैं-एक यह कि अवतार का उद्देश्य तत्कालीन अवांछनीय परिस्थितियों को बदलना रहता है और दूसरा यह कि इस प्रयोजन में जन-सहयोग की आवश्यक मात्रा सम्मिलित रहती है। भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाया था तो उसमें अनेक ग्वाल-बाल भारी पहाड़ से दबकर मरने का भय छोड़कर लाठी का सहारा लगाये खड़े थे। महारास रचाया तो अनेक गोपियाँ अपने विषम बन्धनों को तोड़कर उसमें सम्मिलित हो गयीं। महाभारत रचाया तो साधन विहीन पाण्डवों के साथ एक बड़ी सेना आ खड़ी हुई।    रचनात्मक हो या ध्वंसात्मक उनके हर काम में जन सहयोग विद्यमान था। भगवान राम के प्रयोजन में-रीछ, वानर, गिद्ध, गिलहरी जैसे असंख्य सहयोगी सम्मिलित थे। बुद्ध के लक्ष-लक्ष अनुयायी देश-विदशों में भ्रमण कर सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाते थे। अशोक जैसे संपन्न् आनन्द जैसे प्रबुद्ध एवं अम्बपाली जैसे आकर्षक व्यक्तित्व उनके साथ थे। इन अवतारी नर-पुरुषों ने अपने समय के जमाने को पलट देने में सफलता पायी। बुद्ध और गाँधी ने तो एक नया प्रयोग करके दिखाया कि बिना खून खराबी और उत्पीड़न के भी जमाने को पलटा जा सकता है और अवतरण का उद्देश्य पूरा किया जा सकता है।

       अब दसवाँ ‘‘निष्कलंक’’ अवतार इन दिनों हो रहा है- -हो चुका है। यह एक भावना-प्रवाह है जिसका उद्देश्य है पिछले हजारों वर्षों की कलंक कालिमा को धोकर मानवता का मुख उज्ज्वल करना, कलंक को धो डालना। दशवें निष्कलंक अवतार के नाम पर अन्तत: उस अभियान की सफलता का सेहरा किसके सिर पर बाँधा जायेगा, इसमें साधारण लोगों को भले ही दिलचस्पी हो, तत्वदर्शियों की दृष्टि में इसका रत्ती भर भी महत्व नहीं। वे जानते हैं कि इतने बड़े प्रयोजन की पूर्ति कोई एक व्यक्ति नहीं कर सकता। भगवान अपने विशेष प्रतिनिधि इस संसार में जरूर भेजते हैं पर पूर्ण भगवान कभी जन्म नहीं ले सकता। यदि पूरा भगवान एक जगह जन्मे तो फिर तो शेष संसार की सारी व्यवस्था कौन सम्भाले ? सदा अंश अवतार ही होते हैं अवतरण की वेला में एक नहीं अनेक प्रबुद्ध आत्मायें एक साथ अवतरित होती हैं और वे मिल-जुलकर दैवी प्रयोजनों की पूर्ति सम्भव करती हैं।

     इस तथ्य को जानने वाले व्यक्तियों को नहीं प्रवाह स्रोत को पहचानने का प्रयत्न करते हैं। इन दिनों युग परिवर्तन का जो सुव्यवस्थित विश्व-व्यापी भावना प्रवाह उद्वेलित हो रहा है, उसके पीछे एक ही लक्ष्य है-मानवता के अतीत कालीन उज्ज्वल गौरव की पुन: प्रतिष्ठापना। लम्बी अवधि तक विदेशी शासन के अन्तर्गत रहने और आवश्यक संघर्ष में कमी रहने देने की भीरुता का कलंक हमारे मस्तक पर एक कालिमा की तरह लगा हुआ है। हम अवांछनीय को इसलिये सहन करते हैं कि हमें संघर्ष में पड़ने से कष्ट उठाने पड़ेगे, त्याग करने पड़ेंगे। यह कलंक साहसी शूरवीर और आत्मा को अमर मानने वाली जाति के लिये निस्संदेह बहुत ही घृणित है। जन-मानस में उद्वेलित वर्तमान भावना प्रवाह अब इसी दिशा में उमड़ चला है कि हम स्वाभिमानी, साहसी, सत्यनिष्ठ विवेकवान, मनुष्यों की तरह जियें और हमारे व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन पर पिछली शताब्दियों में जो कलंक लग गये हैं उन्हें परिपूर्ण प्रायश्चित के साथ धोवेगे और उन परिस्थितियों को उत्पन्न करेगे जो किसी गौरवशाली समाज के लिये उचित हैं। यह भावना प्रवाह निष्कलंक अवतार ही तो होगा।

