आध्यात्मिक चिकित्सा एक समग्र उपचार पद्धति

अति विलक्षण स्वाध्याय चिकित्सा

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स्वाध्याय चिकित्सा की उपयोगिता असाधारण है। इसके द्वारा पहले मन स्वस्थ होता है, फिर जीवन। चिकित्सा के सिद्धान्त एवं प्रयोगों के जो विशेषज्ञ हैं, उन सबका यही कहना है कि रोगी मन ही जीवन को रोगी बनाता है। यदि किसी तरह से मन को निरोग कर लिया जाय तो जीवन निरोग हो सकता है। बात सही भी है यदि हमारे सोच- विचार का तंत्र ही दूषित है तो उसके प्रभाव शारीरिक रोगों एवं व्यावहारिक गड़बड़ियों के रूप में क्यों न उभरेंगे। मानसिक आरोग्य की ओर ध्यान दिए बगैर शरीर को स्वस्थ करने की सोचना, या व्यावहारिक दोषों को ठीक करना, कुछ वैसा ही है, जैसे पत्तों को काटकर पेड़ की जड़ों को सींचते रहना। जब तक पेड़ की जड़ों को खाद- पानी मिलता रहेगा, पत्ते अपने आप ही हरे होते रहेंगे। इसी तरह से जब तक सोच- विचार के तंत्र में विकृति बनी रहेगी, शारीरिक व व्यावहारिक परेशानियाँ बनी रहेंगी।

          सोच- विचार या बोध के तंत्र को निरोग करने की सार्थक प्रक्रिया स्वाध्याय से बढ़कर और कुछ नहीं है। लेकिन स्वाध्याय के इस गहरे अर्थ व प्रभाव से ज्यादातर लोग अपरिचित हैं। कुछ लोग तो स्वाध्याय को अध्ययन का पर्याय मान बैठते हैं। वे चाहे कुछ भी क्यों न पढ़ें उसे स्वाध्याय की संज्ञा देते हैं। जबकि इस तरह की पढ़ाई को मात्र अध्ययन कहा जा सकता है स्वाध्याय नहीं। अध्ययन केवल बौद्धिक विकास तक सीमित है, जबकि स्वाध्याय अपने बोध को संवारने की प्रक्रिया है। विशेषज्ञ हमारे बोध के दो आयाम बताते हैं। इनमें से पहला है बाह्य बोध या इन्द्रियों की सहायता से होने वाला बोध। दूसरा है आन्तरिक बोध यानि बौद्धिक विवेचन, विश्लेषण एवं आन्तरिक अनुभूतियों से होने वाला ज्ञान।

          बोध के ये दोनों आयाम परस्पर गहरे में गुंथे हैं। जो इन्द्रियाँ अनुभव करती हैं, बुद्धि उस पर विचार किए बिना नहीं रहती। इसी तरह से हमारी आन्तरिक सोच में जो विचार, भावनाएँ, विश्वास, आस्थाएँ, अपेक्षाएँ व आग्रह समाए रहते हैं, वे इन्द्रिय अनुभूतियों को अपने रंग में रंगे बिना नहीं रहते। कहावत भी है जैसी दृष्टि- वैसी सृष्टि। यदि दृष्टिकोण को स्वस्थ बना लिया जाय तो जीवन के सभी आयाम अपने आप ही स्वस्थ हो जाते हैं। और स्वाध्याय इसी दृष्टिकोण की चिकित्सा करता है। स्वाध्याय को यदि अंग्रेजी भाषा में कहें तो ‘सेल्फ स्टडी’ न होकर ‘स्टडी ऑफ सेल्फ’ होगा। दरअसल यह स्वयं के सूक्ष्म अध्ययन की विधि है।

          इस विधि के चार मुख्य बिन्दु है। इसके पहले क्रम में हम उन ग्रन्थों- विचारों का चयन करते हैं, जिन्हें स्व की अनुभूति से सम्पन्न महामानवों ने सृजित किया है। ध्यान रखें कोई भी पुस्तक या विचार स्वाध्याय की सामग्री नहीं बन सकता। इसके लिए जरूरी है कि यह पुस्तक या विचार किसी महान् तपस्वी अध्यात्मवेत्ता के द्वारा सृजित हो। इसके लिए श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद् अथवा परम पूज्य गुरुदेव के द्वारा लिखित ग्रन्थों का चयन किया जा सकता है। इस चयन के बाद दूसरा चरण प्रारम्भ होता है। इस क्रम में हम इन महान् विचारों के परिप्रेक्ष्य में स्वयं को देखते हैं, ऑकलन करते हैं। इस सत्य पर विचार करते हैं कि हमें क्या करना चाहिए और क्या कर रहे हैं? क्या सोचना चाहिए और क्या सोच रहे हैं?

