महाकाल और युग प्रत्यावर्तन प्रक्रिया

विभूतियों का आह्वान

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          समय की पुकार पर विशिष्ट तथा चेतना सम्पन्न व्यक्ति कुछ कर गुजरने के लिये खड़े हुए हैं, उन्हीं का संगठित रूप युग निर्माण परिवार के नाम से जाना जाता है। जैसे-जैसे कार्य का विस्तार होता है, वैसे-वैसे उसके लिये अधिक व्यापक व्यवस्था करनी पड़ती है। नव निर्माण के कार्य के लिये भी अब विभूति सम्पन्न व्यक्तियों को विशेष भूमिका में उतारना होगा।

       यों सभी मनुष्य ईश्वर के पुत्र हैं पर जिनमें विशेष विभूतियाँ चमकती हैं उन्हें ईश्वर के विशेष अंश की सम्पदा से सम्पन्न जानना चाहिये। गीता के विभूति योग अध्याय में भगवान कृष्ण ने विशिष्ट विभूतियों में अपना विशेष अंश होने की बात उदाहरणों समेत बताई है। यों जीवनयापन तो अन्य प्राणियों की तरह मनुष्य भी करते हैं पर जिनके पास विशेष शक्तियाँ-विभूतियाँ हैं कुछ महत्वपूर्ण कार्य वे ही कर पाते हैं। इसलिये भावनात्मक नव-निर्माण जैसे युगान्तकारी अभियानों में उनका विशेष हाथ रहना आवश्यक है।

      कार्य बढ़ाने के लिये प्रयास करने के साथ बड़े हुए कार्य को व्यवस्थित और सुनियोजित ढंग से चलाना भी आवश्यक है। उसके लिये विभूतिवान व्यक्तियों की आस्थायें जागृत करके उनकी विभूतियों को इस दिशा में लगाया जाना है। ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति के लिये उपयोग में लाया जाना ही विभूतियों को सार्थक वनाना है।

    वस्तुत: विभूतियाँ होती ही इसीलिये हैं। विभूतियाँ ईश्वर प्रदत्त होती हैं, व्यक्तियों को वह सौंप तो दी जाती हैं। परन्तु मात्र धरोहर के रूप में उनका मन चाहा प्रयोग किया जाना अनैतिक भी है तथा उनकी पात्रता को खो देने की भूमिका भी। जिस के लिये जो वस्तु दी जाये उसमें उसका उपयोग न किया जा सके तो उसे छीन भी लिया जाना अस्वाभाविक नहीं। विभूतियों की आवश्यकता युग परिवर्तन जैसे महत्वपूर्ण कार्य के लिये है। तो उन्हें उसके लिये लगना ही होगा। महाकाल के संकेत की अवहेलना की नहीं जा सकती। इसीलिये जिनके पास विभूतियों हैं-उन्हें सचेत करना, झकझोरना भी आवश्यक है। युग निर्माण योजना द्वारा यह कार्य भी किया जा रहा है। हर समझदार व्यक्ति को चाहिये कि वह विभूतिवानों को संकेत करें तथा समयानुकूल दिशा उन्हें दिखायें। जिन सात विभूतियों को झकझोरने का, सन्मार्गगामी बनाने का कार्य किया जाना है उनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-

      विभूतियों को सात भागों में विभक्त कर सकते हैं। (१) भावना (२) शिक्षा-साहित्य (३) कला (४) सत्ता (५) सम्पदा (६) भौतिकी (७) प्रतिभा। इन सातों के सदुपयोग से ही व्यक्ति और समाज का कल्याण होता है।

        युग निर्माण आन्दोलन का प्रथम प्रयास जन जागरण था अब अगला कदम विभूतियों को भी झकझोरना है और उन्हें उलझी हुई स्थिति से निकाल कर जीवन अथवा मरण में से एक को चुन लेने के लिये विवश करना है। अब तक यह अभियान भारत तक-विशेषतया हिन्दू वर्ग के प्रगतिशील वर्ग तक सीमित रहा है अब इसकी परिधि विश्वव्यापी बनाई जा रही है। प्रथम चरण में मजबूती आ जाने पर यह दूसरा चरण उठाया जाना आवश्यक भी है।

