गायत्री उपासना अनिवार्य है - आवश्यक है

उपासना का आधार और प्रभाव

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कहा जा चुका है कि उपासना का अर्थ है- समीपता । ईश्वर और जीव में यों समीपता ही है । जब भगवान कण- कण में संव्याप्त हैं, तब मानवी काया एवं चेतना में भी वे समाये हुए क्यों नहीं होंगे। जो अपने में ओत- प्रोत ही हैं, वह दूर कैसे ? और जो दूर नहीं हैं उसकी समीपता का क्या अर्थ ? इस असमंजस की विवेचना इस प्रकार होती है कि यह समीपता उथली है, गहरी नहीं ।माना हक शरीर में हलचलों के रूप में और मन में चिन्तन के रूप में विश्व व्यापी चेतना ही काम कर रही है तो भी स्पष्ट है कि जीव की आस्थायें एवं आकांक्षायें अदृश्य सत्ता के अनुरूप नहीं हैं, मनुष्यता की सार्थकता तभी है, जब उसका स्वरूप एवं स्तर भी उसी के अनुरूप ऊँचा उठ सके । निम्न योनियों के जीवधारी पेट और प्रजनन के लिये जीते हैं । स्वार्थ- सिद्धि ही उनकी नीति होती है । शरीरगत लाभ ही उनके प्रेरणा- स्रोत होते हैं। दूसरों के साथ वे आत्मभाव बहुत थोड़ी मात्रा में मिला पाते हैं ओर परमार्थ परायणता के अंश नगण्य जितने देखे जाते हैं । यदि यही अंतःस्थिति मनुष्य की बनी रहे तो समझना चाहिए कि कायिक विकास ही हुआ- चेतनात्मक नहीं । आये की दृष्टि से प्रौढ़ हो जाने पर भी यदि सारा आचार- व्यवहार बच्चे जैसा ही बना रहे तो उस अविकसित स्थिति पर चिन्ता व्यक्त की जायेगी । ठीक वही स्थिति उन मनुष्यों की है, जो शरीर से तो सुरदुर्लभ काया में प्रवेश पा गये, पर उन्होंने अपने दृष्टिकोण में, क्रिया- कलाप में वही पिछड़ा हुआ क्रिया- कलाप संजोये रखा ।

इस दयनीय स्थिति से पीछा छुड़ाने के लिए ईश्वर की समीपता का, उपासना का , उपक्रम बनाना पड़ता है । संगति का , समीपता का प्रभाव सर्वविदित है । चन्दन के समीप उगे हुए झाड़- झंखाड़ सुगन्धित हो जाते हैं, कोयले की ओर गन्धी की दुकान पर बैठने वाले कालोंच का धब्बा और सुगन्ध का छींटा साथ लेकर जाते हैं । दुष्टों की समीपता से दुर्गति और सज्जनों के सान्निध्य से सद्गुणों की वृद्धि और प्रगति की संभावना का साकार होना सर्वविदित है । ईश्वर उत्कृष्टताओं का भाण्डागार है । उसकी समीपता, उपासना से वैसी ही विशेषताओं का बढ़ना स्वाभाविक है । कीट भृंग का उदाहरण प्रसिद्ध है । टिड्डे हरी घास में रहते हैं तो उनका शरीर हरा रहत है और जब वे सूखी घास में रहने लगते हैं तो पीले पड़ जाते हैं । तितलियाँ फूलों के अनुरूप अपने रंग बदलती रहती हैं । समीपता के अनुरूप ढलने के उदाहरण सर्वत्र पाये जाते हैं । वातावरण की प्रभाव शक्ति को कौन नहीं जानता । व्यक्तित्वों का भला- बुरा निर्माण करने में वातावरण की असाधारण भूमिका रहती है ।