यह बड़ा ही महत्त्वपूर्ण क्रम है। इसी स्तर पर हम अपने स्वयं के चिन्तन तंत्र की विकृतियों व विकारों को पहचानते हैं। उनका भली प्रकार निदान करते हैं। गड़बड़ियाँ कहाँ है- और उनके प्रभाव कहाँ पड़ रहे हैं, आगे कहाँ पड़ने की उम्मीद है। इन सभी बातों पर विचार करते हैं। यह सच है कि निदान सही हो सका तो समाधान की नीति भी सही तय होती है। स्वाध्याय चिकित्सा का तीसरा मुख्य बिन्दु यही है। विचार, भावनाओं, विश्वास, आस्थाओं, मान्यताओं, आग्रहों से समन्वित अपने दृष्टिकोण को ठीक करने की नीति तय करना। इसकी पूरी प्रकिया को सुनिश्चित करना। हम कहाँ से प्रारम्भ करें और किस रीति से आगे बढ़ें। इसकी पूरी विधि- विज्ञान को इस क्रम में बनाना और तैयार करना पड़ता है।

          इसके बाद चौथा बिन्दु है, इस विधि- विज्ञान के अनुसार व्यवहार। यानि कि स्वाध्याय को औषधि के रूप में ग्रहण करके स्वयं के परिष्कार का साहसिक कार्य। यह काम ऐसा है, जिसे जुझारू एवं संघर्षशील लोग ही कर पाते हैं। क्योंकि किसी सत्य की वैचारिक स्वीकारोक्ति कर लेना आसान है, पर उसके अनुसार जीवन जीने लगना कठिन है। इसमें आदतों एवं संस्कारों की अनेक बाधाएँ आती हैं। अहंकार अनगिन अवरोध खड़ा करता है। इन्हें दूर करने का एक ही उपाय है हमारी जुझारू एवं साहसिक वृत्ति। जो अपने अहंकार को अपने ही पाँवों के नीचे रौंदने का साहस करते हैं, उनसे बड़ा साहसी इस सृष्टि में और कोई नहीं। सचमुच ही जो अपने को जीतता है, वह महावीर होता है। स्वाध्याय की औषधि का सेवन करने वाले को ऐसा ही साहसी होना पड़ता है।

          पाण्डिचेरी आश्रम महर्षि श्री अरविन्द के शिष्य नलिनीकान्त गुप्त ने स्वाध्याय के बारे में अपना उदाहरण प्रस्तुत करते हुए कई मर्मिक बातें कही हैं। यहाँ ध्यान दिलाना आवश्यक है कि नलिनीकान्त अपनी सोलह वर्ष की आयु से लगातार श्री अरविन्द के पास रहे। श्री अरविन्द उन्हें अपनी अन्तरात्मा का साथी- सहचर बताते थे। वह लिखते हैं कि आश्रम में आने पर अन्यों की तरह मैं भी बहुत पढ़ा करता है। अनेक तरह के शास्त्र एवं अनेक तरह की पुस्तकें पढ़ना स्वभाव बन गया था। एक दिन श्री अरविन्द ने बुलाकर उनसे पूछा- इतना सब किसलिए पढ़ता था। उनके इस प्रश्र का सहसा कोई जवाब नलिनीकान्त को न सूझा। वह बस मौन रहे।

          वातावरण की इस चुप्पी को तोड़ते हुए श्री अरविन्द बोले- देख पढ़ना बुरा नहीं है। पर यह पढ़ना दो तरह का होता है- एक बौद्धिक विकास के लिए, दूसरा मन- प्राण को स्वस्थ करने के लिए। इस दूसरे को स्वाध्याय कहते हैं और पहले को अध्ययन। तुम इतना अध्ययन करते हो सो ठीक है, पर स्वाध्याय भी किया करो। इसके लिए अपनी आन्तरिक स्थिति के अनुरूप किसी मन्त्र या विचार का चयन करो। और फिर उसके अनुरूप स्वयं को ढालने की साधना करो। नलिनीकान्त लिखते हैं, यह बात उस समय की है, जब श्री अरविन्द सावित्री पूरा कर रहे थे। मैंने इसी को अपने स्वाध्याय की चिकित्सा की औषधि बना लिया।

          फिर मेरा नित्य का क्रम बन गया। सावित्री के एक पद को नींद से जगते ही प्रातःकाल पढ़ना और सोते समय तक प्रतिपल- प्रतिक्षण उस पर मनन करना। उसी के अनुसार साधना की दिशा- धारा तय करना। इसके बाद इस तय क्रम के अनुसार जीवन शैली- साधना शैली विकसित कर लेना। उनका यह स्वाध्याय क्रम इतना प्रगाढ़ हुआ कि बाद के दिनों में जब श्री अरविन्द से किसी ने पूछा- कि आपके और माताजी के बाद यहाँ साधना की दृष्टि से कौन है? तो उन्होंने मुस्कराते हुए कहा- नलिनी। इतना कहकर थोड़ी देर चुप रहने के बाद बोले, ‘नलिनी इज़ इम्बॉडीमेण्ट ऑफ प्यूरिटी’ यानि कि नलिनी पवित्रता की मूर्ति है। नलिनी ने वह सब कुछ पा लिया है जो मैंने या माता जी ने पाया है। ऐसी उपलब्धियाँ हुई थीं स्वाध्याय चिकित्सा से नलिनीकान्त को। हालांकि वह कहा करते थे कि स्वस्थ जीवन के लिए शुरूआत अपनी स्थिति के अनुसार मन के स्थान पर तन से भी की जा सकती है। इसके लिए हठयोग की विधियाँ श्रेष्ठ हैं।
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