     १-भावना ( धर्म एवं अध्यात्म )  व्यक्तित्व को उत्कृष्ट और गतिविधियों को आदर्श बनाने की अन्त: प्रेरणा को भावना कहा जाता है। धर्म धारणा और अध्यात्म साधना के समस्त कलेवर को इसी प्रयोजन के लिये खड़ा किया गया है। युग निर्माण योजना ने बताया है कि चरित्र गठन का नाम धर्म और अपनी क्षमताओं को लोक मंगल के लिये समर्पित करने की पृष्ठिभूमि का नाम अध्यात्म है। भावनाओं को कल्पना लोक में नहीं उड़ते रहना चाहिये वरन् उन्हें अपने तथा समाज के समग्र निर्माण में संलग्न होना चाहिये। यही उनका वास्तविक प्रयोजन है भी।

         धर्म की प्राचीनता और दार्शनिकता से प्रभावित लोगों को कहा जा रहा है कि अपने सम्प्रदाय की संख्या बढाने-धर्म परिवर्तन के अति उत्साह में शक्तियों का अपव्यय न करें। हमारा सतत प्रयास है-सब धर्मों में परस्पर सहिष्णुता और समन्वय की प्रवृत्ति उत्पन्न करना। वे अपने स्वरूप को भले ही बनाये रहें पर विश्व धर्म के घटक बनकर रहें और अपने प्रभाव को चरित्रगठन एवं परमार्थ प्रयोजन में ही नियोजित करें। प्रथा परम्पराओं वाले कलेवर को गौण समझें। सभी धर्म सम्प्रदाय अपनी परम्पराओं में से उत्कृष्ट अंश अपनाकर-विश्व एकता के उत्कृष्ट मानवता और आदर्श समाज रचना के लक्ष्य को लेकर आगे बढें और एक ही केंद्र पर केन्द्रित हों। धर्मों के जीवित रहने का, अपनी उपयोगिता बनाये रहने का मात्र यही तरीका है।

          धर्म और अध्यात्म क्षेत्र में लगी प्रचुर पूँजी, जन शक्ति और प्रभावशीलता को भविष्य में निहित स्वार्थों के पोषण के लिये प्रयुक्त नहीं होते रहने देना चाहिये। राज तन्त्र में उसकी शक्ति सृजनात्मक दिशा में लगनी चाहिये भावनाशील लोग-न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति से सन्तुष्ट रहकर अपनी भौतिक एवं आत्मिक क्षमताओं का उपयोग मानव जाति के लिये समर्पित कर दें तो निस्संदेह सर्वोत्तम युग साधना होगी और उसका सत्परिणाम प्रत्यक्ष परिलक्षित होगा।

   ( २) शिक्षा एवं साहित्य    व्यक्ति की समस्त गरिमा उसकी मनःस्थिति पर विचार प्रक्रिया पर निर्भर है। इस जीवन प्राण के मर्म स्थल को शिक्षा एवं साहित्य के माध्यम से ही परिष्कृत बनाया जा सकता है। व्यक्ति और समाज के निर्माण में शिक्षा और साहित्य की महत्ता सर्वविदित है। युग परिवर्तन की इन घड़ियों में दोनों माध्यमों का समुचित उपयोग किया जाना चाहिये।

         सरकारों को अपने ढंग से काम करने देना चाहिये। वर्तमान वातावरण में उनके लिये यह कठिन ही है। नये युग के अनुरूप मस्तिष्क ढालने वाली शिक्षा पद्धति के बारे में सही ढंग से कुछ सोच सकें और वैसा ही कुछ सही कदम उठा सकें। सरकारें भौतिक जानकारियाँ देने वाली जो शिक्षा प्रक्रिया चला रही है उससे लाभ उठाना चाहिये, किन्तु भाव परिष्कारकी पूरक, धर्म शिक्षा, नैतिक शिक्षा, भावनात्मक नव निर्माण की शिक्षा पद्धति का संचालन जनता स्तर पर होना चाहिये। प्रौढ़ शिक्षा का कार्य भी जनता को ही अपने हाथ में लेना चाहिये। ये सरकारी स्तर पर नहीं जन स्तर पर ही हल हो सकती हैं। विवाहित महिलाओं की शिक्षा का प्रबन्ध सरकारी विद्यालय कर सकेगे यह आशा रखना व्यर्थ है। दृष्टिकोण परिष्कार आज की परिस्थितियों में चरित्र निर्माण का व्यवस्थित पथ समाज संरचना की अगणित समस्यायें और हल विश्व परिवार के लिये बाध्य करने वाले प्रचण्ड वातावरण का निर्माण, यह सब प्रयोजन जन स्तर के विद्यालय ही पूरा कर सकेगे। पूरे या अधूरे समय के लिये जनता अपनी रोटी कपड़ा दवा मनोरंजन आदि का खर्च स्वयं उठाती है, इसके लिये सरकार से अनुदान नहीं मँग़ती तो फिर भावनात्मक नव निर्माण की शिक्षा के लिये सरकार का मुँह ताका जाय इसकी क्या आवश्यकता है।