उपासना का क्रिया- कृत्य और बहिरंग स्तर पर ऐसा ' माहोल ' बनाना चाहिए , जिससे व्यक्ति के भावनात्मक स्तर में उत्कृष्टता की अभिवृद्धि होती हो । बहिरंग वातावरण बनाने में पूजा- उपासना में प्रयुक्त होने वाली प्रतीक- प्रतिमा, उसका सज्जा- श्रृगार, पूजा में प्रयुक्त होने वाले पदार्थ, उपकरण आदि का मिला- जुला स्वरूप अपना काम करता है । पूजा- वेदी के समीप बैठने पर ऐसा लगना चाहिए मानों किन्हीं असाधारण दिव्य परिस्थितियों में जा पहुँचे । मन्दिर, देवालय , पूजा- गृह, देवीपीठ, आराधना- कक्ष को बनने में उपयुक्त वातावरण बनाने का तथ्य ही प्रधान रूप से काम करता है । वहाँ के सुसज्जा साधन संजोने में इसी बात का ध्यान रखा जाता है कि उस स्थान में जाते ही मन अपने आपको पवित्रता की दिव्य परिस्थितियों से घिरा हुआ अनुभव करने लगे । सामान्य वातावरण भिन्न रखा जाता है और वहाँ परिस्थितियाँ ऐसी बनाई जाती हैं, जिनमें बैठने पर उत्कृष्टता की अनुभूति बढ़ने में सुविधा मिल सके ।

उपासना का दूसरा आधार कर्मकाण्डों का क्रिया- कृत्य और तीसरा आधार भावना के क्षेत्र में दिव्य उभार उत्पन्न करना होता है । यह दोनों ही आधार अपने आप में अति महत्त्वपूर्ण हैं । उनसे चेतना को बदलने एवं ढालने में असाधारण सहायता मिलती हैं ।

कर्मकाण्ड वे कृत्य हैं, जो शरीर के विभिन्न अवयवों की सहायता से उपचार- उपकरणों के द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। षोडशोपचार, देव- पूजन, आत्मशोधन के विभिन्न क्रिया- कृत्य इसी श्रेणी में आते हैं । मन पर छाप डालने में विचार और कर्म का समन्वय करना पड़ता है । चित्त पर स्थिर संस्कार डालने के लिए अभीष्ट विचारों के साथ- साथ उनके पूरक कृत्य होने ही चाहिए अन्यथा कल्पना केवल कल्पना बनकर हव में उड़ जाती है । विचारणा क साथ क्रिया का समन्वय न कर सकने पर भी जो लोग सफलताएँ चाहते हैं , उन्हें शेखचिल्ली कहकर उपहासास्पद किया जाता है। हर क्षेत्र में विचार और कर्म का समन्वय ही प्रतिफल उत्पन्न करता है । उपासना में ईश्वरीय सान्निध्य की कल्पना ही नहीं, अनुभूति भी अपेक्षित होती है । भावनिष्ठा को क्रियान्वित होते देखकर ही ऐसी मनःस्थिति बनती है । इसलिए चह सोचना होता है कि परमेश्वर प्रत्यक्ष ही, सचमुच ही, सामने विराजमान है और उनकी किसी जीवित व्यक्ति के उपस्थित होने पर की जाने जैसी अभ्यर्थना की जा रही है । आत्मशोधन और देवपूजन दोनों ही कृत्यों में इसी प्रकार का भाव- समन्वय होता है । वह यदि बेगार भुगतने क उथले मन से किया गया है और जैसे- तैसे परम्परागत लकीर पीटी गई हो तो वह बात दूसरी है अन्यथा जिस प्रयोजन के लिए यह प्रचलन हुआ है उसे ध्यान में रखकर चला जाये तो अंतःक्षेत्र में अभीष्ट निष्ठा और लगेगा कि निराकार परमेश्वर अपेक्षाकृत अधिक सघन, अधिक साकार बनकर सामने आया है।