     प्राचीनकाल में विवेक की पूजा होती थी, मूढ़ता एवं रूढ़िवादिता की नहीं। आज सब कुछ उल्टा है। ढर्रे की पूजा होती है, विवेक को पद-दलित कर दिया गया है। मनुष्य-मनुष्य के बीच पाई जाने वाली वंश जाति के नाम पर ऊँच-नीच की भावना तथा नर-नारी के बीच पाई जाने वाली ऊँच-नीच की वृत्ति सर्वथा अनैतिक एवं अवांछनीय है। यह कलंक हम सभ्यताभिमानियों पर बुरी तरह लगा हुआ है कि हर बात तो न्याय की, नीति की, समता की, सत्य की करते हैं पर बरताव बिल्कुल उल्टा करते हैं। विवाह-शादियों में होने वाला अन्धाधुन्ध खर्च तथा अगणित अन्ध-विश्वासों के कारण जन-जीवन को जो असीम क्षति उठानी पड़ रही है उसका विरोध करने में हीनता दिखाना हमारी विवेकशीलता को कलंकित करता है। व्यक्तिगत जीवन में हम जिस आलस, विलासिता, असंयम, स्वार्थ, अहंकार का असभ्य प्रदर्शन करते हैं, उसने विश्व के सभ्य-समाज में हमारा स्थान कहाँ रहने दिया है ? पारस्परिक सहयोग की जितनी उपेक्षा अब हम करते हैं उतनी प्राचीन काल में कभी नहीं की गयी। क्या यह सब बातें हमें कलंकित नहीं करतीं। इस विपन्नता को दूर करने के लिये आज की दैवी प्रेरणा इसी दिशा में प्रवाहित हो रही है कि हम अपने व्यक्तित्व को, परिवार को, समाज को, सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाने के लिये वे प्रयत्न करें जिससे इन दिनों जो लांछन अपने ऊपर लगाये जा रहे हैं उनका पूरी तरह परिशोधन परिमार्जन एवं प्रायश्चित हो सके। हम संसार के सामने सभ्य, सज्जन बनकर उपस्थित हों, अपने अद्यावधि सभी कलंकों को धो डालें और निष्कलंक समुज्ज्वल जीवन नये सिरे से जीना प्रारम्भ करें।

     
दशम अवतार हो चुका है-वह पढ़, बढ़ और परिपुष्ट हो रहा है। पौराणिक भाषा में उसका नाम है, निष्कलंक क्योंकि वह हमारी वर्तमान तथा पिछली पीढ़ियों की दुष्प्रवृत्तियों, कलंकों को धोने आ रहा है। उसके द्वारा ऐसा भावात्मक प्रवाह उत्पन्न किया जा रहा है जिससे लोग अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं तथा समस्याओं में उलझे होने की संकीर्णतापूर्ण बहानेबाजी को छोड़कर खुशी-खुशी लोक-मंगल के लिये भावनापूर्वक कटिबद्ध होगे। इसके लिये बड़े-बड़े तप, त्याग करने में भी संकोच न करेगे। निष्कलंक अवतार की यह प्रत्यक्ष प्रवाह प्रेरणा हम अपने चारों ओर प्रवाहित होते हुए आसानी से देख, समझ तथा अनुभव कर सकते हैं।

     निष्कलंक अवतार के साथ किस व्यक्ति का नाम जोड़ा जायगा, यह बहुत पीछे की और बहुत ही महत्वहीन बात है। इसका निर्णय तीस वर्ष का घटनाक्रम तथा इतिहास करेगा। अभी उसकी ढूँढ़-तलाश तथा पहचान अनावश्यक भी है और निरर्थक भी। निष्कलंक अवतार द्वारा प्रादुर्भूत नव-निर्माण के लिये समुद्यत भावना प्रवाह को हम श्याम-घटा ही की तरह आकाश में घुमड़ते हुए भली प्रकार देख सकते हैं और निष्कलंक अवतार की उपस्थिति के सम्बन्ध में विश्वस्त हो सकते हैं।

       पर इस संक्रान्तिकाल में कुछ ऐसे व्यक्ति भी निकल पड़ते हैं, जो ‘अवतार’ होने का दावा करके संसार को भीषण परिस्थितियों से मुक्ति दिलाने का वायदा करते हैं। इससे अनेक सीधे-साधे व्यक्ति भ्रम में पड़कर मार्ग च्युत हो जाते हैं और अवतार सम्बन्धी कार्यक्रम में सहयोग देने के बजाय उल्टी-सीधी बातें करने लगते हैं, जिससे इस महान् उद्देश्य को क्षति पहुँचती है। ऐसे तथाकथित ‘अवतार’ उन स्वार्थी और घुसपैठ करने वाले व्यक्तियों की तरह हैं जो जहाँ लाभकारी स्थिति देखते हैं वहीं वैसा ही रूप बनाकर उपस्थित हो जाते हैं। जैसे शासनाधिकार को पा जाने पर हजारों चलते पुर्जा व्यक्ति शुद्ध खद्दर की पोशाक पहनकर गाँधी जी के अनुयायी बन बैठे और अन्त में कांग्रेस की नैया को डुबाने के निमित्त सिद्ध हुए। इसी प्रकार ये ‘अवतार’ नामधारी भी महाकाल द्वारा जगत की दुरवस्था का सुधार करने के कार्यक्रम में इस प्रकार के ढो़ग और स्वार्थपूर्ति की कार्यवाहियों द्वारा बाधा स्वरूप ही सिद्ध होते हैं।

        इतिहास को पुनरावृत्ति होती रही है। अब फिर हो रही है। अवांछनीय अन्याय और अविवेक का उन्मूलन करके सद्भावनाओं एवं सत्यवृत्तियों का अभिवर्धन करने के लिये पिछले अन्य नौ अवतारों की तरह दशवाँ अवतार फिर हो रहा है। आँख वाले उसका दर्शन कर सकते हैं और बुद्धि वाले ईश्वरीय व्यापार में साझीदार होकर वह सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं जिसके लिये उनका यश शरीर अनन्त काल तक उज्ज्वल नक्षत्रों को तरह चमकता रह सके।

<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118