       हर जगह ऐसे सुशिक्षित भावनाशील लोग मौजूद हैं, जिनके अन्दर परमार्थ के लिये आन्तरिक ज्योति चमकती रहती है। मार्ग न मिलने से वह अवरुद्ध रहती है इन्हें इन विद्यालयों को चलाने के लिये अपना थोड़ा-सा समय अवैतनिक रूप से अनुदान देने के लिये कहा जाय तो अवश्य ही अनेक जागृत आत्मायें आगे आयेंगी और लाखों शिक्षकों की आवश्कयता सहज ही पूरी हो जायगी। ढलती उम्र के लोग वानप्रस्थ परम्परा अपनाकर लोकमंगल के क्षेत्र में उतरने के लिये प्रोत्साहित किये जा सकें तो भी इस दिशा में तत्पर काम हो सकता है।

      लोक शिक्षण की महती आवश्यकता पूरी कर सकने वाले विद्यालय हर गाँव और हर मुहल्ले में स्थापित हो सकते हैं और सफलतापूर्वक चल सकते हैं। अब यह युग धर्म समझा जाना चाहिये और सोचने तक ही सीमित न रहकर इसकी स्थापना और संचालन के लिये कटिबद्ध होना चाहिये। हम अगले दिनों इसकी प्रचण्ड प्रेरणा सर्वत्र भरने के लिये अपने प्रखर आत्मबल का प्रयोग करने जा रहे हैं। कहना न होगा कि अगले ही दिनों इस संदर्भ में आशाजनक सफलता उत्पन्न होते हम सब अपनी इन्हीं आँखों से प्रत्यक्ष देखेगे।

         साहित्यकारों से इसी दिशा में लेखनी उठाने के लिये क-हा जा रहा है। कवियों से मूर्च्छित जनता को जागृति में परिणत कर सकने वाले अग्नि गीत लिखने के लिये कहा गया है। पत्रकार अपने पत्रों में पत्रिकाओं में इस प्रकार के समाचारों और लेखों को स्थान देना आरम्भ करें, प्रकाशक ऐसी ही पुस्तकें छापें। संसार में लगभग ६०० भाषायें हैं। भारत में ही सरकारी मान्यता प्राप्त १४ भाषायें हैं और इससे कई गुनी संख्या उन भाषाओं को है जिन्हें मान्यता प्राप्त नहीं है। इन सभी भाषाओं में प्रचुर साहित्य लिखा जाना, अनुदित किया जाना, छापा जाना और विक्रय किया जाना आवश्यक है। इस प्रकाशन व्यवसाय के लिये पूँजी और प्रतिभा दोनों की ही आवश्यकता है। मात्र लेखक नहीं प्रकाशक भी जब इस क्षेत्र में उतरेगे तो उनके परस्पर सहयोग समन्वय से कुछ काम चलेगा। इस दिशा में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से उपयुक्त व्यक्तियों को प्रेरणा दी जानी है दी भी जा रही है। युग निर्माण योजना ने जो शुभारम्भ मथुरा से किया है वह एक नमूना मात्र है। अभी सैकड़ों धारायें इस क्षेत्र में काम करने के लिये बाकी पड़ी हैं और उन्हें क्रियान्वित किया ही जाना चाहिये।