उपासना का तीसरा प्रयोजन है- मनःक्षेत्र पर ईश्वरीय सान्निध्य का चिन्तन घटाटोप की तरह छाये रहना । सामान्य जीवन में आत्म- सत्ता शरीर रूप में ही काम करती है , अस्तु। अपना आपा शरीर मात्र ही अनुभव होने लगता है । शरीर से सम्बन्धित समस्याओं का विस्तार अत्यधिक है । उनके खट्टे- मीठे स्वाद भी चित्र- विचित्र हैं और वे सभी बड़े आकर्षक हैं । यों प्रिय- अप्रिय स्तर पर परस्पर विरोधी अनुभूतियाँ सामने आती हैं, पर वे दोनों ही अपने -अपने ढंग के गहरे प्रभाव चेतना पर छोड़ती हैं । सफलताएँ अपने ढंग का प्रभाव डालती हैं ,असफलता दूसरे ढंग का । लाभ में एक प्रकार का अनुभव होता है, हानि में दूसरे तरह का। एक स्थिति प्रिय लगती हैं , दूसरी अप्रिय । इतना होते हुए दोनों की गहरी छाप पड़ती है। सफलता का हर्षोन्माद और असफलता का शोक- सन्ताप दोनों ही अपने प्रभाव छोड़ते और चेतना को आवेशग्रस्त बनाते हैं । ज्वार- भाटे जैसे यह आवेश- अवसाद सामयिक अनुभूति बनकर ही समाप्त नहीं हो जाते, वरन् पीछे भी बहुत समय तक उनकी उत्तेजित प्रतिक्रिया बनी रहती है । ऐसे क्षण बहुत कम ही आते हैं, जिनमें चित्त शान्त- सन्तुलित रहता हो आत्म सत्ता के साथ जुड़ी हुई समस्याओं के हल करने की बात सूझ पड़ती हो । यही कारण है कि हम भौतिक आवश्यकता और समस्याओं को ही सब कुछ मान लेते हैं और उन्हीं के जाल- जंजाल में उलझे, जकड़े पड़े रहते हैं। आत्मिक जीवन का स्वरूप भी सामने नहीं आ पाता फिर उनका समाधान सूझे तो कैसे ? स्पष्ट है कि आत्मिक समस्याओं का समाधान हुए बिना न तो भौतिक जीवन का रस पिया जा सकता है और न जीवन- लक्ष्य पूरा करने की बात बनती है ।

आवश्यक है कि कुछ समय हमारे पास ऐसा हो, जिसमें भौतिक जीवन को एक प्रकार से पूरी तरह ही भुला दिया जाये और उन क्षणों में केवल आत्मा का स्वरूप, जीवन- लक्ष्य एवं परमात्म सान्निध्य के अतिरिक्त और कुछ सूझ ही न पड़े। यही उपासना काल है । यह सही हुई या गलत, इसकी पहचान इतनी ही है कि उन क्षणों में मनःक्षेत्र पर आत्मिक स्तर का चिन्तन छाया रहा या भौतिक स्तर का। यदि सांसारिक मनोकामनाओं की उथल- पुथल मची हुई है और इष्टदेव से तरह- तरह के भौतिक वरदान पाने की ललक उठ रही हो तो समझना चाहिए कि यह उपासना- कृत्य भी विशुद्ध रूप से भौतिक है । इससे आत्मिक प्रगति जैसा कोई लाभ मिल नहीं सकेगा। यदि उतने समय शरीर रहित, भौतिक प्रभावों से मुक्त, ज्योतिर्मय आत्मा ही ध्यान में है और उसमें महाज्योति के साथ समन्वित हो जाने की दीप- पतंग जैसी आकांक्षा उठ रही है, तो समझना चाहिए कि उपासना का सच्चा अपना लिया गया और अभीष्ट उद्देश्य पूरा हो सकने की सम्भावना बन रही है ।

उपासना क समय सांसारिक विचार न आयें इसका एक ही उपाय है कि उन क्षणों के लिए एक निर्धारित विचार- पद्धति सामने रहे। यह भी दृश्य मुक्त- आकर्षक स्तर की ऐसी हो जो मन को अपने शिकंजे में पकड़े रहे, यों वैज्ञानिकों जैसे गहरे चिन्तन से भी हो सकता है, पर वैसे बहुत समय क अभ्यास और एकाग्र एकात्म स्तर मिल आने पर ही सम्भव है । आरम्भ में दृश्य मुक्त चिन्तन मनःक्षेत्र पर छाया रहे ऐसा अभ्यास लेकर चलना चाहिए। ‘ध्यान’ इसी को कहते हैं । उपासना में ध्यान अनिवार्य है । यदि उसे छोड़ कर मात्र क्रिया- कृत्य ही किये जा रहे होंगे तो मन इधर- उधर भागता रहेगा और अधूरा शरीर- कर्म ही पूजा- पाठ के नाम पर अपनी लंगड़ी- लूली गाड़ी घसीट रहा होगा ।

ध्यान साकार और निराकार दो प्रकार के कहे गये हैं । एक में भगवान की मनुष्याकृति को मान कर चला जाता है ,, दूसरे में प्रकाश पुञ्ज की आस्था जमाई जाती है। तात्त्विकदृष्टि से यह दोनों ही साकार है । सूर्य जैसे बड़े और प्रकाश बिन्दु जैसे छोटे आकार का ध्यान रखना भी तो एक प्रकार का आकार ही है, अन्तर इतना ही तो हुआ कि उसकी मनुष्य जैसी आकृति नहीं है। ध्यान के लिए ईश्वर की- परम लक्ष्य की- आकृति बनना आवश्यक है। यों नादयोग, स्पर्शयोग, गन्धयोग को आकृति रहित कहा जाता है, पर ऐसा सोचना अनुपयुक्त है । नादयोग में शंख, घंटा, घड़ियाल ,वीणा आदि की ध्वनियाँ सुनी जाती हैं, पर अनचाहे ही वे वाद्य- यन्त्र कल्पना में आते रहते हैं जिनसे वे ध्वनियाँ निसृत होती हैं । इस प्रकार गन्ध ध्यान में मात्र गन्ध पर ही चिन्तन एकाग्र नहीं हो सकता । जिस पुष्प की वह गन्ध है उसकी आकृति भी अनचाहे ही सामने आती रहेगी । ध्यान में आकृति से पीछा नहीं छूट सकता। मस्तिष्क की बनावट ही ऐसी है कि वह निराकार कहलाने वाले चिन्तन को भी आकृतियाँ बना कर ही आगे चलता है। वैज्ञानिक के गहरे चिन्तन को चिन्तन को निराकार कहा जाता है, पर वस्तुतः वह भी जो सोचता है उसमें कल्पना- क्षेत्र की एक पूरी प्रयोगशाला सामने रहती है और प्रयोगात्मक हलचलें आँधी- तूफान की तरह अपना काम कर रही होती हैं। अन्तर इतना ही होता है कि वह स्थूल प्रयोगशाला के उपकरण छोड़ कर वही सारा प्रयोग कृत्य काल्पनिक प्रयोगशाला में काम कर रहा होता है । ध्यान में आकृति से पीछा छुड़ाना सम्भव नहीं हो सकता , अस्तु। किसी को साकार- निराकार क वितण्डवाद में न पड़ कर ध्यान धारणा के सहारे आत्म- चिन्तन का प्रयोजन पूरा करना चाहिए ।

ईश्वर का आकृति समेत ध्यान करना अभीष्ट हो तो उन्हें नर या नारी की सुन्दरतम प्रतिमा के रूप में इष्ट देव मानना चाहिए और उनके पीछे कोई इतिहास न जोड़ कर उत्कृष्टतम सद्गुणों की पूर्ण प्रतिमा अनुभव करना चाहिए । इसे अन्य किसी देवता से भिन्न नहीं वरन् समन्वित सत्ता मानना चाहिए । एक ही ब्रह्म को अनेक रूपों में कहा गया है । उक्ति बहुदेववाद को तो मानती है, पर उनकी पृथकता अस्वीकार करती है। शंकर, दुर्गा, हनुमान, गणेश, सूर्य, राम, कृष्ण, सरस्वती, लक्ष्मी, गायत्री, आदि की कोई भी प्रिय आकृति साकार ध्यान के लिए चुनी जा सकती है , पर यह नहीं हो सोचा जाना चाहिए कि यह अन्य किसी देव- सत्ता से भिन्न है। एक ही मनुष्य के अनेक चित्र हो सकते हैं, ठीक इसी प्रकार विश्व में एक ही संव्याप्त चेतना के अनेक नाम रूप रखे जा सकते हैं, पर किसी आकृति को दूसरी आकृतियों से भिन्न नहीं माना जा सकता। इस भिन्नता की मान्यता ने बहुदेववाद के साथ अवांछनीय विग्रह उत्पन्न किये हैं और मूल प्रयोजन को ही लड़खड़ा दिया है ।