        ( ३) कला मंच से भाव स्पन्दन-        कला मंच में चित्र, मूर्तियाँ, नाटक अभिनय संगीत आदि आते हैं। संगीत विद्यालय हर जगह खुलें सरल संगीत के ऐसे पाठूयक्रम हों जो वर्षो में नहीं महीनों में सीखे जा सकें। प्रचण्ड प्रेरणा भरे गीतों का प्रचलन प्रसारण इन विद्यालयों द्वारा हो और प्रत्येक हर्षोत्सव पर प्रेरक गायनों की ही प्रधानता रहे। अग्नि गीतों की पुस्तिकायें सर्वत्र उपलब्ध रहें। संगीत सम्मेलन संगीत गोष्ठियाँ कीर्तन प्रवचन सहगान क्रिया गान ( ऐक्शन सांग ) नाटक, अभिनय, लोक नृत्य जैसे अगणित मंच मण्डप सर्वत्र बनें और वे लोकरंजन की आवश्यकता पूरी करें।

      चित्र प्रकाशन अपने आप में एक बड़ा काम है। कलेण्डर तथा दूसरे चित्र आजकल खूब छपते-बिकते हैं। उनमें प्रेरक प्रसंगों को जोड़ा जा सके तो जनमानस को मोड़ने में भारी सहायता मिल सकती है। आदर्शवादी चित्र प्रकाशन की योजना सामने हो तो चित्रकार उस तरह की तस्वीरें और भी अधिक प्रसन्नतापूर्वक बना देगे। यह कार्य ऐसे हैं जिनमें प्रतिभा-पूँजी, सूझबूझ और लगन का थोड़ा भी समन्वय हो जाय तो बिना किसी खतरे का सामना किये सहज ही यह आवश्यकता पूरी की जा सकती है।

       पुस्तकालयों की-चल पुस्तकालयों की, झोला पुस्तकालयों की योजना छोटे रूप में अपना परिवार चला भी रहा है। इसे व्यापक और विस्तृत बनाया जाना चाहिये। स्थान-स्थान पर पुस्तकालय खुलने चाहिये। पुस्तक विक्रय के लिये चल पुस्तकालयों को व्यावसायिक रूप मिल सकता है। जब शाक-भाजी तक ठेल-ढकेल पर बेचने वाले हजारों व्यक्ति रोजी-रोटी कमाते हैं तो कोई कारण नहीं कि चल पुस्तकालय से भी हजारों व्यक्ति रोटी न कमाने लगें। पुस्तक विक्रय की दुकान खोलकर भी सत्साहित्य प्रसार का उद्देश्य पूरा होता है। इन्हें आर्थिक आधार पर भी किया जा सकता है। आवश्यकता मार्ग-दर्शन और क्रिया संगठन की है। प्रतिभायें यदि यह साधन जुटाने के लिये निकल पड़े तो न जाने कितना बड़ा काम बौद्धिक क्रान्ति की दिशा में हो सकता है। इसी प्रकार कलामंच को भी व्यावसायिक रूप देकर आगे बढ़ाया जा सकता है।

          यन्त्रीकरण और कला का समन्वय होने से ग्रामोफोन रिकार्ड टेपरिकार्डर तथा फिल्म सिनेमा के नये प्रभावशाली माध्यम सामने आये हैं। उनका सदुपयोग होना चाहिये। चित्र प्रदर्शनियों के उपयुक्त बड़े साइज के चित्र छपने चाहिये। रिकार्ड बनाने का कार्य योजनाबद्ध रूप  उसे सभी भाषाओं के लिये सभी प्रयोजनों के लिये उपयुक्त बनाने में बड़ी शक्ति पूँजी लगानी पड़ेगी। इस प्रकार फिल्म निर्माण का कार्य हाथ में लेना होगा। आँकडे़ यह बताते हैं कि समाचार पत्र और रेडियो मिलकर जितने लोगों को सन्देश सुनाते हैं उससे कहीं अधिक सन्देश अकेला सिनेमा पहुँचाता है। समाचार पत्रों के पाठकों और रेडियो सुनने वालों की मिली संख्या से भी सिनमा देखने वालों की संख्या अधिक है। यदि यह उद्योग विवेकवान और दूरदर्शी हाथों में हो और वे उसका उपयोग जन-मानस को परिष्कृत करने तथा नवयुग के अनुरूप बनाने में कर गुजरें तो उसका आश्चर्यजनक परिणाम सामने आ सकता है जिनके हाथ में इन दिनों यह उद्योग है उनका दृष्टिकोण बदला जाय तथा नये लोग, नई पूँजी और नई लगन के साथ इस क्षेत्र में उतरें तो इतना अधिक कार्य हो सकता है जिसकी कल्पना भी इस समय कठिन है।