साकार उपासना में इष्ट देव के समीप, अति समीप होने और उनके साथ लिपट जाने- उच्चस्तरीय प्रेम के आदान- प्रदान की गहरी कल्पना करनी चाहिए। इसमें भगवान और जीव के बीच माता- पुत्र, पति, सखा- सहोदर, स्वामी जैसा कोई भी सघन सम्बन्ध माना जा सकता है , इसमें आत्मीयता को अधिकाधिक घनिष्ठ बनाने में सहायता मिलती है । लोक व्यवहार में स्वजनों के बीच आदान- प्रदान उपहार और उपचार की तरह चलते हैं। मन- वचन से घनिष्ठता एवं प्रसन्नता व्यक्त की जाती है । भेंट- उपकार में कई तरह की वस्तुएँ दी जाती हैं। नवधा भक्ति में ऐसे ही आदान- प्रदान की वस्तु पूरक अथवा क्रियापरक कल्पना की गई है। वस्तुतः यहाँ प्रतीकों को माध्यम बनाकर भावनात्मक आदान- प्रदान की गहराई में जाया जाना चाहिए । भक्त और भगवान के बीच सघन आत्मीयता की अनुभूति उत्पन्न करने वाला आदान- प्रदान चलना चाहिए । भक्त अपनी अहंता को क्रिया, विचारणा, भावना एवं सम्पत्ति को भगवान के चरणों पर अर्पित करते हुए सोचता है, यह सारा वैभव उसी दिव्य सत्ता की धरोहर है । इसका उपयोग व्यक्तिगत वासना, तृष्णा के लिए- ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए किया जाता है। वह स्वयं तो मात्र खजांची- स्टोरकीपर भर है ।

ध्यान का एक मात्र उद्देश्य भगवान और भक्त के बीच एकात्म भाव की स्थापना करना है, मात्र किसी आकृति का ध्यानचित्र देखते भर रहने से काम नहीं चलता । भक्त अपने स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों को- क्रिया, विचारणा और भावना को ईश्वर- अर्पण करके उसे मात्र दिव्य प्रयोजनों मे नियोजित रखने का संकल्प सघन करता है । इसके साथ- साथ भौतिक धन- सम्पत्ति तो अर्पित हो ही जाती है । समर्पण का तात्पर्य है व्यक्तिगत- भौतिक महत्त्वाकाँक्षाओं की समाप्त और उनके स्थान पर ईश्वर इच्छा की , उच्च आदर्शों की अपने ऊपर नियन्त्रण करने वाली स्थापना । इसी मान्यता को अंतःकरण में यथार्थवादी निष्ठा के साथ स्थापित करने को आत्म- समर्पण कहते हैं। ध्यान के द्वारा इसी निष्ठा को परिपक्व किया जाता है ।

भक्त का समर्पण , बदले में भगवान का अनुग्रह आश्वासन । इसी के तरह- तरह के लौकिक स्वरूप चित्र कल्पित किये जा सकते हैं । साकार ध्यान में अपनी रुचि की कल्पनाएँ करते रहने की पूरी छूट है। ध्यान की एकाग्रता इसी सीमा तक है कि उसमें भक्त और भगवान के बीच होने वाले आदान- प्रदान की कल्पनाएँ ही चलनी चाहिए, भौतिक लाभ या प्रयोजन आड़े नहीं आने चाहिए । पूर्ण एकाग्रता जिन्हें शून्यावस्था, योगनिद्रा या समाधि कहते हैं, बहुत ऊँची स्थिति है। मन कहीं जाये या नहीं, एक बिन्दु पर केन्द्रित रहे, ऐसा हो सकने को ही तुरीयावस्था या समाधि कहते हैं । यह आरम्भिक साधना में लगभग असंभव ही है, उसकी बात नहीं सोची जानी चाहिए । ध्यान साधना का व्यावहारिक रूप इतना ही है कि भक्त और भगवान के बीच उच्चस्तरीय आदान- प्रदान चलना चाहिए। भक्त अपनी समस्त आकांक्षाओं और सम्पदाओं को ईश्वर के लिए समर्पित करता है और इसके बदले में वह सब कुछ पाता है जो ईश्वर स्वयं है । मनुष्य को स्पष्ट करने वाली ईश्वरीय सत्ता अपनी अनुभूति, आनन्द और उल्लास के रूप में छोड़ती है। भगवान से कुछ मिला या नहीं, इसकी परख इस रूप में की जा सकती है कि उल्लास- आदर्शवादिता के प्रति उत्कण्ठा भरा उभार अन्तःकरण में उमँगना आरम्भ हुआ या नहीं। सद्भावना अपनाने वाले को सहज ही मिलते रहने वाला आत्म - सन्तोष- आनन्द अनुभव में आता है या नहीं ।