    (४) विज्ञान-विज्ञान की उपलब्धियाँ आश्चर्यजनक हैं उसने मानवी सुख-सुविधाओं में आश्चर्यजनक अभिवृद्धि की है, पर यह भी सही है कि उसके दुरुपयोग से होने वाली हानियाँ भी कम नहीं उठानी पड़ रही हैं। वस्त्रों के उत्पादन में विशेषतया गैसें, किरण एवं अणु विस्फोट जन्य अस्त्रों ने तो अस्तित्व को ही संकट में डालने की विभीषिका उत्पन्न कर दी है यदि यह शोध, आविष्कार, सृजनात्मक प्रयोजनों तक ही सीमित रहे तो उसका प्रतिफल धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है। ध्वंसात्मक उपकरण जुटाने में जितने साधन खपाये जा रहे हैं यदि उन्हें मानवी अभावों और शोक सन्तापों की निवृत्ति में लगा दिया जाय तो उसका प्रतिफल इस संसार को स्वर्गोपम बनाने में हो सकता है। समुद्र के खारी पानी से मीठा जल प्राप्त किया जा सकता है। जमीन के नीचे बहने वाली विशाल नदियों का जल धरती पर लाया जा सकता है और सारी दुनियाँ सचमुच शश्य-श्यामला बन सकती है। कृषि पशुपालन, बलदानी, बन सम्पदा, स्वास्थ्य सम्बर्धन और मस्तिष्कीय विकास की दिशा में विज्ञान को अभी बहुत काम करना बाकी है। प्रकृति के प्रकोपों से लोहा लेने के साधन जुटाने में अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, भूकम्प, बाढ़-तूफान, शीत-ताप की असहनीयता का सामना करने योग्य शक्ति का उपार्जन हो सकता है। वाहनों को सरल एवं सस्ता बनाया जा सकता है, संचार साधनों के विस्तार की अभी बहुत गुञ्जायश है।

      सबसे बड़ा काम विज्ञान, को यह करना है कि वह अध्यात्म के साथ अपनी संगति बिठाये और सिद्ध करे कि शक्ति स्रोत जड़ पदार्थ की अणुसत्ता एवं ऊर्जा में नहीं वरन् चेतना के संकल्पों में, आत्मबल में सन्निहित है। विशालकाय यन्त्र संस्थानों की तुलना में व्यक्ति का शरीर, मस्तिष्क और अन्तःकरण अधिक सशक्त हैं और उस क्षमता का सदुपयोग करके व्यक्ति को देवोपम और समाज को स्वर्गीय वातावरण से ओत-प्रोत बनाया जा सकना नितान्त सम्भव है। इस सत्य को तथ्य के रूप में प्रस्तुत करना अभिज्ञान को प्रत्यक्ष बनाना विज्ञान का काम है और यह उसे करना ही चाहिये करना ही होगा। इसके लिये विज्ञान के उच्च क्षेत्र में काम करने वाले विज्ञानियों को आवश्यक प्रेरणा एवं दिशा मिलनी चाहिये। युग की यह माँग है और उसे पूरा करना ही पड़ेगा। पिछले दिनों अखण्ड ज्योति पत्रिका के माध्यम से विज्ञान और अध्यात्म का सम्बन्ध समन्वय प्रतिपादन किया भी जाता रहा है अब उसे और भी अधिक स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष करना पड़ेगा।

   (५) शासन तंत्र- राज सत्ता जिनके हाथ में इन दिनों है अथवा अगले दिनों आने वाली है उन्हें संकीर्ण राष्ट्रीयता के अपने प्रिय क्षेत्र या वर्ग के लोगों को लाभान्दित करने की बात छोड़ कर समस्त विश्व की समान रूप से सुख- शान्ति की बात सोचनी चाहिये और समस्त संसार को एक परिवार की नीति अपनाकर प्रकृति प्रदत्त साधनों एवं मानवी उपार्जन को समान रूप से सर्वसाधारण के लिये उपलब्ध करना होगा। युद्धों की भाषा में सोचना वन्द कर न्याय का आधार स्वीकार करना होगा। वर्ग भेद और वर्ण भेद की जड़ें उखाड़नी होंगी।

       अनीति, शोषण, अपराध, रिश्वत, भष्टाचार के वास्तविक शत्रु से जूझना सरकारों का काम है बेकारी, बीमारी और गरीबी दूर करने की दिशा में भी वह बहुत कुछ कर सकती है। इसके लिये सत्ता संचालकों और शासकीय कर्मचारियों में बेतरह घुसी हुई स्वार्थपरता एवं अनैतिकता को जड़ मूल से उखाड़ना होगा। इसके लिये प्रजातन्त्री देशों के वोटरों को उनके कर्तव्य विशेष रूप से समझाने होगें ताकि वे सुयोग्य प्रतिनिधि चुनने और श्रेष्ठ सरकार प्राप्त करने में सफल हो सकें।

      ( ६) सम्पदा विभूतियों में इन दिनों सर्वोपरि मान्यता पूँजी को मिली है। धन का वर्चस्व सर्व विदित है। सम्पत्ति में स्वयं कोई दोष नहीं। दोष उसके दुरुपयोग में है। व्यक्तिगत विलासिता में, अहंता की वृद्धि में यदि उसका उपयोग होता है, संग्रह बढ़ता है एवं उसका लाभ बेटे-पोतों तक ही रखने का प्रयत्न किया जाता है तो निस्संदेह ऐसा धन निन्दनीय है। अगले दिनों आर्थिक समता के आधार पर ही समाज व्यवस्था बनेगी। सामर्थ्य भर श्रम एवं आवश्यकता भर साधन प्राप्त करने के ही क्रम चलें तब सम्पदा पर व्यक्ति का नहीं समाज का अधिकार होगा। समाज में न कोई गरीब दिखाई देगा न अमीर। पर जब तक वह स्थिति नहीं बन जाती तब तक संग्रहीत पूँजी को लोकमंगल के लिये लगाने की दूरदर्शिता दिखाने के लिये धनपतियों को कहा जायेगा। कहा ही नहीं इसके लिये उन्हें प्रभावित भी किया जायेगा। उन्हें यह समझने का अवसर दिया जायगा कि समय बदल चुका। पूँजीवाद, सामंतवाद, संग्रहवाद, अमीरी के दिन लद गये। अब उस सड़ी लाश से चिपके रहने में केवल घृणा एवं विपत्ति ही हाथ लगेगी।

        इस समय उचित तो यह है कि सम्पत्तिवान लोग इस तथ्य को समझें तथा अपने धन का उपयोग समाज हितैषी कार्यों में करें। समाज का धन समाज को लौटा दें। धन के चिपके रहने में बड़प्पन की मान्यता बदल और उसे लोक मंगल के पुण्य कार्यों में नियोजित करें। पर अपने धन के प्रति मोह बहुत प्रबल होने के तथ्य को स्वीकार करते हुए भी उसे छोड़ देना हर किसी के लिए संभव नहीं। जिस पर अपना अधिकार समझते आये हैं उसे दूसरे के अधिकार में दे देना सामान्य रूप से रुचता नहीं। समाज के प्रति अपनापन इतना गहन हो जाये कि उसके कार्य और उसकी आवश्यकतायें अपनी जैसी दिखने लगें तब तो बात ही कुछ और है। फिर तो उसके लिये कुछ भी खर्च कर देना स्वाभाविक है। जब तक अपनेपन की ऐसी स्थिति नहीं आती और पैसे के प्रति मोह भी कम नहीं होता तब तक उसे समाज को सौंप देना हर किसी के लिये सम्भव नहीं।