ईश्वर दर्शन के सम्बन्ध में यह भ्रान्त धारणा निरस्त की जानी चाहिए कि सपने में या जागृति में इष्ट देव की किसी आकृति की झाँकी मिलती है, अथवा प्रकाश आदि दीखने जैसा कोई चित्र- विचित्र दृश्य दिखाई पड़ता है। यदि ऐसा किसी को होता हो तो उसे झाड़ी का भूत, रस्सी का साँप दीखने की तरह अपने संकल्पों की मानसिक प्रतिक्रिया भर समझना चाहिए । जब चेतना की कोई आकृति हो ही नहीं सकती तो फिर उसका निर्भ्रान्त दृश्य दिखाई ही कैसे दे सकता है ? इस तथ्य को हजार बार हृदयंगम कर लिया जाना चाहिए कि ईश्वर का जीवन में समावेश आदर्शवादी आकांक्षाएँ प्राणप्रिय प्रतीत होने लगने और तदनुरूप गतिविधियाँ अपनाने पर मिलने वाले आनन्द उल्लास की अनुभूति का स्तर ही ईश्वर- प्राप्ति का एकमात्र प्रमाण हैं।

निराकार ध्यान में प्रायः सर्वत्र सूर्य के प्रकाश को ही माश्यम बनाया जाता है। प्रभात काल के उदीयमान सूर्य का सविता देवता के प्रतीक रूप में दर्शन, उसकी दिव्य किरणों का शरीर, मन और अन्तरात्मा में प्रवेश उस प्रवेश की सत्कर्म, सद्ज्ञान एवं सद्भाव के रूप में प्रतिक्रिया। इसी परिधि में निराधार ध्यान धारणा परिभ्रमण करती है। यज्ञाग्नि रूपी ईश्वर में आहुति द्रव्य की तरह जीव सत्ता का समर्पण नाले का गंगा में- बूँद का समुद्र में सम्पादन- दीप का सूर्य ज्योति में विलय, अर्घ्य जल का भाप बनकर व्यापक क्षेत्र में विस्तार, पतङ्गे का दीपक को समर्पण जैसे कितने ही दृश्य- चित्र कल्पना क्षेत्र में बनाये जा सकते हैं और उनके सहारे एकात्म भाव की अनुभूति का आनन्द लिया जा सकता है ।उपासना के क्रिया- कृत्य में (१) स्थापना, सुसंकल्प के आधार पर वातावरण का निर्माण (२) प्राणायाम, न्यास, पूजा- उपचार आदि क्रिया- कृत्यों द्वारा विचारणा की क्रिया में परिणति (३) जप के साथ ध्यान का अवलम्बन और दिव्य सत्ता के साथ ऐसे सघन तादात्म्य की स्थापना जो चिन्तन क्षेत्र मे उत्कृष्टता और क्रिया क्षेत्र में आदर्शवादिता अपनाने के लिए विवश कर सके । यही है उपासना का त्रिविध स्वरूप । गायत्री मन्त्र में तीन व्याहृतियाँ इसीलिए हैं। आठ- आठ अक्षरों के तीन चरण होने के कारण इस महाशक्ति को त्रिपदा कहा गया है । उपासना के इन तीनों आधारों को अपना कर गायत्री मन्त्र के सहारे अथवा कोई और अवलम्बन अपना कर ईश्वर की साकार अथवा निराकार जो भी उपासना अपनाई जायेगी, निश्चित रूप से सफल होगी और अभीष्ट सत्परिणाम उत्पन्न करेगी ।



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