        दान न सही कम से कम इतना तो होना ही चाहिये कि युग परिवर्तन का पथ प्रशस्त करने वाले प्रचारात्मक कार्यक्रमों में पूँजी की कमी न पड़े। भले ही यह व्यवसाय बुद्धि से किया जाय। भले ही अभी व्यक्तिगत लाभ की बात भी जुड़ी रहने दी जाय तो इतना ही होना चाहिये कि युग परिवर्तन के प्रवाह में अनुकूलता उत्पन्न करने वाला विनियोग इस पूँजी का हो सके। पिछले पृष्ठों पर ऐसे कितने ही क्रिया कलापों की चर्चा की गयी है जिनमें पूँजी के रूप में यदि धन लगा सके तो भी बहुत कुछ हो सकता हे। ( १) साहित्य प्रकाशन ( २) चित्र प्रकाशन ( ३) अभिनय मण्डलियाँ ( ४) टेप-रिकार्ड ( ५) फिल्म निर्माण। यह पाँच कार्य ऐसे हैं जिनके लिये विशालकाय अर्थ संस्थान खड़े किये जाने चाहिये और लोक मानस को परिष्कृत बनाने की अवश्यकता पूरी की जानी चाहिये।       

 धनवानों को इसके लिये कहा जायगा। साथ ही जनसाधारण के पास यदि थोड़ी सी भी बचत पूँजी हो तो उसे इन लोकोपयोगी कार्यों में लगा देने के लिये कहा जायेगा। कहना न होगा कि युग परिवर्तन का प्रवाह दैवी प्रेरणाओं के आधार पर चल रहा है। इसमें सहयोग देने वाले घाटे में नहीं नफे में ही रहेगे। पूँजी डूबने जैसी आशंका किसी को भी नहीं करनी चाहिये। यह तो सुरक्षित ही रहने वाली है-बैंक आदि से अधिक ब्याज भी मिलने वाला है। साथ ही युग देवता की सेवा-साधना का ऐसा अवसर भी मिलता है जिसके कारण असाधारण आत्म सन्तोष का वरदान भी अनन्त काल तक मिलता रहेगा। जन स्तर पर पूँजी इकट्ठी करने के लिये सरकारी समितियाँ, लिमिटेड कम्पनियाँ बनाई जा सकती हैं। उनमें पूँजी लगाने के लिये हर भावनाशील व्यक्ति को अपनी संग्रहीत पूँजी लगाने के लिये कहा जा सकता है। अनावश्यक जमीन जायदाद जेवर, जमा पूँजी बचत फण्ड आदि के रूप में कितना ही ऐसा पैसा पड़ा रहता है जिसकी साधारणतया कोई विशेष उपयोगिता नहीं होती, पर उपरोक्त आवश्यकता पूरी करने वाले अर्थ संस्थानों में लग जाय तो उससे 'आम के आम, गुठली के दाम' वाली कहावत पूरी हो सकती है। पूँजी तो सुरक्षित रहती है साथ ही साथ कुछ लाभ, ब्याज भी कमाती रहती है। इसके अतिरिक्त युग की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता पूरी करने का जो श्रेय मिलता है उसे तो हर दृष्टि से भूरि-भूरि प्रशंसा के योग्य ही कहा जायगा।

      ऐसा किया जाना कोई कठिन कार्य नहीं। कोई भी समझदार व्यक्ति इसे समझकर उत्साह के साथ आगे आ सकता है। जिस कार्य और उद्देश्य के लिये प्रयास किया जाना है उसके लिये लाभ का लोभ छोड़कर बल्कि थोड़ा-बहुत घाटा उठाकर भी सहयोग करने की इच्छा रखने वाले भावना सम्पन्न व्यक्तियों का देश में अभाव नहीं है। फिर पूँजी की सुरक्षा के साथ-साथ लाभांश की भी सुनिश्चितता होने पर तो व्यवसाय बुद्धि से भी सम्पन्न लोग उसमें उल्लेखनीय सहयोग दे सकते हैं। आवश्यकता केवल इस बात की है कि वस्तु स्थिति उन्हें समझाई जा सके तथा योजना को व्यावहारिक स्वरूप दिया जा सके।

        प्रतिभा एक विशिष्ट और अतिरिक्त विभूति है। कुछ लोगों के व्यक्तित्व ऐसे साहसी, स्कूर्तिवानू, सूक्ष्मदर्शी, मिलनसार, क्रिया कुशल और प्रभावशाली होते हैं कि वे जिस काम को भी हाथ में ले उसी आधार पर  गतिशील बनाते चले जाते हैं और सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचा देते हैं। इस विशेषता को प्रतिभा कहते हैं। सूझ-बूझ आत्म विश्वास, कर्मठता, जैसे अनेक सद्गुण उनमें भरे रहते हैं। आमतौर से ऐसे ही लोग महान कार्यों कें संस्थापक एवं संचालक होते हैं। सफलतायें उनके पीछे छाया की तरह फिरती हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञान होता है कि कठिनाइयों से कैसे निपटा जाता है, उन्हें सरल कैसे बनाया जाता है।

     प्रतिभावान व्यक्ति में चिन्तन को क्रिया में बदल देने की विशेषता होती है। जहाँ सम्भावना नहीं दिखाई दे वहाँ मार्ग खोज निकालने में उन्हें रस आता है। जिन प्रसंगों को कठिनाइयाँ कहकर सामान्य लोग उनसे बचने का प्रयास करते हैं प्रतिभावान की इच्छा उनमें घुसकर कुछ कर दिखाने की होती है। हर कठिन प्रयास को वह अपनी कसौटी का एक सुअवसर मानकर उत्साह पूर्वक उसमें पिल पड़ते हैं।

      योग्यताओं का अधिक से अधिक उपयोग प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति कर लेते हैं। बड़ी योग्यता वाले अन्य व्यक्ति जहाँ किन्तु परन्तु करते हुए सोचते रह जाते हैं वहाँ प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति थोड़ी योग्यता का भी प्रयोग चमत्कारी ढंग से करके काम फतह कर दिखाते हैं। यही कारण है कि विश्व का इतिहास प्रतिभावानों का इतिहास कहा जाय तो अनुचित नहीं। किसी भी क्षेत्र में उनकी यह विभूति समान तीव्रता से अपना प्रभाव दिखाती है।

        प्रतिभाशाली व्यक्ति ही सफल सन्त, राजनेता, समाज सेवी, साहित्यकार, कलाकार, व्यवसायी, व्यवस्थापक होते देखे गये हैं। प्रतिभावान ही डाकू, चोर, ठग जैसे दुस्साहस पूर्ण कार्य करते हैं। सेनानायकों के रूप में, लड़ाकू योद्धाओं के रूप में उन्हें ही अग्रिम पंक्ति में खड़ा देखा जाता है। क्रान्तिकारी भी इसी स्तर के लोग बनते हैं। युग निर्माण अभियान के हर पक्ष को प्रकाशवान बनाने के लिये ऐसे ही लोग चाहिये। प्रतिभाशाली तत्व जहाँ कहीं भी चमक रहे हों वहाँ से उन्हें आमन्त्रित किया जा रहा है कि वे अपने ईश्वरीय अनुदान को निरर्थक विडम्बनाओं में खर्च न करें वरन् उसे नव निर्माण के ऐसे महान प्रयोजन में निरत कर दें, जिससे समस्त संसार का हित साधन हो सके।

         सातों विभूतियों के क्षेत्र में संसार को करोड़ों प्रतिभायें आती हैं उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रभावित करने का कार्य साधारण नहीं असाधारण है पर इतना महत्वपूर्ण कि उसे किये बिना लक्ष्य प्राप्ति के लिये और कोई मार्ग नहीं, जन साधारण को उठाने का कार्य आरम्भ से ही चल रहा है और अन्त तक चलता रहेगा पर उतना ही पर्याप्त नहीं। युग परिवर्तन जैसे बड़े कार्यों के उत्तरदायित्व और भार सामर्थ्य सम्पन्न लोग ही संभाल सकते हैं। युग निर्माण योजना की विचारधारा और क्रिया पद्धति विभूति सम्पन्न लोगों तक पहुँचाई जानी चाहिये। खोज-खोजकर उन्हें प्रभावित किया जाना चाहिये। तथ्यों का प्रस्तुती करण ठीक ढंग से किया जाय तो महाकाल का आह्वान वह भली प्रकार समझ सकते हैं और अपना समर्थ योगदान देकर कार्य की प्रगति में कई गुनी गति ला सकते हैं।
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